गीता वाणी
कामना क्रोध एवं अहंकार गीत श्लोक - 6.2 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव / न ह्यसंन्यस्तसंकल्पों योगी भवति कश्चन // संन्यास एवं योग दोनों एक स्थिति के संबोधन हैं / संकल्पों के त्याग बिना कोई योगी नाहीं होता / अर्थात ----- संकल्पधारी कभीं भी योगी नहीं बन सकता // A man with determination of passion can never be Yogi गीत श्लोक - 6.10 योगी युज्जीत सततं आत्मानम् रहसि स्थितः / एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः // वह जिसका तन , मन एवं इन्द्रिया नियोजित हों , एकांतवासी हो और जो आत्मा के माध्यम से परमाता केन्द्रित हो वह संग्रह रहित आशा रहित [ कामना रहित ] योगी होता है // Yogi is that who is desireless , who likes solitude , whose body , mind ans senses are full of awareness . गीत के दो सूत्र कोई अलग - अलग बात नहीं कह रहे , दोनों बातें मात्र इतन कह रही हैं की ----- तन , मन की पवित्रता एकांत बासी बनाती है और एकांत बासी की दृष्टी बाहर नहीं अन्दर की ओर चलती है / वह जो अन्दर की ओर देखता रहता है , आत्मा केन्द्रित परमात्मा में ही बसेरा बना लेता है // The man in complete serenity is steadfa