भ्रम और भ्रमण
गीता श्लोक 8.6 कहता है ------
जीवन में जो गुण प्रभावी होता है एवं मनुष्य जिस गुण के भाव से भावित रहा होता है , अंत समय में वही
भाव उस पर छाया होता है । यह भाव उस मनुष्य के अगले जन्म का आधार होता है । बार - बार जन्म
लेनें का कारन है , मनुष्य के वर्तमान जीवन में अतृप्त रहना ।
गीता श्लोक 15.8 कहता है ------
आत्मा जब स्थूल शरीर छोड़ता है तब उनके संग मन-इन्द्रियाँ भी रहती हैं तथा श्लोक 10.22 कहता है ---
इन्द्रियाँ मन का फैलाव हैं ।
गीता के ये दो श्लोक एक अध्याय आठ का और दूसरा अध्याय पन्द्रह का , क्या बताना चाहते हैं ?
गीता कहता है ----सभी भावों का श्रोत परमात्मा है , परमात्मा गुनातीत है और गुणों के भावों में
परमात्मा नहीं होता । जो मनुष्य गुणों को समझ लेता है और उनसे प्रभावित नहीं होता वह गुनातीत
योगी है एवं परमात्मामय होता है [ गीता- 7.12--7.15 ] और ऐसे योगी का पुनः जन्म नहीं होता , वह
आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
वर्तमान में हमारा जन्म हमारे पूर्व जन्म की अत्रिप्ताओं का फल है , पिछले जन्म में हम जो करना
चाहते थे वह कर नहीं पाए अतः हमें दुबारा जन्म एक अवसर के रूप में मिला हुआ है , इस अवसर को यदि यों ही जाने दिया तो पुनः जन्म लेना पड़ेगा ।
वर्तमान में हमारा भ्रमण कारी जीवन पिछले जन्म के भ्रम की खोज है ---इस बात को ठीक तरह से समझना चाहिए तब हमारी भाग-दौर कम हो सकती है ।
संदेह एवं भ्रम को समझना चाहिए । संदेह एक साधारण फोड़ा है और जब एक साधारण फोड़ा बिगड़ जाता है तब वह लाइलाज नासूर बन जाता है । बिगड़ा हुआ पुराना संदेह का नाम है भ्रम । संदेह भ्रम की जननी है ।
संदेह में कभी हाँ तो कभी ना होते हैं लेकिन भ्रम में हाँ-ना में जो होता है , वही रहता है । संदेह से श्रद्धा
में पहुँच जाना आसान है लेकिन भ्रम से श्रद्धा में पहुंचना अति कठिन है ।
संदेह में भ्रमण लंबा नहीं होता लेकिन भ्रम की ऊर्जा मनुष्य को चैन से रहनें नहीं देती , भ्रमित ब्यक्ति सपनों में भी भ्रमित रहता है ।
हम रात-दिन क्यों भाग रहे हैं ? कोई तो कारण होगा ही । मनुष्य की भाग-दौर [भ्रमण ] का केन्द्र है उसे पा जाना जो और किसी के पास न हो और यह सोच माथे पर आए पसीनें को सूखने नहीं देती ।
मनुष्य का जीवन है कितना बड़ा ---प्रारंभीक बीस साल तो यों ही निकल जाते हैं आखिरी सत्तर साल के ऊपर की जिंदगी न के बराबर पीड़ा से भरी होती है , बीच में पच्चास साल बचे इनमें पच्चीस साल रात के हैं बाकी बचे मात्र पच्चीस साल इन सालों में हम पृथ्वी से आकास तक की दौर लगाना चाहते हैं जो सम्भव नहीं ।
अपनें भ्रमण के समय अपनें भ्रमण को समझो , भ्रमण की समझ , भ्रम की समझ को जन्म देगी और एक दिन आप
भ्रम-भ्रमण से मुक्त हो कर परम आन्दित हो उठेगें ---और आप को क्या चाहिए ?
