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Showing posts from April, 2010

गीता अमृत - 82

आइये ! अब कुछ गीता सारांशों को देखते हैं ------- [क] भाषा बुद्धि की उपज है ..... [ख] भाषा भावों को ब्यक्त करना चाहती है लेकीन असफल रहती है .... [ग] भावों में डूबा भाषा के माध्यम से जब अपनें भावों को ब्यक्त करता है तब वह और अतृप्त हो उठता है .... [घ] भाषा से भाव ब्यक्त होते तो ---- ## बुद्ध को चालीश वर्ष क्यों बोलना पड़ता .... ## काशी में कबीरजी सौ वर्षों से भी अधिक समय तक क्यों बोलते .... [च] भाव एक माध्यम हैं जो भावातीत में पहुंचाते हैं .... [छ] भावों को समझो , भावों से लड़ो नहीं ..... [ज] भाव दो प्रकार के हैं - सकारण और बिना कारण .... [ज-१] सकारण भाव नरक में ले जाते हैं और ..... [ज-२] कारण रहित भाव प्रभु से जोड़ते हैं [झ] सकारण भाव गुणों से आते हैं , और .... [झ-१ ] बिना कारण भाव ह्रदय से उठते हैं ... [झ-२] ह्रदय में आत्मा - परमात्मा रहते हैं ... [झ-३] ह्रदय बासना रहित प्यार का श्रोत भी है ॥ ==== ॐ =====

गीता अमृत - 81

गीता का आदि - अंत धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव : । मामकाः पाण्डवा श्चैव किम कुर्वत संजय ॥ गीता - 1.1 यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविर्जयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ गीता - 18.78 यदि गीता में ये दोनों श्लोक एक साथ होते तो गीता में 700 श्लोक न होते , गीता केवल दो श्लोकों में होता । ध्रितराष्ट्र जी एक अंधे ब्यक्ति हैं , कौरवों के परिवार के प्रधान हैं । धृतराष्ट्र जी की मदद के लिए संजयजी उनके साथ हैं जिनको वेदव्यास [ गीता - 18.75 ] जी द्वारा ऐश्वर्य आँखें मिली हुई है जिनकी मदद से वे सुदूरपूर्व की घटनाओं को सुन और देख सकते हैं संजय से पूंछते हैं - हे संजय ! मेरे और पांडव के पुत्रों के मध्य धर्म क्षेत्र , कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है ? धृतराष्ट्र जी एवं संजय कुरुक्षेत्र में युद्ध भूमि से कुछ दूरी पर रहे होंगे । यहाँ आप बुद्धि - योग में इन बातों पर सोचें ----- [क] गीता के जन्म से पहले भी कुरुक्षेत्र क्यों और कैसे धर्म स्थान था ? [ख] दूर स्थिति संजय कैसे ध्वनि - चित्र बिस्तारको पकडनें में सफल हो रहे हैं जबकी उस समय टेलीविजन टेक्नोलोजी न थी ? [ग] धृतराष

गीता अमृत - 80

गीता सूत्र - 18.62 से 18.73 तक यहाँ परम श्री कृष्ण क्या चाह रहे हैं ? इस बात को आप देखें ------ आत्मा - परमात्मा , ज्ञान - विज्ञान , भोग - योग , गुण तत्त्व - त्याग , कर्म - कर्म संन्यास जैसी बातों को स्पष्ट करनें के बाद श्री कृष्ण यहाँ और क्या प्रयोग कर रहे हैं ? इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं । [क] गीता - 18.62 ....... तूं उस परमेश्वर की शरण में जा । [ख] गीता - 18.63 ....... मुझे जो बताना था , बता दिया है , अब तू जो उचित समझे , वैसा कर । [ग] गीता - 18.64 ........ तूं मेरा प्रिय है , मैं तेरे को तेरे हित की बातें बताउंगा । गीता - 9.29 में प्रभु कहते हैं --- मेरा कोई प्रिय या अप्रिय नहीं है , मैं सब में सम भाव से हूँ । [घ] गीता - 18.65 ........ तूं मेरा प्रिय है , तूं मेरा भक्त बन जा । [च] गीता - 18.66 ........ तूं सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा , मैं तेरे को मुक्ति दूंगा । [छ] गीता - 18.67 ....... तप रहित एवं भक्ति रहित ब्यक्ति के साथ गीता की चर्चा नहीं करनी चाहिए । [ज] गीता - 18.68 .... 18.71 तक ---- गीता प्रेमी के ह्रदय में मैं बसता हूँ । [झ] गीता - 18.72 ..... क्

