ईशोपनिषद् का प्रारंभ
ईशोपनिषद् का ऋषि की गणित को यहाँ समझना होगा ⬇️
ईशोपनिषद् का आह्वन् प्रारंभिक मन्त्र
ऋषि कह रहे हैं ,वह और यह दोनों पूर्ण हैं । पूर्ण से जो होता है , वह भी पूर्ण होता है । पूर्णसे यदि उसका कुछ अंश निकाल दिया जाय तब भी वह पूर्ण ही रहता है ।आखिर वह कौन है ? वह ब्रह्म है ।
💐 ऋषि ,जिस प्रकार ब्रह्म को परिभाषित कर रहे हैं , वह भी अपनें में पूर्ण है ।
💐 यह और वह अर्थात प्रकृति और पुरुष अर्थात दृश्य वर्ग और ब्रह्म एक है।
💐 निराकार निर्विकार ब्रह्म साकार - सविकार माध्यमों में स्वयं को रूपांतरित करता है ।
💐 समयातीत ब्रह्म स्वतः समयाधीन दिखने लगता है। प्रलय काल में और सृष्टि - पूर्व जो रहता है , वह ब्रह्म है । वह एक है जो दृश्य - द्रष्टा दोनों रूपों में भाषता है ।
ईशोपनिषद् श्लोक - 1
ईशोपनिषद् ( ईशावास्योपनिषद् ) शुक्ल यजुर्वेद का अंतिम 40 वाँ अध्याय ,ईशोपनिषद् है ।
इसमें कुल 18 श्लोक हैं । श्लोक : 15 से 18 तक अंतिम संस्कार के समय कर्मकाण्डीय संस्कार करते समय मन्त्र के रूप में बोले जाते है। इन श्लोकों को आगे के अंकों में देखा जा सकता है ।
🌷ईशावास्यमिदम् सर्वम्
यत्किञ्च जगत्याम् जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा
मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
~~ ईशोपनिषद् का पहला श्लोक ~~
● संसार का दृश्य वर्ग और अदृश्य वर्ग , सबकुछ ईश्वर से ईश्वर में है ।
● किसी के धन - संपत्ति पर गिद्ध की तरह अपनी दृष्टि न जमाओ ।
◆ अंतःकरण में त्याग भावना भरी होनी चाहिए ।
★ ईश्वर सर्वव्यापी है । ईश्वर खोजने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं क्योंकि संसार में जो भी है , उन सब के अंदर - बाहर सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर है ।
# ईश्वर खोज के लिए किसी तीर्थ या अन्य स्थान की यात्रा की कोई आवश्यकता नहीं ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~ 09 अक्टूबर
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