गीता अमृत - 55
ऊब समीकरण
[क] जिसके नौ द्वार द्रष्टा बन गए हों .... गीता - 5.13
[ख] जो गुणों को करता देखता हो ....... गीता - 14.19, 14.23
[ग] जो सब को आत्मा - परमात्मा में देखता हो .... गीता - 6.29 - 6.30
[घ] जो आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता हो .......... गीता - 2.55, 3.17
[च] जो सम भाव - परा भक्त हो ..... गीता - 18.54 - 18.55
[छ] जो यह जानता है की सत भावातीत है .... गीता - 2.16
[ज] जो राग - भय एवं क्रोध रहित हो ..... गीता - 2.56, 2.64, 4.10
[झ] जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता हो ..... गीता - 4.18
[थ] जो प्रकृति - पुरुष को जानता हो .... गीता - 13.19, 14.20
वह कभी ऊब में नहीं फसता ।
ऊब है क्या ?
ऊब के इस तरफ है गुणों का आकर्षण और ऊब के उस ओर है - प्रभु का आयाम । इस बात को आप ठीक से समझें । जब मन - बुद्धि तर्क - बितर्क करके थक जाते हैं , कोई हल नहीं दिखता , तब ऊब का
आगमन होता है । आइन्स्टाइन कहते हैं , मैं एक साधारण बुद्धि वाला हूँ , एक आम आदमी और मेरे में एक फर्क है , आम आदमी अपनी सोच से भाग लेता है और मैं अपनी सोच को अपना लेता हूँ ।
गीता कहता है -----
जहां मन - बुद्धि रुक जाते हैं , वहाँ से प्रभु का आयाम प्रारम्भ होता है [ गीता - 12.3 - 12.4 ] और हम लोग
ठीक इस स्थिति में अपना रुख बदल लेते हैं और यह चूक हमें सत से दूर कर देती है ।
सोचते हो तो सोचो , यहाँ क्या कंजूसी करनी ......
जपते हो तो जपो , हरी का नाम , इसमें क्या कंजूसी ....
जैसे अपनें को देखते हो ...
वैसे सभी को देखो , इसमें क्या कंजूसी ....
वह तो है सर्वत्र , आँख खोलनें में क्या कंजूसी ।
==== ॐ ======
[क] जिसके नौ द्वार द्रष्टा बन गए हों .... गीता - 5.13
[ख] जो गुणों को करता देखता हो ....... गीता - 14.19, 14.23
[ग] जो सब को आत्मा - परमात्मा में देखता हो .... गीता - 6.29 - 6.30
[घ] जो आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता हो .......... गीता - 2.55, 3.17
[च] जो सम भाव - परा भक्त हो ..... गीता - 18.54 - 18.55
[छ] जो यह जानता है की सत भावातीत है .... गीता - 2.16
[ज] जो राग - भय एवं क्रोध रहित हो ..... गीता - 2.56, 2.64, 4.10
[झ] जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता हो ..... गीता - 4.18
[थ] जो प्रकृति - पुरुष को जानता हो .... गीता - 13.19, 14.20
वह कभी ऊब में नहीं फसता ।
ऊब है क्या ?
ऊब के इस तरफ है गुणों का आकर्षण और ऊब के उस ओर है - प्रभु का आयाम । इस बात को आप ठीक से समझें । जब मन - बुद्धि तर्क - बितर्क करके थक जाते हैं , कोई हल नहीं दिखता , तब ऊब का
आगमन होता है । आइन्स्टाइन कहते हैं , मैं एक साधारण बुद्धि वाला हूँ , एक आम आदमी और मेरे में एक फर्क है , आम आदमी अपनी सोच से भाग लेता है और मैं अपनी सोच को अपना लेता हूँ ।
गीता कहता है -----
जहां मन - बुद्धि रुक जाते हैं , वहाँ से प्रभु का आयाम प्रारम्भ होता है [ गीता - 12.3 - 12.4 ] और हम लोग
ठीक इस स्थिति में अपना रुख बदल लेते हैं और यह चूक हमें सत से दूर कर देती है ।
सोचते हो तो सोचो , यहाँ क्या कंजूसी करनी ......
जपते हो तो जपो , हरी का नाम , इसमें क्या कंजूसी ....
जैसे अपनें को देखते हो ...
वैसे सभी को देखो , इसमें क्या कंजूसी ....
वह तो है सर्वत्र , आँख खोलनें में क्या कंजूसी ।
==== ॐ ======
Comments