गीता अमृत - 79

जा तूं परमेश्वर की शरण में ....... गीता श्लोक - 18.62 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ------- हे अर्जुन ! अब तूं जा उस परमेश्वर की शरण में , वहीं तेरे को प्रसाद रूप में शान्ति मिलेगी और उसकी कृपा से तेरे को सनातन परम धाम भी मिलेगा । गीता में इस श्लोक के बाद प्रभु के मात्र दस श्लोक और हैं , गीता का समापन हो रहा है और प्रभु ऎसी बात कह रहे हैं की जा तूं उस परेश्वर की शरण में । गीता में प्रभु [ देखिये गीता सूत्र - 10.9 - 10.11, 18.56- 18.57, 18.65 - 18.66 ] अभी तक कहते रहे हैं की मैं ही परमात्मा हूँ , मैं ही ब्रह्म हूँ , मैं ही जगत का आदि , मध्य एवं अंत हूँ और यहाँ कह रहे हैं -- जा तूं उस परमेश्वर की शरण में --- ऐसा क्यों कह रहे हैं ? गीता के बारह अध्यायों में लगभग पच्चासी श्लोकों के माध्यम से लगभग सौ से भी अधिक उदाहरणों से प्रभु अपनें साकार एवं निराकार रूपों के बारे में बताये हैं लेकीन यहाँ आ कर अर्जुन को क्यों कह रहे हैं की तूं जा उस परमेश्वर की शरण में ? कोई तो कारण होगा ही । गीता एक रहस्य है और गीता में श्लोक - 18.62 स्वयं में एक रहस्य है , इसकी सोच आप को बुद्धि - योग में पहुंचा सकती

गीता अमृत - 78

मन से सब हैं गीता , उपनिषद् , वेद, पुराण एवं अन्य शास्त्रों में कहा गया है .......... बुद्धि मन का महावत है मन ज्ञानेन्द्रियों का महावत है मन कर्म इन्द्रियों का महावत है , और मनुष्य मन का गुलाम है मन गुण - समीकरण का गुलाम है गुण समीकरण ------ खान - पान , सम्बन्ध एवं सोच का गुलाम है , फिर हमें क्या करना चाहिए ? हमें स्वयं को अपनें भोजन , निद्रा , विश्राम , कर्म , संबंधों एवं ज्ञानेन्द्रियों की गतियों पर केन्द्रित करना चाहिए । गुण समीकरण क्या है [ देखिये गीता - 14.10 ] मनुष्य के अन्दर हर पल तीन गुणों की कुछ - कुछ मात्राएँ होती हैं जो हर श्वास के साथ बदलती रहती हैं । जप गुण ऊपर होता है , मनुष्य की सोच वैसी ही होती है । जैसी सोच होती है , वैसे कर्म होते हैं , कर्म का फल यदि चाह के अनुकूल हुआ तब सुख मिलता है और जब यह प्रतिकूल होता है तब दुःख मिलता है । शास्त्र कहते हैं -- जैसा मन , वैसा संसार , जैसा मन , वैसा कर्म , जैसा मन वैसी सोच और जीसी सोच वैसा सब कुछ होता है । हम पांच ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से संसार में स्थित पांच बिषयों से सम्बंधित रहते हैं । इन्द्रिय एवं उसके बिषय का संयो

गीता अमृत - 77

गीता का एक इशारा आइये ! आप और हम मिल कर गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं ------- [क] गीता सूत्र 18.58 प्रभु अर्जुन को आगाह कर रहे हैं , कहते हैं - यदि तूं अहंकार के सम्मोहन में आकर मेरी बातों को अन सुनी करके युद्ध नहीं करता तो तेरा अंत निश्चित है और यदि तूं समर्पण भाव में मेरी बातों के अनुकूल काम करता है तो तेरा कल्याण ही कल्याण है । [ख] गीता सूत्र - 18.59 प्रभु कहते हैं - हे अर्जुन ! तूं बार - बार यह न कह की मैं युद्ध से भाग जाऊँगा , यह बिचार तेरे अंदर अहंकार के कारण है , लेकीन तूं यहाँ भूल रहा है की तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच ही लेगा । [ग] गीता सूत्र - 18.60 तूं मोह के कारण युद्ध से भागना चाहता है लेकीन तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खीच लेगा । ऊपर के सूत्रों से जो बात सामनें आती है वह इस प्रकार से है ----- ## मोह में भी अहंकार की छाया होती है ## मनुष्य स्वभाव के अनुकूल कर्म करता है अब आप देखें गीता सूत्र - 2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 14.10, 8.3 ये सूत्र कहते हैं ...... गुणों के कारण मनुष्य का स्वभाव बनाता है , स्वभाव से कर्म होता है और ऐसे सभी कर्म , भोग कर्म होते हैं । मनुष्य का ग

गीता अमृत - 76

प्रभु का प्रसाद किसको मिलता है ? [क] गीता - 18.54 - 18.56 ..... क्या परमात्मा से परमात्मा में केन्द्रित परा भक्त को ? [ख] गीता - 2.48 - 2.51 ......... क्या आसक्ति रहित समभाव वाले को परम गति के रूप में ? [ग] गीता - 6.29 - 6.30 ......... क्या सब में प्रभु को देखनें वाले को जिसके लिए प्रभु निराकार नहीं रहता ? [घ] गीता - 9.29 .................... क्या परम प्यार में डूबे हुए को जिसमें प्रभु स्वयं झांकता है ? [च] गीता - 12.8. 12.3 - 12.4... क्या उसको जो ध्यान के माध्यम से मन - बुद्धि से परे की अनुभूति में होता है ? [छ] गीता - 13।30 ................... क्या उसको जो सभी जीवों में प्रभु को देखता है ? [ज] गीता - 7.3, 7.19, 12.5 लेकीन ऐसे योगी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखते हैं , दुर्लभ योगी होते हैं । परम प्रीति वाला ..... गुणों से अप्रभावित रहनें वाला .... काम क्रोध , लोभ , मोह एवं अहंकार से अछूता ब्यक्ति .... प्रभु से प्रभु में संतुष्ट रहनें वाला प्रभु के प्रसाद रूप में परम आनंद में रहता है । ===== ॐ =======

