गीता सन्देश - 02
प्रभु को हम लोग क्या समझते हैं ?
किस्मत और कर्म ; दो धारणाएं हमारे कण - कण में बैठी हुयी हैं । हम कभी अपनें
कर्म को अहम् मानते हैं तो
कभी किस्मत को , ऐसा करनें से हमें दो मार्ग मिलते हैं अपनें को बचानें के लिए ।
मनुष्य कभी यह नहीं स्वीकारता की जो कुछ हम पर गुजर रहा है , वह हमारे कारण है ।
जब हमारा कद उंचा दिखनें लगता है तो हम सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं -----
देखा , यह है मेरे कर्मों का फल ? और जब हालत खस्ती होती है तब सिकुड़ कर धीमी आवाज में
कहते हैं ---
क्या करें , किस्मत में कुछ ऐसा ही था ।
दो प्रकार के लोग नहीं हैं , लोग तो एक ही प्रकार के हैं जो कभी इस डाल पर लटके दीखते हैं
तो कभी उस डाल पर ।
जैसे किसी ब्यक्ति को उसके गुणों को बढ़ा कर गाते हैं , उसे खुश करनें के लिए , जब हमारा मतलब होता है ,
ठीक उसी प्रकार हम प्रभु को खुश करते हैं , जैसे वह भी एक अबोध बच्चा हो ।
हम जब अनंत की मांग करते हैं , प्रभु के सामनें और सोच से अधिक मिल जाता है तब ------
उसका कुछ भाग उस मंदिर को दान करके अपनी मशहूरी करते हैं , कोई सोनें का क्षत्र चढ़ा रहा होता है तो कोई
मंदिर के फर्श को बदलवा रहा होता है - यह क्रम चल रहा है और चलता रहेगा ।
गीता कहता है :------
तूं कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर एक लंगूर की तरह न लटक , एक डाल को पकड़ कर यात्रा करो ।
यदि तूं प्रभु को करता समझता है तो उसको समर्पित हो जाओ , तब तुमको सुख - दुःख , हानि - लाभ ,
इर्ष्या , ममता , कामना , क्रोध , लोभ , अहंकार आदि गुण तत्वों की साधाना करके अपनें कर्म को
योग में बदलना होगा ।
कर्म - योग का फल है - परा भक्ति - जहां सम भाव का प्रकाश होता है ।
परा भक्ति का फल है - ज्ञान जो देह जो विकारों से भरी है उसे निर्विकार करता है
और ........
मन - बुद्धि तंत्र में बहनें वाली ऊर्जा का रुख बदल कर कहता है ---------
देख ! यह तूं है , यह तेरा जीवन है और ऐसा करते रहो तो
एक दिन तू उसमें होगा जो ------
शाश्वत , निराकार , आदि - अंत रहित , अब्यक्त , अविज्ञेय है और वहीं .......
परम धाम है ।
परम प्रकाश है ।
परम गति है ।
और वह है ----
जिसके लिए तूं कभी .....
इस डाल को पकड़ता था , तो ....
कभी उस डाल को ।
यह सब का श्रोत है ॥
==== ॐ =====
किस्मत और कर्म ; दो धारणाएं हमारे कण - कण में बैठी हुयी हैं । हम कभी अपनें
कर्म को अहम् मानते हैं तो
कभी किस्मत को , ऐसा करनें से हमें दो मार्ग मिलते हैं अपनें को बचानें के लिए ।
मनुष्य कभी यह नहीं स्वीकारता की जो कुछ हम पर गुजर रहा है , वह हमारे कारण है ।
जब हमारा कद उंचा दिखनें लगता है तो हम सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं -----
देखा , यह है मेरे कर्मों का फल ? और जब हालत खस्ती होती है तब सिकुड़ कर धीमी आवाज में
कहते हैं ---
क्या करें , किस्मत में कुछ ऐसा ही था ।
दो प्रकार के लोग नहीं हैं , लोग तो एक ही प्रकार के हैं जो कभी इस डाल पर लटके दीखते हैं
तो कभी उस डाल पर ।
जैसे किसी ब्यक्ति को उसके गुणों को बढ़ा कर गाते हैं , उसे खुश करनें के लिए , जब हमारा मतलब होता है ,
ठीक उसी प्रकार हम प्रभु को खुश करते हैं , जैसे वह भी एक अबोध बच्चा हो ।
हम जब अनंत की मांग करते हैं , प्रभु के सामनें और सोच से अधिक मिल जाता है तब ------
उसका कुछ भाग उस मंदिर को दान करके अपनी मशहूरी करते हैं , कोई सोनें का क्षत्र चढ़ा रहा होता है तो कोई
मंदिर के फर्श को बदलवा रहा होता है - यह क्रम चल रहा है और चलता रहेगा ।
गीता कहता है :------
तूं कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर एक लंगूर की तरह न लटक , एक डाल को पकड़ कर यात्रा करो ।
यदि तूं प्रभु को करता समझता है तो उसको समर्पित हो जाओ , तब तुमको सुख - दुःख , हानि - लाभ ,
इर्ष्या , ममता , कामना , क्रोध , लोभ , अहंकार आदि गुण तत्वों की साधाना करके अपनें कर्म को
योग में बदलना होगा ।
कर्म - योग का फल है - परा भक्ति - जहां सम भाव का प्रकाश होता है ।
परा भक्ति का फल है - ज्ञान जो देह जो विकारों से भरी है उसे निर्विकार करता है
और ........
मन - बुद्धि तंत्र में बहनें वाली ऊर्जा का रुख बदल कर कहता है ---------
देख ! यह तूं है , यह तेरा जीवन है और ऐसा करते रहो तो
एक दिन तू उसमें होगा जो ------
शाश्वत , निराकार , आदि - अंत रहित , अब्यक्त , अविज्ञेय है और वहीं .......
परम धाम है ।
परम प्रकाश है ।
परम गति है ।
और वह है ----
जिसके लिए तूं कभी .....
इस डाल को पकड़ता था , तो ....
कभी उस डाल को ।
यह सब का श्रोत है ॥
==== ॐ =====
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