गीता अमृत - 78


मन से सब हैं

गीता , उपनिषद् , वेद, पुराण एवं अन्य शास्त्रों में कहा गया है ..........
बुद्धि मन का महावत है
मन ज्ञानेन्द्रियों का महावत है
मन कर्म इन्द्रियों का महावत है , और
मनुष्य मन का गुलाम है
मन गुण - समीकरण का गुलाम है
गुण समीकरण ------
खान - पान , सम्बन्ध एवं सोच का गुलाम है , फिर हमें क्या करना चाहिए ?

हमें स्वयं को अपनें भोजन , निद्रा , विश्राम , कर्म , संबंधों एवं ज्ञानेन्द्रियों की गतियों पर केन्द्रित करना चाहिए ।

गुण समीकरण क्या है [ देखिये गीता - 14.10 ]

मनुष्य के अन्दर हर पल तीन गुणों की कुछ - कुछ मात्राएँ होती हैं जो हर श्वास के साथ बदलती रहती हैं ।
जप गुण ऊपर होता है , मनुष्य की सोच वैसी ही होती है । जैसी सोच होती है , वैसे कर्म होते हैं , कर्म का फल यदि चाह के अनुकूल हुआ तब सुख मिलता है और जब यह प्रतिकूल होता है तब दुःख मिलता है ।
शास्त्र कहते हैं -- जैसा मन , वैसा संसार , जैसा मन , वैसा कर्म , जैसा मन वैसी सोच और जीसी सोच वैसा
सब कुछ होता है ।
हम पांच ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से संसार में स्थित पांच बिषयों से सम्बंधित रहते हैं । इन्द्रिय एवं उसके बिषय का संयोग , मन में भाव उत्पन्न करता है , यह भाव उस गुण के ऊपर आधारित होता है जिसका मन गुलाम होता है ।
मन को गुण - प्रभाव से बचानें का नाम है , ध्यान ।
ध्यान से मन एवं गुणों के मध्य एक दूरी रखी जाती है और जब ध्यान गहराता है तब मन गुणों के भावों का द्रष्टा बन जाता है ।
जब मन - बुद्धि तंत्र द्रष्टा बन जाते हैं तब किसी भी समय उस ध्यानी को समाधी की
अनुभूति हो सकती है ।
समाधी की अनुभूति ब्यक्त नहीं की जा सकती लेकीन यह एक परम अनुभूति होती है ।
मन - बुद्धि को निर्विकार रखना ही ध्यान है । हर पल मन का पीछा करते रहो , मन जहां - जहां रुकता हो उसे वहाँ - वहाँ से खीच कर प्रभु पर केन्द्रित करनें का अभ्यास , प्रभु मय बना सकता है ।

==== ॐ =====

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