गीता अमृत - 75

किनमें प्रभु झांकता है ? [क] क्या राम की कथा सुननें वाले में या सुनानें वाले में ? [ख] क्या गीता सुननें वाले में या सुनानें वाले में ? [ग] क्या गायत्री जप करनें वाले में या करानें वाले में ? अब कुछ और बातों को भी देखते हैं --------- ** क्या कबीरजी राम मय न थे ? ** क्या नानकजी साहिब राम से परिपूर्ण न थे ? ** क्या शांडिल्य ऋषि श्री कृष्ण मय न थे ? ** क्या मीरा - राधा कृष्ण मय न थीं ? अब हमें सोचना चाहिए की प्रभु मय कौन होता है ? वेदों को पढ़नें वाला , उपनिषद् का पाठ करनें वाला , गीता का जाप करनें वाला , मंदिर में प्रति दिन पूजन करनें वाला , प्रभु मय हो सकता है और नहीं भी हो सकता । वह जो प्रभु की प्रीति में समाया हुआ होता है , प्रभु मय होता है और जो प्रभु का प्यारा अपनें को दिखाना चाहता है वह भी बाहर - बाहर से , वह कभी भी प्रभु का प्यारा नहीं हो सकता । प्रभु का प्यारा वह है जो ----- पुरे ब्रह्माण्ड में दो नहीं एक को देखता है ...... सब को आत्मा - परमात्मा से आत्मा - परमात्मा में देखता है ...... जिसके पास हाँ और ना नही होते केवल हाँ होता है ..... जो द्वैत्य के जीवन में नहीं जीता ..... ज

गीता अमृत - 74

योग सिद्धि का अनुभव कैसा होता है ? गीता श्लोक - 5.5 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ........ योग सिद्धि का अनुभव एक सांख्य - योगी का एवं अन्य योगियों का एक सा होता है । गीता श्लोक - 4.38 में प्रभु कहते हैं ......... योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है , और गीता श्लोक - 13.2 में ज्ञान की परिभाषा देते हुए प्रभु कहते हैं ...... क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही , ज्ञान है । गीता श्लोक - 13.7.... 13.11 तक में प्रभु ग्यानी कौन है ? इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं ........ आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार रहित सम भाव वाला ब्यक्ति , ग्यानी होता है । अब समय है इस बात पर सोचनें का ----- योग सिद्धि में क्या घटित होता है ? विज्ञानं कहता है ---- एक सामान्य भोगी ब्यक्ति में उसके अन्दर ऊर्जा की आब्रिती लगभग 350 cycle per second होती है और ध्यान की गहराई में पहुंचे योगी में यह आब्रिती लगभग 200.000 cycle per second की हो जाती है जहां वह योगी स्वयं को अपनें शरीर से बाहर होना महसूश करता है जिसको out of body experience कहते हैं । योग सिद्धि पर योगी के अन्दर मन - बुद्धि तो स्थिर

गीता अमृत - 73

कर्म - अकर्म गीता श्लोक - 4.18 में प्रभु कहते हैं ----- कर्म में अकर्म , अकर्म में कर्म देखनें वाला बुद्धिमान है और सभी कर्मों को करनें में सक्षम होता है । अब आप अपनें बुद्धि को गीता में उतारें और समझनें का प्रयत्न करें की ---- [क] कर्म एवं ज्ञान की बातें प्रभु अध्याय - 3 में बताते हैं जबकि कर्म की परिभाषा श्लोक - 8.3 में और ज्ञान की परिभाषा श्लोक - 13.2 में दी गयी है । अर्जुन बिना कर्म एवं ज्ञान की परिभाषा को जानें कैसे कर्म - ज्ञान को समझें होंगे ? [ख] कर्म योग एवं कर्म संन्यास की बात प्रभु अध्याय - 5 में कहते हैं और इसके पहले अध्याय - 4 में कर्म - अकर्म की बात कह रहे हैं । कर्म , कर्म-योग एवं कर्म संन्यास को बिना समझे कोई कर्म - अकर्म को कैसे समझ सकता है ? गीता कहता है ---- ** जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले , वह कर्म है ---- गीता - 8.3 ** सत भावातीत है ---- गीता - 2.16 अर्थात ........ सत को समझनें के लिए भावातीत की स्थिति में पहुँचना जरुरी है और ---- यह तब संभव है जब गुणों की पकड़ न हो --- गीता - 7.12 - 7.15 तक । गीता को पढ़ कर पार होना अति कठिन है ..... गीता में तैरना पड़ता

