ईशोपनिषद् 7 - 10
ईशोपनिषद् श्लोक :7 - 8
श्लोक : 7 - 8 का सार
● उसके लिए ( ब्रह्म के लिए ) सभीं प्राणी आत्म स्वरुप हैं ।
● वह ( ब्रह्म ) समभाव द्रष्टा है । उस स्वायंभुवके होने का संकेत अनाहद है । वही सबकी कामनाओं को पूरा कर रहा है ।
यहाँ अनाहद को समझना चाहिए 👇
तंत्र साधना में चक्रों की साधना की जाती है । मुख्य रूप से मूलाधार , स्वाधिस्थान , मनीपुर , अनहद , अवंतिका , आज्ञा और सहस्त्रार 07 चक्र हैं । मूलाधार से कुंडलिनी ऊर्जा सक्रिय हो कर ऊपर उठती है और स्वाधिस्थान , मनीपुर , अनहद , अवंतिका , आज्ञा चक्रों से होती हुई सहस्त्रार चक्र पर पहुंचती है जहां स्थित ब्रह्म रंध्र से शरीर त्याग कर परम में लीन हो जाती है ।
अनहद चक्र हृदय चक्र भी कहा जाता है । जब राजस और तामस गुणों की वृत्तियों का क्षय हो जाता है और सात्त्विक गुण की वृत्तियाँ पूर्ण रूपेण प्रभावी हो गयी होती हैं तब अनहद चक्र सक्रिय होता है ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस , मीरा और चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्तों को समझने से अनहद चक्र सक्रीयता को समझा जा सकता है।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
ईशोपनिषद् श्लोक : 9 - 10
श्लोक - 9 का सार
विद्या और अविद्या के प्रभाव को यह सूत्र स्पष्ट करता हुआ कह रहा है 👇
◆ अविद्या अंधकार में रखती है और विद्या अविद्या के आवरण को दूर करती है । अब अविद्या को देखना होगा ⬇️
🐼 अविद्या क्या है ?
पञ्च क्लेषों में अविज्ञा पहला क्लेष है और वह अन्य 04 क्लेषों की जन्म भूमि है । यहाँ देखें निम्न पतंजलि साधन पाद सूत्र : 3 , 4 और 5 ⬇️
➡अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेष , ये 05 क्लेष हैं ।
क्लेष - 1 अविद्या
यहाँ देखें पतंजलि साधन पाद सूत्र : 4 ⬇️
पञ्च क्लर्षों में पहला क्लेष अविद्या और क्लेषों की 04 अवस्थाएँ (भाग - 01)
ऊपर दिए गए सूत्र की रचना को देखिये ⬇️
" अविद्या + क्षेत्र + उत्ततेषां + प्रसुप्त + तनु
+ विच्छिन्न + उदाराणाम् "
साधन पाद सूत्र - 4 में 07 शब्द हैं , उनके भवार्थों को यहाँ देखते हैं …
1 - अविद्या अर्थात अज्ञान , 2 - क्षेत्र अर्थात स्थान , 3 - उत्तरेषाम् अर्थात शेष 04 क्लेषों की , 4 - प्रसुप्त अर्थात निद्रा अवस्था में , 5 - तनु अर्थात 4 शिथिल अवस्था , 6 - विच्छिन्न अर्थात कई टुकड़ों में विभक्त ,7 - उदाराणाम् अर्थात उदार अवस्था में ।
➡️ अब ऊपर दिए गए साधन पाद सूत्र - 04 का भावार्थ देखें ⬇️
अविद्या ही अगले शेष चार अर्थात् अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्लेशों की भूमि है । प्रसुप्त , तनु , विच्छिन्न और उदार क्लेषों की 04 अवस्थायें हैं ।भूमि का अर्थ है , जन्म भूमि ।
सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अविद्या सब क्लेशों की जननी है। सबके मूल में अविद्या ही उपस्थित है ।
ऐसा समझें कि अविद्या कारण (उत्पत्ति कर्ता) है और शेष चार क्लेश ( अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) उसके कार्य हैं ।
निम्न सूत्र में अविद्या की परिभाषा देखें ⬇️
अनित्य को नित्य अशुचि को शुचि दुःख को सुख और अनात्म को आत्म समझना अविद्या है जिसे विपर्यय भी कहते हैं । विपर्यय चित्त की 05 वृत्तियों में से एक है (देखे पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 6 ) ।
➡ भागवत : 3.10 > मैत्रेय - विदुर वार्ता के अंतर्गत बताया गया है कि अविद्या ब्रह्मा की 10 प्रकार की सृष्टियों में छठवीं सृष्टि है जिसमें निम्न 05 गाँठे होती है ;
1 - तामिस्र (द्वेष ) , 2 - महामोह ( राग ) ,
3 - तम , 4 - अन्धतामिस्त्र ( अभिनिवेश या मृत्यु भय ) , 5 - मोह ।
ओके
सूत्र : 10 का भावार्थ
विद्या ( सत् ज्ञान ) और अविद्या ( अज्ञान ) के फल अलग - अलग हैं , ऐसा हमने बुद्धिमान पुरुषों से सुना है , जिन्होंने हमारे लिए उसकी व्याख्या की थी।
ईशोपनिषद सूत्र - 10 का आदि शंकराचार्य का भाष्य ⬇️
जो अविद्या ( कर्म ) की उपासना करते हैं
वे (अविद्यारूप ) घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या ( शुद्ध उपासना ) में रत हैं , वे मानो उनसे भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं ।
~~ ◆◆ ॐ ◆◆~~22 अक्टूबर
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