गीता अमृत - 70

नैष्यकर्म की सिद्धि , ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ..... गीता - 18.50

ज्ञान क्या है [ गीता - 13.3 ] ?
गीता कहता है -- वह जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध कराये , ज्ञान है ।
गीता श्लोक - 13.7 - 13,11 कहते है .... सम - भाव वाला ग्यानी होता है ।
गीता कहता है [ गीता - 4.38 ] -- योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति स्वतः होती है ।
गीता कहता है [ गीता [ 18.49 ] -- आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है ।
गीता श्लोक - 18.54 - 18.55 कहते हैं -- परा भक्त प्रभु से परिपूर्ण रहता है ।

गीता के कुछ सूत्रों को आप देखे , इन सूत्रों के आधार पर आप अपनें बुद्धि में कुछ सोच सकते हैं की .....
कर्म , नैष्कर्म , ज्ञान , योग एवं योग सिद्धि में क्या सम्बन्ध हो सकता है ?
कर्म बुनियाद है , जहां से यात्रा प्रारम्भ होती है , कर्म के होनें में जब कोई कारण न हो , कोई बंधन न हो तब वह कर्म भोग कर्म न राह कर , योग कर्म हो जाता है । योग कर्म से निष्कर्मता की सिद्धी मिलती है ।
निष्कर्मता की सिद्धि में कर्म में अकर्म , अकर्म में कर्म दिखता है और गुण तत्वों का अभाव इन कर्मों में होता है । कर्म - योग की सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है और ग्यानी परा भक्त होता है ।

परा भक्त वह है जो ------

** हर वक्त प्रभु मय होता है .....
** ब्रह्माण्ड को प्रभु के फैलाव के रूप में देखता है ....
** सब को प्रभु से प्रभु में देखता है ......
** तन - मन - बुद्धि से प्रभु को समर्पित होता है ।

===== ॐ ======

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