गीता अमृत - 72

गीता का अर्जुन यहाँ गीता के कुछ श्लोकों को देखते हैं जिनसे गीता के अर्जुन की एक तस्बीर बनती है । गीता सूत्र - 11.7 + 11.33 ------ अर्जुन निद्रा को जीत चुके हैं और दोनों हांथों से तीर चलानें में सक्षम हैं । गीता सूत्र - 1.22 + 2.31, 2.33 --- अर्जुन के लिए यह युद्ध एक ब्यापार है और प्रभु के लिए यह धर्म - युद्ध है । गीता सूत्र - 1.26 - 1.46 तक , 2.7, 10.12 - 10.17, 11.37, 11.1 - 11.4, 11.51, 18.73 यहाँ अर्जुन भ्रमित बुद्धि वाले की तरह कभी कुछ तो कभी कुछ कहते हैं । अर्जुन प्रारम्भ में जो बातें प्रभु से करते हैं , उनसे एक बात स्पष्ट होती है - की अर्जुन मोह में डूबे हुए हैं । अर्जुन बार - बार कहते हैं , मैं आप का मित्र हूँ , मैं आप का शिष्य हूँ । अब मैं संदेह से मुक्त हूँ , अब मैं आप की शरण में हूँ , अब मैं अपनी स्मृति वापिस पा ली है लेकीन यह सब कहनें के बाद भी प्रश्न पूंछते हैं । गीता में अर्जुन का आखिरी श्लोक है - 18.73 जिसमें वे कहते हैं ----- हे प्रभु ! अब मेरा भ्रम समाप्त हो चुका है , अब मैं आप को अर्पित हूँ और आप के आदेश का पालन करूंगा । सीधी सी बात है --- वह जो समर्पित होगा , वह ज

गीता अमृत - 71

गीता श्लोक - 18.51 - 18.53 तक यहाँ गीता में परम श्री कृष्ण कह रहे हैं ......... [क] विशुद्धि बुद्धि वाला .... गीता सूत्र - 2.41, 2.66, 6.21 को भी यहाँ देखें [ख] साकाहारी नियमित भोजन करनें वाला .... गीता सूत्र - 6.16, 17.8 को भी यहाँ देखें [ग] शब्दादि बिषयों का त्याग करनें वाला .... [घ] सात्विक धारण शक्ति वाला .... गीता सूत्र - 18.33 को भी यहाँ देखें [च] जिसका तन , मन एवं बुद्धि नियंत्रित हों .... गीता सूत्र - 3.6 - 33.7 को यहाँ देखा जा सकता है [छ] जो राग - द्वेष से अप्रभावित हो .... गीता सूत्र - 3.34 को यहाँ देखें [ज] जो बैरागी अवस्था में रहता हो ..... गीता सूत्र - 15.3 को यहाँ देखें [झ] अहंकार [ गीता - 3.27 ], बल , घमंड [ गीता - 3.6] , काम [ गीता - 3,37, 5.23, 5.26, 16.21 ] से जो अप्रभावित रहता हो और जो ध्यान के माध्यम से परम ब्रह्म में डूबा हो [ गीता - 13.24 ] ------ वह ....... प्रभुमय ..... होता है । ====== ॐ ======

गीता अमृत - 70

नैष्यकर्म की सिद्धि , ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ..... गीता - 18.50 ज्ञान क्या है [ गीता - 13.3 ] ? गीता कहता है -- वह जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध कराये , ज्ञान है । गीता श्लोक - 13.7 - 13,11 कहते है .... सम - भाव वाला ग्यानी होता है । गीता कहता है [ गीता - 4.38 ] -- योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति स्वतः होती है । गीता कहता है [ गीता [ 18.49 ] -- आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है । गीता श्लोक - 18.54 - 18.55 कहते हैं -- परा भक्त प्रभु से परिपूर्ण रहता है । गीता के कुछ सूत्रों को आप देखे , इन सूत्रों के आधार पर आप अपनें बुद्धि में कुछ सोच सकते हैं की ..... कर्म , नैष्कर्म , ज्ञान , योग एवं योग सिद्धि में क्या सम्बन्ध हो सकता है ? कर्म बुनियाद है , जहां से यात्रा प्रारम्भ होती है , कर्म के होनें में जब कोई कारण न हो , कोई बंधन न हो तब वह कर्म भोग कर्म न राह कर , योग कर्म हो जाता है । योग कर्म से निष्कर्मता की सिद्धी मिलती है । निष्कर्मता की सिद्धि में कर्म में अकर्म , अकर्म में कर्म दिखता है और गुण तत्वों का अभाव इन कर्मों में होता है । कर्म - योग की सिद्धि पर

गीता अमृत - 69

आसक्ति रहित कर्म , गीता का कर्म है यहाँ देखिये , गीत श्लोक --- 2.62 - 2,63 3.5 4.18 - 4.20 5.3, 5.6, 5.10 - 5.13 6.1 - 6.2, 6.4 10.7 18.4, 18.6, 18.9, 18.10 - 18.11, 18.33 - 18.35, 18.49, 18.50, 18.54 - 18.56 गीता कहता है .... कर्म रहित मनुष्य को एवं दोष रहित कर्म को खोजना असंभव है । मनुष्य कर्म रहित एक पल भी नहीं रह सकता और ऐसा कोई कर्म नहीं जिसमें दोष न हो । गीता कहता है .... मनुष्य जो कर्म करता है , वह गुणों के सम्मोहन का फल है , गुण प्रभावित कर्म , भोग कर्म हैं जिनके भोग काल में सुख मिलता है लेकीन उस सुख में दुःख का बीज होता है । गीता कहता है .... कर्म के होनें के पीछे यदि गुण तत्वों की पकड़ न हो तो वह कर्म , योग कर्म हैं । योग कर्म आसक्ति , कामना , संकल्प एवं अहंकार रहित होता है जिसके माध्यम से भावातीत की स्थिति मिलती है और भावातीत की स्थिति में प्रभु की झलक मिलती है । आसक्ति रहित कर्म से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है , परा भक्त हर पल प्रभु से परिपूर्ण रहता है । ====== ॐ =========

