गीता अमृत - 36
पूरी आजादी है
तुलसीदास कहते हैं .......
बिनु भय , प्रीति न होय
और गीता कहता है ......
प्रीति को बाँध कर , बंदी बना कर नहीं रखा जा सकता , प्रीति कुछ पानें के लिए नहीं उठती , यह तो प्रभु का प्रसाद है जो किसी - किसी को साधना के फल के रूप में मिलता है । गीता कहता है - भय तामस गुण का तत्त्व है , तामस गुण के प्रभाव में चेतना सिकुड़ जाती है , मनुष्य सहारे की तलाश में भागता है , वह यदि प्रभु को जपता है तो अपने स्वार्थ के लिए , अपनें फ़ायदा के लिए और जब भय से छुटकारा मिल जाता है तब वह पुनः प्रभु को भूल जाता है । क्या प्रभु बेवकूफ है जो मनुष्य की सोच को नहीं समझ सकता ?
मेरी भाषा आप को अच्छी नहीं लगेगी लेकीन आप भाव पर जाना , मैं क्या गलत कह रहा हूँ ? वह जिससे एवं जिसमे पूरा ब्रह्माण्ड है , वह जिसके बिना कुछ नहीं है , वह क्या उनके मन की बात को नहीं समझता होगा जो भय के कारण प्रीति का ढोंग करते हैं ?
प्रीति तो साधना - फूल की खुशबू है , क्या खुशबू किसी से पूछ कर हवा में उडती है ? खुशबू तो अलमस्ती में होती है जिसको न दिशाओं का पता होता है , न वह यह जानती है की वह क्या और कैसे कर रही है ? वह तो उसके इशारे पर है जो सब का सहारा है । शायद ही कोई ब्यक्ति ऐसा मिले जिसकी उम्र पचास वर्ष से अधिक हो और वह किसी न किसी रूप में प्रभु से न सम्बंधित हो । मनुष्य को बुढ़ापे में प्रभु की सोच क्यों सताती है ? भय के कारण , मृत्यु का भय उसे चैन से रहनें नहीं देता और वह भागता है , मंदिर की ओर ।
गुरुवार रबिन्द्र नाथ कहते हैं ----- तितली का जीवन पल - दो पल का जीवन होता है और वह उस जीवन में खूब नाचती है , उसे अपने जीवन की लम्बाई - चौड़ाई नापने की सोच नहीं होती , वह उसे पूर्ण समझती है जो उसे मिला है लेकीन मनुष्य की सोच क्या है ?
मनुष्य एक कुशल चालाक कारीगर है जो एक कण से ब्रह्म तक को अपनें लिए प्रयोग करता है लेकीन जब मरता है तब मृत्यु से लड़ते - लड़ते इतना थक चुका होता है की गीता के उन श्लोकों को भी नहीं सुन सकता जिसको लोग - उसके ही परिवार वाले उसे मुक्ति के लिए सुनाते हैं ।
आप इस बात पर सोचना -- एक तरफ वह जो मर रहा है , मरना नहीं चाहता , मृत्यु से लड़ रहा है और दूसरी तरफ उसके परिवार वाले उसे गीता सूना कर मुक्त करना चाहते हैं जिस से वह दुबारा न आ सके --
यह सब राजनीति है जो अपनों के मध्य शुक्ष्म गति से चलती रहती है ।
मनुष्य का जीवन जितना झूठा है प्रकृति में उतना झूठा और कुछ नही दीखता ।
गीता कहता है -----
बिष से अमृत तक की यात्रा ......
झूठ से सत तक की यात्रा ..........
भोग से भगवान की यात्रा ..........
जन्म से मृत्यु तक की यात्रा ......
सब का एक इरादा है की ------
हम इनके माध्यम से स्वयं को जान कर उसे जान लें जो ----
सब का श्रोत है ।
======ॐ=======
तुलसीदास कहते हैं .......
बिनु भय , प्रीति न होय
और गीता कहता है ......
प्रीति को बाँध कर , बंदी बना कर नहीं रखा जा सकता , प्रीति कुछ पानें के लिए नहीं उठती , यह तो प्रभु का प्रसाद है जो किसी - किसी को साधना के फल के रूप में मिलता है । गीता कहता है - भय तामस गुण का तत्त्व है , तामस गुण के प्रभाव में चेतना सिकुड़ जाती है , मनुष्य सहारे की तलाश में भागता है , वह यदि प्रभु को जपता है तो अपने स्वार्थ के लिए , अपनें फ़ायदा के लिए और जब भय से छुटकारा मिल जाता है तब वह पुनः प्रभु को भूल जाता है । क्या प्रभु बेवकूफ है जो मनुष्य की सोच को नहीं समझ सकता ?
मेरी भाषा आप को अच्छी नहीं लगेगी लेकीन आप भाव पर जाना , मैं क्या गलत कह रहा हूँ ? वह जिससे एवं जिसमे पूरा ब्रह्माण्ड है , वह जिसके बिना कुछ नहीं है , वह क्या उनके मन की बात को नहीं समझता होगा जो भय के कारण प्रीति का ढोंग करते हैं ?
प्रीति तो साधना - फूल की खुशबू है , क्या खुशबू किसी से पूछ कर हवा में उडती है ? खुशबू तो अलमस्ती में होती है जिसको न दिशाओं का पता होता है , न वह यह जानती है की वह क्या और कैसे कर रही है ? वह तो उसके इशारे पर है जो सब का सहारा है । शायद ही कोई ब्यक्ति ऐसा मिले जिसकी उम्र पचास वर्ष से अधिक हो और वह किसी न किसी रूप में प्रभु से न सम्बंधित हो । मनुष्य को बुढ़ापे में प्रभु की सोच क्यों सताती है ? भय के कारण , मृत्यु का भय उसे चैन से रहनें नहीं देता और वह भागता है , मंदिर की ओर ।
गुरुवार रबिन्द्र नाथ कहते हैं ----- तितली का जीवन पल - दो पल का जीवन होता है और वह उस जीवन में खूब नाचती है , उसे अपने जीवन की लम्बाई - चौड़ाई नापने की सोच नहीं होती , वह उसे पूर्ण समझती है जो उसे मिला है लेकीन मनुष्य की सोच क्या है ?
मनुष्य एक कुशल चालाक कारीगर है जो एक कण से ब्रह्म तक को अपनें लिए प्रयोग करता है लेकीन जब मरता है तब मृत्यु से लड़ते - लड़ते इतना थक चुका होता है की गीता के उन श्लोकों को भी नहीं सुन सकता जिसको लोग - उसके ही परिवार वाले उसे मुक्ति के लिए सुनाते हैं ।
आप इस बात पर सोचना -- एक तरफ वह जो मर रहा है , मरना नहीं चाहता , मृत्यु से लड़ रहा है और दूसरी तरफ उसके परिवार वाले उसे गीता सूना कर मुक्त करना चाहते हैं जिस से वह दुबारा न आ सके --
यह सब राजनीति है जो अपनों के मध्य शुक्ष्म गति से चलती रहती है ।
मनुष्य का जीवन जितना झूठा है प्रकृति में उतना झूठा और कुछ नही दीखता ।
गीता कहता है -----
बिष से अमृत तक की यात्रा ......
झूठ से सत तक की यात्रा ..........
भोग से भगवान की यात्रा ..........
जन्म से मृत्यु तक की यात्रा ......
सब का एक इरादा है की ------
हम इनके माध्यम से स्वयं को जान कर उसे जान लें जो ----
सब का श्रोत है ।
======ॐ=======
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