गीता अमृत - 72

गीता का अर्जुन

यहाँ गीता के कुछ श्लोकों को देखते हैं जिनसे गीता के अर्जुन की एक तस्बीर बनती है ।

गीता सूत्र - 11.7 + 11.33 ------ अर्जुन निद्रा को जीत चुके हैं और दोनों हांथों से
तीर चलानें में सक्षम हैं ।
गीता सूत्र - 1.22 + 2.31, 2.33 --- अर्जुन के लिए यह युद्ध एक ब्यापार है और प्रभु के लिए यह धर्म - युद्ध है ।
गीता सूत्र - 1.26 - 1.46 तक , 2.7, 10.12 - 10.17, 11.37, 11.1 - 11.4, 11.51, 18.73
यहाँ अर्जुन भ्रमित बुद्धि वाले की तरह कभी कुछ तो कभी कुछ कहते हैं । अर्जुन प्रारम्भ में जो बातें प्रभु से करते हैं , उनसे एक बात स्पष्ट होती है - की अर्जुन मोह में डूबे हुए हैं ।
अर्जुन बार - बार कहते हैं , मैं आप का मित्र हूँ , मैं आप का शिष्य हूँ । अब मैं संदेह से मुक्त हूँ , अब मैं आप की शरण में हूँ , अब मैं अपनी स्मृति वापिस पा ली है लेकीन यह सब कहनें के बाद भी प्रश्न पूंछते हैं ।

गीता में अर्जुन का आखिरी श्लोक है - 18.73 जिसमें वे कहते हैं -----
हे प्रभु ! अब मेरा भ्रम समाप्त हो चुका है , अब मैं आप को अर्पित हूँ और आप के आदेश का पालन करूंगा ।
सीधी सी बात है --- वह जो समर्पित होगा , वह जो श्रद्धावान होगा , वह जो प्रभु मय होगा , वह प्रश्न रहित होगा , प्रश्न इस बात को स्पष्ट करते हैं की प्रश्न करता वह है जो भ्रमित है । बीना भ्रम प्रश्न उठ नहीं सकता और शांत मन - बुद्धि में प्रश्न का उठना संभव नहीं ।

गीता का अर्जुन कोई और नहीं है -----

गीता का अर्जुन हम - आप हैं जिनके जीवन का केंद्र , भोग है
गीता का अर्जुन वह है जो भगवान् को भी भोग के लिए प्रयोग करता है
गीता का अर्जुन वह है जो गुणों का गुलाम है
गीता का अर्जुन वह है जो , काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार के सम्मोहन
में होता है ।
अर्जुन जैसा ब्यक्ति और सांख्य - योगी , श्री कृष्ण जैसा गुरु , आप के सामनें हैं और ऐसे गुरु को युद्ध स्थल में अपने शिष्य को समझानें में 556 श्लोकों को बोलना पडा है फिर आप - हम जैसे के लिए कैसा गुरु और कैसा गीता उपदेश चाहिए , भोग से भगवान् में पहुंचनें के लिए ।

प्रभु के लिए उपदेश नहीं श्रद्धा की लहर चाहिए और श्रद्धा की लहर उठाई नहीं जा सकती , यह स्वयं
उठती है , बश इंतज़ार करना अपनें बश में है ।

==== ॐ ======

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