गीता अमृत - 68

गीता श्लोक - 18.48 गीता कहरहा है ........ जैसे अग्नि बिना धुएं की नहीं हो सकती वैसे कर्म दोष रहित नहीं हो सकते । गीता के इस श्लोक को समझनें के लिए आप गीता के इन श्लोकों को भी देखें ----- 3.5, 18.11, 5.22, 2.45, 18.38 गीता कह रहा है ....... कोई भी जीवधारी कर्म रहित हो नहीं सकता , कर्म तो करना ही पड़ता है और बिना कर्म किये , कर्म - निष्कर्मता की सिद्धि कैसे प्राप्त की जा सकती है , जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है । मनुष्य जो कुछ भी करता है वह सब गुणों के सम्मोहन के कारण करता है , ऐसे कर्म में मनुष्य स्वयं को करता अहंकार के प्रभाव में मानता है और गुण प्रभावित सभी कर्म , भोग कर्म हैं , जिनके सुख में दुःख का बीज होता है । कर्म तो करना ही है , बिना कर्म किये रहना सम्भव भी नहीं अतः हमें कर्म को साधना का माध्यम बनाकर भोग कर्म को योग - कर्म में बदल कर कर्म निष्कर्मता की सिद्धि को ओर चलना चाहिए जिस से परम गति मिल सकती है । गीता कहता है --- मनुष्य को केवल उन कर्मों को करना चाहिए जो प्रकृति की जरुरत को पूरा करते हों और ऐसे कर्म ही सहज कर्म हैं । कर्म में कर्म - बंधनों की साधना , मनुष्य को प्र

गीता अमृत - 67

मन एवं आत्मा गीता में मन एवं आत्मा को समझनें के लिए गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ------- [क] मन अपरा प्रकृति का एक तत्त्व है ..... गीता - 7.4 - 7.5 [ख] प्रभु कहते हैं - मनुष्यों में मन - चेतना , मैं हूँ ..... गीता - 10.22 [ग] आत्मा जब शारीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ मन भी रहता है ... गीता - 15.8 [घ] आत्मा देह में परमात्मा है .... गीता - 10.20, 13.22, 15.7, 15.11 [च] आत्मा - परमात्मा ह्रदय में रहते हैं .... गीता - 10.20, 13.17, 15.15, 18.61 मनुष्य के अन्दर मन एक ऐसा तत्त्व है जो मनुष्य को एक तरफ भोग की ओर भगाता है और जब यह गुणों से अप्रभावित होता है तब यही मन प्रभु का दर्शन भी कराता है । साधना चाहे किसी भी मार्ग की हो सब का एक ही लक्ष्य होता है ; मन को निर्विकार बनाना । जितनी भी साधनाएं हैं सब मन केन्द्रित हैं । मनुष्य की पांच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पांच कर्म इन्द्रियाँ , मन के फैलाव - रूप में हैं । मन अपनें काम को सुचारू रूप से चलानें के लिए इन्द्रियों को विकशित करता है । विज्ञान भी अब कहनें लगा है की मन शरीर समाप्त होने के बाद भी ज़िंदा रहता है । जो मन का गुलाम है ,वह है - भोगी म

गीता अमृत - 66

ब्रह्म और ब्राह्मण यहाँ गीता के निम्न श्लोकों को लिया जा रहा है ....... 2.11, 2.42, 2.62 - 2.63, 3.37, 4.19, 18.31 - 18.35, 18.42 और मनुश्मृति - 6.92 गीता कहता है [ गीता - 2.46 ] --- जो ब्रह्म में बसेरा करता हो , वह है - ब्राह्मण और ब्रह्म के सम्बन्ध में [ गीता - 8.3 ] कहता है - अक्षरं ब्रह्म परमं । मनुस्मृति - 6.92 में धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं - ध्रितिका , क्षमा , दम , अस्तेय , शौच , इन्द्रिय निग्रह , धी, विद्या , सत्य , अक्रोध और गीता में [ गीता श्लोक - 18.42 ] ब्राह्मण के लक्षणों के रूप में यही बातें बताई गयी हैं । ब्राह्मण वह है - जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो और जिसका ..... Compassion like sun .... Generosity like river .... Hospitality like earth जैसे हों । ==== ॐ =======

गीता अमृत - 65

भारतीय सामाजिक ब्यवस्था यहाँ जो आगे दिया जाएगा वह गीता के निम्न श्लोकों के आधार पर होगा -------- [ 2.14, 2.45 ], [ 3.5, 3.27, 3.33 ], 5.27, 8.3, 14.10, 18.38, 18.41 - 18.44 प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ...... [क] ब्राह्मण , क्षत्रिय , बैश्य एवं शूद्र - चार वर्णों की रचना मेरे द्वारा उनके कर्म - स्वभाव एवं गुणों के आधार पर की गयी है । [ख] गुण परिवर्तनशील हैं , गुणों के आधार पर स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है , मनुष्य का स्वभाव , अध्यात्म है । [ग] गुण कर्म करता हैं , गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , वे भोग कर्म होते हैं , जिनके भोग काल में सुख सा आभाष होता है पर उसका परिणाम दुःख होता है । [घ] भोग कर्म कोई ऐसा नहीं है जिसमें दोष न हों । ऊपर की चार बातें जो गीता में प्रभु श्री कृष्ण द्वारा कही गयी हैं , ध्यान का मार्ग बन सकती हैं । अब हमें इन पर ध्यान करना चाहिए ....... ## असत से सत में कैसे पहुंचा जाए ## भोग कर्मों से बैराग्य में कैसे पहुंचा जाए ? ## अज्ञान से ज्ञान में प्रवेश कैसे किया जाए ? ## गुण आधारित जातियां अपरिवर्तनशील कैसे हो गयी जबकि गुण स्वतः परिवर्तनशील हैं ? स्वभा

