गीता अमृत - 61

तामस कर्म क्या हैं ?



यहाँ इस सन्दर्भ में हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ------
18.25 - 18.28, 14.8, 14.17, 18..72 - 18.73

साधना , योग , ध्यान , तप एवं अन्य ऐसे तरीके जिनसे प्रभु से जुड़ना होता है उन सब का एक काम है । रास्ते अनेक हैं लेकीन उनका मकशद एक है - प्रभु मय कैसे हुआ जाए ?

प्रभु एवं मनुष्य के मध्य एक पर्दा है , वह पर्दा है - तीन गुणों का , जब गुणों का पर्दा हट जाता है तब प्रभु को खोजना नहीं पड़ता , जो दीखता है वह प्रभु ही होता है ।

राजस एवं तामस गुणों के धागे , मजबूत धागे होते हैं जिनसे पर्दा बना होता है और सात्विक गुण का धागा इतना मजबूत नहीं होता जो रभु के मार्ग एन अवरोध उत्पन्न करे लेकीन जब अहंकार की छाया सात्विक गुण पर पड़ती है तब यह गुण भी मजबूत रुकावट बन जाता है ।

काम , कामना , अहंकार , लोभ , क्रोध , मोह , भय - ये तत्त्व हैं जो राजस - तामस गुणों से हैं , साधना में इन तत्वों के प्रति होश बनाना पड़ता है । जब स्वादिष्ठान [ काम चक्र ] एवं नाभि चक्र की पकड़ ढीली पद जाती है तब इन दोनों गुणों के तत्वों की पकड़ भी ढीली हो जाती है और साधक सीधे सात्विक गुण के प्रभाव में आजाता है ।



ऐसे कर्म जो मोह , भय एवं आलस्य के प्रभाव में होते हैं - तामस कर्म होते हैं । मनुष्य के अन्दर [ गीता - 14.10] तीन गुणों का एक समीकरण हर पल रहता है और जो बदलता रहता है । जब एक गुण ऊपर उठता है तब अन्य दो गुण स्वतः फीके हो जाते हैं ।

गीता कहता है -----

तुम अपनें को जानों .....
तुम जहां हो , वहीं से यात्रा करो ....
राजस गुण यदि तेरा केंद्र है तो राजस गुणों के तत्वों को समझो .....
तामस गुण यदि तेरा केंद्र है , तो तामस गुणों के तत्वों को समझो .....
यदि तुम सात्विक गुण के अधीन हो तो अहंकार से बचो .....

ऐसा करनें से तुम्हें प्रभु को खोजना नहीं पड़ेगा , प्रभु तेरे को खोज ही लेगा ।



===== ॐ ======

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