गीता अमृत - 89
भ्रम का घर - मन [क] - जितनें लोग हैं , सब का अपना - अपना संसार है [ख] - संसार मन का फैलाव है [ग] - लोग अपनें - अपनें संसार में इतनें ब्यस्त हैं की प्रभु की स्मृति लोगों की बुद्धि में न के बराबर है [घ] - संसार को अपनें मन का प्रतिबिम्ब समझनें वाला ब्यक्ति , भोगी है [च] - संसार को प्रभु का प्रतिबिम्ब समझनें वाला , योगी है [छ] - शरीर त्याग्नें के पहले जिसको अपनें संसार में प्रभु दिखनें लगता है , वह परम गति में पहुंचता है [ज] - मन पर गुणों का सम्मोहन , मन को सत्य से दूर रहता है [झ] - मन पर जब गुणों का प्रभाव नहीं होता तब वह प्रभु को देखता है [**] - भोग -भगवान् - दोनों एक साथ एक बुद्धि में नहीं रहते [**] - ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है गीता के दस सूत्र उस परम मार्ग की ओर इशारा करते हैं जो भोग संसार से चलकर संन्यास से होते हुए प्रभु के आयाम में पहुँचते हैं । कौन प्रभु को चाहता है ? जो प्रभु को चाहता है , वह क्यों चाहता है ? आप को यदि प्रभु को पानें की चाह हो तो सोचना उस चाह के कारण को ? और इतना समझना की ----- जब तक चाह है , प्रभु दूर है ..... जब चाह समाप्त हो जाती है तब प्रभ