गीता अमृत - 64

गीता श्लोक - 18.40 पृथ्वी , देवलोक एवं अन्य सर्वत्र ऐसा कोई सत नहीं जिस पर गुणों का असर न हो । गीता श्लोक -7.12, 7.13 में प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं ..... तीन गुण एवं उनके भाव मनुष्य को प्रभु से दूर रखते हैं । तीन गुण एवं उनके भाव प्रभु से हैं और प्रभु स्वयं गुनातीत - भावातीत है । गीता के इसी अध्याय में आगे प्रभु कहते हैं [ गीता श्लोक -7.14 - 7.15 ] ....... तीन गुणों की माया जिसको मैं बनाया हूँ , बड़ी दुस्तर है , माया में उलझा ब्यक्ति कभी भी प्रभुमय नही हो सकता । अब आप सोचना - यहाँ गीता गुण - मनुष्य एवं प्रभु का जो सम्बन्ध दे रहा है , कितना पेचीदा है । माया से माया में सब हैं , माया में सीमित ब्यक्ति प्रभु की ओर रुख नहीं कर सकता फिर प्रभुमय कैसे हुआ जाए ? गीता श्लोक - 2.16 में प्रभु कहते हैं - सत भावातीत है अर्थात माया में जीनें वाला ब्यक्ति कभी सत को नहीं समझ सकता । गीता की कुछ बाते आप नें यहाँ देखी , अब आप अपनें बुद्धि के आधार पर सोंचे , प्रभु [ सत ] से कैसे भरा जा सकता है ? असत से असत में हम हैं , भोग से भोग में हम हैं , माया से माया में हम हैं और हमें पहुँचना है योग में , सत में ए

गीता अमृत - 63

किसी का सुख किसी का दुःख है गीता श्लोक - 18.36 - 18.39 में परम श्री कृष्ण कहते हैं .... गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उनका अपना - अपना सुख - दुःख हैं । [क] तामस सुख क्या है ? गीता श्लोक - 18.३९ मोह , भय एवंआलस्य से मिलनें वाला सुख , तामस - सुख है । [ख] राजस सुख क्या है ? गीता 18.38, 2.14, 5.22 इन्द्रिय सुख राजस सुख है , जिसमें दुःख का बीज होता है । राजस सुख अल्प समय का होता है जो भोग के समय सुख सा लगता है लेकीन इस सुख का परिणाम दुःख होता है । [ग] सात्विक सुख क्या है ? गीता श्लोक - 18.36 -18.37, 6.42, 7.3, 12.5, 14.20, 6.29 - 6.30, 9.29 सात्विक सुख इन्द्रिय सुख नहीं है , यह तो साधना का फल है जहां तक पहुंचनें में बहुत अवरोध हैं । जब तन , मन में कोई चाह न रह जाए , जो मिल रहा हो उसमें ही तृप्त रहे, हर पल प्रभु में गुजरें तब वह ब्यक्ति सात्विक सुख में होता है । कहना आसान , सुनना और आसान लेकीन होना अति कठिन है । जब तक कोई स्वयं को बदलता नहीं तब तक सात्विक ऊर्जा प्राप्त करना अति कठिन ही होगा । * पैसे से यदि भक्ति मिले .... * पैसे से यदि भगवान् मिले ..... * भोग में यदि भगवा

गीता अमृत - 62

बुद्धि एवं गीता ++ गुणों के आधार पर बुद्धि तीन प्रकार की होती है - गीता ... 18.29 - 18.32 ++ योगी की बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है और भोगी की अनिश्चयात्मिका बुद्धि होती है - गीता ... 2.41, 2.66 ++ बुद्धि अपरा प्रकृति का एक तत्त्व है - गीता .... 7.4 - 7.5 ++ प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , बुद्धि , मैं हूँ - गीता .... 7.10 गीता की कुछ बातें आप के सामनें हैं , इनके आधार पर आप स्वयं सोंचें की बुद्धि क्या है । गीता श्लोक - 2.47 से 2.53 तक को आप देखें , जिनमें परम श्रीकृष्ण कहते हैं - समत्व - योग ही बुद्धि - योग है । गीता मूलतः बुद्धि - योग हैं , और आज बुद्धि केन्द्रित लोगों की शंख्या सबसे अधिक है अतः आज गीता को अपना कर कोई चिंता रहित हो सकता है । ====== ॐ ======

