गीता अमृत - 59

सात्विक कर्म क्या है ...... गीता श्लोक - 18.23 - 18.26

** राग द्वेष रहित
** करता भाव रहित
** शास्त्रों के अनुकूल जो हो
वह कर्म सात्विक कर्म है । शास्त्र का क्या अर्थ है , आज यह बताना संभव नहीं लेकीन जिस समय गीता उपदेश प्रभु दिए , उस समय तक शायद शास्त्रों को लोग जानते रहे होंगे । आज शास्त्र क्या हैं , स्वयं में
एक बिबाद है ।

गीता के श्लोक 18.23 - 18.26 तक को जब आप अपनाएंगे तब आप को लगेगा की ------
राजस - तामस गुणों के प्रभाव एवं अहंकार के प्रभाव के कारण जो कर्म न हों , उनको सात्विक कर्म कह सकते हैं ।
कर्म है क्या ?
देखिये गीता श्लोक ..... 3.5, 3.27, 18.11, 2.45, 2.14, 5.22, 18.38 को जो कहते हैं ----
कोई भी जीव धारी एक पल के लिए कर्म रहित नहीं हो सकता । कोई ऐसा कर्म नहीं जो इन्द्रियों एवं बिषयों के सहयोग से होते हों उनमें दोष न हो । मनुष्य गुणों का गुलाम है , गुण मनुष्य को सम्मोहित करके कर्म करवाते हैं और कर्म फल के आधार पर मनुष्य को सुख - दुःख का अनुभव होता है । गुण प्रभावित कर्म , भोग कर्म हैं ,जिनके सुख में दुःख का बीज होता है ।

गीता कहता है - राजस गुण [ गीता - 6.27] प्रभु मार्ग में सबसे बड़ा रुकावट है । राजस गुण का सम्बन्ध काम, कामना ,क्रोध एवं लोभ से है । गीता यह भी कहता है [ गीता - 16.21 ] की काम , क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं । अब आप सोचिये - सात्विक कर्म क्या है ?
सात्विक कर्म वह कर्म है जो मुक्ति का द्वार खोलता है । राजस - तामस कर्म बंधन हैं जो भोग से जोड़ कर रखते हैं और सात्विक कर्म सीधे प्रभु से जोड़ता है । सात्विक , राजस एवं तामस कर्म अलग - अलग नहीं हैं ,जब कर्म होने के पीछे कोई कारण न हो , प्रकृति के अनुकूल हो तो वह कर्म सात्विक कर्म होता है ।
दैनिक कर्मों में कर्म तत्वों के प्रति होश बनाना , साधना है ।
कर्म साधना जो अंततः कर्म योग के माध्यम से प्रभु से परिपूर्ण कर देता है , उसका
नाम है कर्म साधना ।

====== ॐ ======

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