गीता सन्देश - 01
गीता - 14.26
यहाँ प्रभु कह रहे हैं ......
हे अर्जुन ! अब्यभीचारिनी अर्थात परा भक्ति में डूबा भक्त गुनातीत ,
ब्रह्म स्तर का होता है ॥
गीता को यदि बुद्धि स्तर पर समझना इतना ही आसान होता तो :-----
परा शब्द या अब्यभीचारिनी शब्द का प्रयोग न किया गया होता ।
परा का अर्थ है .......
साधना में जब धीरे - धीरे साधना पकनें लगती है तब परा का कब और कैसे द्वार खुलता है ,
कुछ पता नहीं
चल पाता और वहाँ की अनुभूति को योगी बाट नहीं सकता क्योंकि -----
इस स्थिति में ......
मन - बुद्धि , दोनों द्रष्टा होते हैं ॥
अब देखते ब्रह्म स्तर का क्या आशय हो सकता है ?
यहाँ गीता के दो सूत्रों को देखना है -- सूत्र - 13.13 और 14.3 को
दोनों सूत्रों को यदि गहराई से देखा जाए तो जो भाव बनता है , वह है .......
आदि - अंत रहित प्रभु के अधीन जो सभी जीवों का बीज हो , वह है - ब्रह्म ।
ऊपर के श्लोक में प्रभु कह रहे हैं .......
परा भक्त जो गुनातीत हो , वह ब्रह्म स्तर का होता है अर्थात ------
उसके मन - बुद्धि साक्षी भाव में होते हैं , जिनमें निर्विकार ऊर्जा भरी होती है ,
जिसके कण - कण से
प्रभु मय ऊर्जा का विकिरण होता रहता है और ......
जिसके पास में बैठनें वाला स्वतः प्रभु मय हो जाता है ॥
यहाँ यदि आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें तो प्रभु की बात और आसानी से
आप समझ सकते हैं :----------
गीता सूत्र -
14.27 , 14.3 , 13.13 , 15.54 , 8.31 , 8.3 ,
इन सभी श्लोकों का भाव है --------
समभाव वाला , परा भक्त , जो गुनातीत होता है , वह संसार को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखता हुआ
परमानंद में डूबा रहता है ॥
===== ॐ ======
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