गीता अमृत - 61

तामस कर्म क्या हैं ? यहाँ इस सन्दर्भ में हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ------ 18.25 - 18.28, 14.8, 14.17, 18..72 - 18.73 साधना , योग , ध्यान , तप एवं अन्य ऐसे तरीके जिनसे प्रभु से जुड़ना होता है उन सब का एक काम है । रास्ते अनेक हैं लेकीन उनका मकशद एक है - प्रभु मय कैसे हुआ जाए ? प्रभु एवं मनुष्य के मध्य एक पर्दा है , वह पर्दा है - तीन गुणों का , जब गुणों का पर्दा हट जाता है तब प्रभु को खोजना नहीं पड़ता , जो दीखता है वह प्रभु ही होता है । राजस एवं तामस गुणों के धागे , मजबूत धागे होते हैं जिनसे पर्दा बना होता है और सात्विक गुण का धागा इतना मजबूत नहीं होता जो रभु के मार्ग एन अवरोध उत्पन्न करे लेकीन जब अहंकार की छाया सात्विक गुण पर पड़ती है तब यह गुण भी मजबूत रुकावट बन जाता है । काम , कामना , अहंकार , लोभ , क्रोध , मोह , भय - ये तत्त्व हैं जो राजस - तामस गुणों से हैं , साधना में इन तत्वों के प्रति होश बनाना पड़ता है । जब स्वादिष्ठान [ काम चक्र ] एवं नाभि चक्र की पकड़ ढीली पद जाती है तब इन दोनों गुणों के तत्वों की पकड़ भी ढीली हो जाती है और साधक सीधे सात्विक गुण के प्रभाव में आजाता

गीता अमृत - 60

गीता बानी [क] गीता सूत्र - 18.24 - 18.27 भोग - भाव एवं अहंकार के सम्मोहन में जो कर्म होते हैं , वे राजस कर्म हैं । [ख] गीता सूत्र .... 7.12 - 7.15, 18.40 पुरे ब्रह्माण्ड में गुण रहित सत का अभाव है , प्रभु के तीन गुणों की माया - माध्यम में माया से टाइम स्पेस है । गुण रहित को खोजना ही प्रभु की खोज है जो संसार की ग्रेविटी के बिपरीत चलनें से पूरी होती है । [ग] गीता सूत्र ...... 2.45, 3.5, 5,22, 14,19, 14.23 कर्म करता ,मनुष्य नहीं , गुण हैं , मनुष्य तो द्रष्टा है । [घ] गीता सूत्र ... 2.62 - 2,63, 3.27, 5.23, 5.26 , 16.21, 7.11, 14.7, 14.12, 14.15, 7.20, 7.27, 6.2, 6.4, 6.24 राजस गुण को आसक्ति, कामना, क्रोध , लोभ , काम , संकल्प , बिकल्प , आदि से पहचाना जाता है । राजस गुण का सम्मोहन प्रभु की ओर रुख नही करनें देता । काम क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं । कामना टूटनें का भय , क्रोध की ऊर्जा पैदा करता है । [च] गीता सूत्र .... 7.20 , 18.72, 18.73 कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं । [छ] गीता सूत्र ..... 4.19, 4.23, 18.59, 18.60 राजस गुण से अप्रभावित ब्यक्ति , योगी है । ======= ॐ =======

गीता अमृत - 59

सात्विक कर्म क्या है ...... गीता श्लोक - 18.23 - 18.26 ** राग द्वेष रहित ** करता भाव रहित ** शास्त्रों के अनुकूल जो हो वह कर्म सात्विक कर्म है । शास्त्र का क्या अर्थ है , आज यह बताना संभव नहीं लेकीन जिस समय गीता उपदेश प्रभु दिए , उस समय तक शायद शास्त्रों को लोग जानते रहे होंगे । आज शास्त्र क्या हैं , स्वयं में एक बिबाद है । गीता के श्लोक 18.23 - 18.26 तक को जब आप अपनाएंगे तब आप को लगेगा की ------ राजस - तामस गुणों के प्रभाव एवं अहंकार के प्रभाव के कारण जो कर्म न हों , उनको सात्विक कर्म कह सकते हैं । कर्म है क्या ? देखिये गीता श्लोक ..... 3.5, 3.27, 18.11, 2.45, 2.14, 5.22, 18.38 को जो कहते हैं ---- कोई भी जीव धारी एक पल के लिए कर्म रहित नहीं हो सकता । कोई ऐसा कर्म नहीं जो इन्द्रियों एवं बिषयों के सहयोग से होते हों उनमें दोष न हो । मनुष्य गुणों का गुलाम है , गुण मनुष्य को सम्मोहित करके कर्म करवाते हैं और कर्म फल के आधार पर मनुष्य को सुख - दुःख का अनुभव होता है । गुण प्रभावित कर्म , भोग कर्म हैं ,जिनके सुख में दुःख का बीज होता है । गीता कहता है - राजस गुण [ गीता - 6.27] प्रभु मार

गीता अमृत - 58

सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं खोलती गीता - 9.23 - 9.25 सकाम भक्ति क्या है ? गुण तत्वों के प्रभाव में आकर जो भक्ति की जाती है , वह है - सकाम भक्ति । मुक्ति पानें की कामना हो या भोग प्राप्ति की कामना हो , दोनों तत्त्व - ज्ञान की दृष्टि में एक हैं । काम की कामना हो या भोग प्राप्ति के किये राम से जुडनें की कामना हो , दोनों एक हैं । गीता कहता है - गुण माध्यम हैं जिनसे एवं जिनमें साधना होती है लेकीन अंततः गुणों से परे पहुँचना ही साधना का उद्धेश्य है । गीता श्लोक - 3.12, 4.12, 7.16, 9.25, 17.4 को आप देखें , यहाँ गीता कहता है ------ प्रभु , देवता एवं मनुष्य - तीन का एक समीकरण है । गीता का प्रभु द्रष्टा है , साक्षी है , वह अकर्ता है और गुण करता हैं एवं मनुष्य करनें का माध्यम है । मनुष्य देवों की भक्ति से उन्हें प्रसन्न करके इच्छित भोग की प्राप्ति कर सकता है लेकीन मुक्ति तक नहीं पहुँच सकता । प्रभु एवं मनुष्य के मध्य देव एक कड़ी हैं जो परम ऐश्वर्य भोग में स्वयं रहते हैं और मनुष्य को भोग में सहयोग करते हैं , यदि उनकी भक्ति की जाए तब । गीता कहता है काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य

