सिद्ध योगी आप के पास ही है
यहूदी धर्म - शास्त्र कहता है------
तूं क्या परमात्मा को खोजेगा , परमात्मा तेरे को खोज रहा है ........
यह छोटा सा सूत्र रूपांतरण की औषधि है , यदि इसे ढंग से लिया जाए ।
हम बचपन से सुन रहे हैं ------
बिनु मांगे मोती मिले , मांगे मिले न भीख , अब आगे .................
बिचारा अली हफ़ीज़ भीख मांगते हुए किसी शहर की एक गली में दम तोड़ गया जिसके खेत में मिला
कोहनूर हीरा जो आज तक ब्रितानिया की महारानी के सर पर चमक रहा है ....ऐसा क्यों कर हुआ ?
बिचारा हफ़ीज़ अपनें खेत में पड़े हीरों को पहचान न पाया , न पहचाननें की कोशिश ही किया फल स्वरूप
भूखे पेट शरीर छोड़ गया , ज्यादातर लोग अली हफ़ीज़ की तरह ही हैं ।
आप को तो मैं जानता नहीं , पहचानता नहीं , लेकिन जब से मैं स्वयं को समझनें की कोशिश में लगा हूँ , मुझे
अब ऐसा लगनें लगा है की शायद मेरा भी अंत अली हफ़ीज़ की ही तरह न हो । अली हफ़ीज़ की मौत
परम धाम के द्वार को भी खोल सकती है यदि आखिरी श्वाश भरते - भरते यह एह्शाश हो जाए की परमात्मा द्वारा मिला मौका मैनें ब्यर्थ में गवा दिया , लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होंगे ।
प्यारे मित्रों ! भूल होना मन- बुद्धि केंद्रित ब्यक्ति का ब्यवहारिक स्वभाव है , लेकिन भूल की समझ सत के द्वार को खोलती है । खोज मन-बुद्धि की उपज है , मन-बुद्धि गुणों के गुलाम हैं और गुणों के प्रभाव में सत को पकड़ पाना असंभव है क्योंकि गीता कहता है [ गीता सूत्र 2.42-2.44, 12.3- 12.4 ].....भोग-भगवान् को एक समय
एक बुद्धि में रखना सम्भव नहीं और ब्रह्म की अनुभूति मन-बद्धि से परे की है ।
एक तरफ़ गीता है और दूसरी तरफ़ हम हैं , गीता हमारी ओर आरहा है लेकिन क्या हम गीता से मिलना भी चाहते हैं ? --- इस बात पर हमें सोचना होगा ।
गीता कहता है ----आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक के दो नाम हैं जो निर्विकार द्रष्टा रूप में हमारे ह्रदय के माध्यम से हमारे शरीर में प्राण-उर्जा का श्रोत है....यहाँ आप देखें गीता सूत्र----10.20,13.17,15.7,15.11,15.15,18.61.
7.12-7.13 को । सत और सत - पुरूष दोनों भावातीत है और गीता सूत्र 2.16 कहता है .........
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: अर्थात सत भावातीत है ।
जब तक ------
बिषय से बैराग्य तक की यात्रा पूरी नहीं होती ---
जब तक राग से बैराग्य नहीं होता ------
तब तक संसार के कण- कण में परमात्मा नहीं दिखता ----और
तब तक अपनें आँगन में बैठे सत पुरूष को पहचान नहीं सकते और जब पहचान होगी-------
तब दो नहीं एक होगा .....दोनों तरफ़ पूर्ण मौन तथा -----
भावातीत मौन ही परमधाम का द्वार है ।
====ॐ=======
तूं क्या परमात्मा को खोजेगा , परमात्मा तेरे को खोज रहा है ........
यह छोटा सा सूत्र रूपांतरण की औषधि है , यदि इसे ढंग से लिया जाए ।
हम बचपन से सुन रहे हैं ------
बिनु मांगे मोती मिले , मांगे मिले न भीख , अब आगे .................
बिचारा अली हफ़ीज़ भीख मांगते हुए किसी शहर की एक गली में दम तोड़ गया जिसके खेत में मिला
कोहनूर हीरा जो आज तक ब्रितानिया की महारानी के सर पर चमक रहा है ....ऐसा क्यों कर हुआ ?
बिचारा हफ़ीज़ अपनें खेत में पड़े हीरों को पहचान न पाया , न पहचाननें की कोशिश ही किया फल स्वरूप
भूखे पेट शरीर छोड़ गया , ज्यादातर लोग अली हफ़ीज़ की तरह ही हैं ।
आप को तो मैं जानता नहीं , पहचानता नहीं , लेकिन जब से मैं स्वयं को समझनें की कोशिश में लगा हूँ , मुझे
अब ऐसा लगनें लगा है की शायद मेरा भी अंत अली हफ़ीज़ की ही तरह न हो । अली हफ़ीज़ की मौत
परम धाम के द्वार को भी खोल सकती है यदि आखिरी श्वाश भरते - भरते यह एह्शाश हो जाए की परमात्मा द्वारा मिला मौका मैनें ब्यर्थ में गवा दिया , लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होंगे ।
प्यारे मित्रों ! भूल होना मन- बुद्धि केंद्रित ब्यक्ति का ब्यवहारिक स्वभाव है , लेकिन भूल की समझ सत के द्वार को खोलती है । खोज मन-बुद्धि की उपज है , मन-बुद्धि गुणों के गुलाम हैं और गुणों के प्रभाव में सत को पकड़ पाना असंभव है क्योंकि गीता कहता है [ गीता सूत्र 2.42-2.44, 12.3- 12.4 ].....भोग-भगवान् को एक समय
एक बुद्धि में रखना सम्भव नहीं और ब्रह्म की अनुभूति मन-बद्धि से परे की है ।
एक तरफ़ गीता है और दूसरी तरफ़ हम हैं , गीता हमारी ओर आरहा है लेकिन क्या हम गीता से मिलना भी चाहते हैं ? --- इस बात पर हमें सोचना होगा ।
गीता कहता है ----आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक के दो नाम हैं जो निर्विकार द्रष्टा रूप में हमारे ह्रदय के माध्यम से हमारे शरीर में प्राण-उर्जा का श्रोत है....यहाँ आप देखें गीता सूत्र----10.20,13.17,15.7,15.11,15.15,18.61.
7.12-7.13 को । सत और सत - पुरूष दोनों भावातीत है और गीता सूत्र 2.16 कहता है .........
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: अर्थात सत भावातीत है ।
जब तक ------
बिषय से बैराग्य तक की यात्रा पूरी नहीं होती ---
जब तक राग से बैराग्य नहीं होता ------
तब तक संसार के कण- कण में परमात्मा नहीं दिखता ----और
तब तक अपनें आँगन में बैठे सत पुरूष को पहचान नहीं सकते और जब पहचान होगी-------
तब दो नहीं एक होगा .....दोनों तरफ़ पूर्ण मौन तथा -----
भावातीत मौन ही परमधाम का द्वार है ।
====ॐ=======
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