गीता श्लोक - 8.21
अब्यक्त: अक्षरं इति उक्त: तं आहु : परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तत्धाम परमं मम ॥ 8.21 परम गति में अब्यक्त अक्षर की अनुभूति ही का दूसरा नाम है - परम धाम ॥ अब हम देखते हैं इस श्लोक को ------ परम का अर्थ है - जिसके आगे कुछ और न हो ॥ गति का अर्थ है वह जो मिलनें वाला है ॥ अब्यक्त का अर्थ है - वह जिसको ब्यक्त न किया जा सके लेकीन वह हो ॥ परमधाम वह माध्यम है जिसका उर्जा क्षेत्र परम ऊर्जा का क्षेत्र हो अर्थात ...... वह क्षेत्र जिसके कण - कण में प्रभु बसता हो ॥ प्रभु मय योगी जब अपनें शरीर को त्यागता है तब वह ...... यह देखता है की उसका आत्मा कैसे देह को त्याग रहा है । वह अपनी आगे की यात्रा में भी होश मय होता है और निराकार में होशके साथ जो यात्रा होती है , वह है परम गति की यात्रा । इस यात्रा में सनातन की अनुभूति को परम धाम कहते हैं और इस स्थिति में मनुष्य आवागमन से मुक्त हो कर प्रभु में समा जाता है । आवागमन से मुक्त होना क्या है ? आत्मा और प्रभु के फ्यूजन को कहते हैं परम धाम की प्राप्ति और आवागमन से मुक्त होना । जब बूँद समुद्र में समा जाती है तब उस घटना को कहते हैं आवागमन से मुक्त हो