गीता अमृत - 57

कहाँ से मिले ज्ञान ? ज्ञान के सम्बन्ध में गीता के निम्न श्लोकों को देखना है ------ 18.19 - 18.22, 13.2, 13.7 - 13.11 15.10, 6.29 - 6.30, 9.29 इनके साथ हमें देखना चाहिए निको भी ----- [क] महान वैज्ञानिक आइन्स्टाइन कहते हैं ....... किताबों से जोज्ञान मिलता है , वह मुर्दा ज्ञान है , और जो ज्ञान मनुष्य की चेतना में है , वह है - सजीव ज्ञान । [ख] आइन्स्टाइन कहते हैं - Information is not knowledge. [ग] आइन्स्टाइन कहते हैं - In the oriental concetion something is exists which is beyond mind's reasoning . गीता कहता है - तीन प्रकार के गुण हैं और उनके आधार पर तीन प्रकार के लोग एवं उनके अपनें - अपनें ज्ञान भी हैं । गीता कहता है - वह ज्ञान जो सब में परमात्मा को मह्शूश कराये , सात्विक ज्ञान है , जो ज्ञान सभी जीवों को पृथक - पृथक भावों में देखनें की ऊर्जा भरे , राजस ज्ञान है और जो ज्ञान मात्र शरीर तक सीमित रहे , तामस ज्ञान है । गीता कहता है - तूम जहां हो वहीं से यात्रा करो अर्थात , यदि तामस गुण तुम पर प्रभावी हो तो पहले उसे समझो , यदि तुम राजस गुण धारी हो तो उसे पहले समझो और जब ऐसा करनें में सफल

गीता अमृत - 56

कर्म का सम्बन्ध आत्मा से नहीं है जो पैदा होता है , वह एकदिन मरता भी है चाहे ----- वह जीव हो या शब्द आत्मा शब्द को हम लोगों नें मार डाला । बीसवीं शताब्दी के मध्य जब जर्मन विचारक नित्झे बोले --- परमात्मा मर चुका है , बश उसकी इतनी सी बात सुन कर लोग नाचनें लगे और उसकी आगे की बात को कोई भी न सुन सका क्योंकि लोग यही सुनना चाहते थे । आप मेरी बात - आत्मा शब्द मर चुका है को सुनकर आप भी नाचना न प्रारम्भ कर देना । नित्झे की आगे की बात थी - परमात्मा को हम सब मार चुके हैं और अब वह कभी न उठेगा । नित्झे की बात में दम है , वह इतनी हिम्मत तो रखता है कहनें की । आइये अब गीता की कुछ बातों को देखते हैं ----- [क] अज्ञानी आत्मा को करता समझता है .... गीता श्लोक - 18.16 [ख] करता भाव अहंकार से आता है ..... गीता श्लोक - 3.27 [ग] करता भाव रहित कर्म करनें वाला पाप नहीं करता .... गीता श्लोक - 18.17 [घ] करता भाव रहित ब्यक्ति प्रभु से परिपूर्ण होता है .... गीता श्लोक - 5.6 [च] प्रभु से परिपूर्ण ब्यक्ति ही ब्राह्मण है ..... गीता श्लोक - 2.46 [छ] राजस गुण के तत्त्व - काम का सम्मोहन , पाप करनें की ऊर्जा देता है ...

गीता अमृत - 55

ऊब समीकरण [क] जिसके नौ द्वार द्रष्टा बन गए हों .... गीता - 5.13 [ख] जो गुणों को करता देखता हो ....... गीता - 14.19, 14.23 [ग] जो सब को आत्मा - परमात्मा में देखता हो .... गीता - 6.29 - 6.30 [घ] जो आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता हो .......... गीता - 2.55, 3.17 [च] जो सम भाव - परा भक्त हो ..... गीता - 18.54 - 18.55 [छ] जो यह जानता है की सत भावातीत है .... गीता - 2.16 [ज] जो राग - भय एवं क्रोध रहित हो ..... गीता - 2.56, 2.64, 4.10 [झ] जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता हो ..... गीता - 4.18 [थ] जो प्रकृति - पुरुष को जानता हो .... गीता - 13.19, 14.20 वह कभी ऊब में नहीं फसता । ऊब है क्या ? ऊब के इस तरफ है गुणों का आकर्षण और ऊब के उस ओर है - प्रभु का आयाम । इस बात को आप ठीक से समझें । जब मन - बुद्धि तर्क - बितर्क करके थक जाते हैं , कोई हल नहीं दिखता , तब ऊब का आगमन होता है । आइन्स्टाइन कहते हैं , मैं एक साधारण बुद्धि वाला हूँ , एक आम आदमी और मेरे में एक फर्क है , आम आदमी अपनी सोच से भाग लेता है और मैं अपनी सोच को अपना लेता हूँ । गीता कहता है ----- जहां मन - बुद्धि रुक जाते हैं , वह