====ॐ=======
जीवन में जो गुण प्रभावी होता है एवं मनुष्य जिस गुण के भाव से भावित रहा होता है , अंत समय में वही
भाव उस पर छाया होता है । यह भाव उस मनुष्य के अगले जन्म का आधार होता है । बार - बार जन्म
लेनें का कारन है , मनुष्य के वर्तमान जीवन में अतृप्त रहना ।
गीता श्लोक 15.8 कहता है ------
आत्मा जब स्थूल शरीर छोड़ता है तब उनके संग मन-इन्द्रियाँ भी रहती हैं तथा श्लोक 10.22 कहता है ---
इन्द्रियाँ मन का फैलाव हैं ।
गीता के ये दो श्लोक एक अध्याय आठ का और दूसरा अध्याय पन्द्रह का , क्या बताना चाहते हैं ?
गीता कहता है ----सभी भावों का श्रोत परमात्मा है , परमात्मा गुनातीत है और गुणों के भावों में
परमात्मा नहीं होता । जो मनुष्य गुणों को समझ लेता है और उनसे प्रभावित नहीं होता वह गुनातीत
योगी है एवं परमात्मामय होता है [ गीता- 7.12--7.15 ] और ऐसे योगी का पुनः जन्म नहीं होता , वह
आवागमन से मुक्त हो जाता है ।
वर्तमान में हमारा जन्म हमारे पूर्व जन्म की अत्रिप्ताओं का फल है , पिछले जन्म में हम जो करना
चाहते थे वह कर नहीं पाए अतः हमें दुबारा जन्म एक अवसर के रूप में मिला हुआ है , इस अवसर को यदि यों ही जाने दिया तो पुनः जन्म लेना पड़ेगा ।
वर्तमान में हमारा भ्रमण कारी जीवन पिछले जन्म के भ्रम की खोज है ---इस बात को ठीक तरह से समझना चाहिए तब हमारी भाग-दौर कम हो सकती है ।
संदेह एवं भ्रम को समझना चाहिए । संदेह एक साधारण फोड़ा है और जब एक साधारण फोड़ा बिगड़ जाता है तब वह लाइलाज नासूर बन जाता है । बिगड़ा हुआ पुराना संदेह का नाम है भ्रम । संदेह भ्रम की जननी है ।
संदेह में कभी हाँ तो कभी ना होते हैं लेकिन भ्रम में हाँ-ना में जो होता है , वही रहता है । संदेह से श्रद्धा
में पहुँच जाना आसान है लेकिन भ्रम से श्रद्धा में पहुंचना अति कठिन है ।
संदेह में भ्रमण लंबा नहीं होता लेकिन भ्रम की ऊर्जा मनुष्य को चैन से रहनें नहीं देती , भ्रमित ब्यक्ति सपनों में भी भ्रमित रहता है ।
हम रात-दिन क्यों भाग रहे हैं ? कोई तो कारण होगा ही । मनुष्य की भाग-दौर [भ्रमण ] का केन्द्र है उसे पा जाना जो और किसी के पास न हो और यह सोच माथे पर आए पसीनें को सूखने नहीं देती ।
मनुष्य का जीवन है कितना बड़ा ---प्रारंभीक बीस साल तो यों ही निकल जाते हैं आखिरी सत्तर साल के ऊपर की जिंदगी न के बराबर पीड़ा से भरी होती है , बीच में पच्चास साल बचे इनमें पच्चीस साल रात के हैं बाकी बचे मात्र पच्चीस साल इन सालों में हम पृथ्वी से आकास तक की दौर लगाना चाहते हैं जो सम्भव नहीं ।
अपनें भ्रमण के समय अपनें भ्रमण को समझो , भ्रमण की समझ , भ्रम की समझ को जन्म देगी और एक दिन आप
भ्रम-भ्रमण से मुक्त हो कर परम आन्दित हो उठेगें ---और आप को क्या चाहिए ?
====ॐ=======
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