गीता अमृत - 29

भाव और भावातीत को जानों

मनुश्मृति - 6.29 में धर्म के लक्षण के रूप में जो बाते बताई गई हैं , उन बातों को गीता में ब्रह्मण के लक्षण के रूप में गीता सूत्र - 18.42 में कही गई हैं जब की ब्रह्मण वह है जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो - यह बात गीता सूत्र - 2.46 में कही गई हैं । गीता सूत्र - 10.4 - 10.5 में परम कहते हैं --इन्द्रिय नियोजन का भाव , मन शांत करनें के भाव , सुख - दुःख का भाव , भय - अभय का भाव , समता का भाव , संतोष का भाव , सत्य को समझनें का भाव एवं अन्य सभी भाव , मेरे से पैदा होते हैं । अब आप गीता सूत्र - 7.12 - 7.15 तक को देखिये , इन सूत्रों के माध्यम से परम कहते हैं ---तीन गुणों के भाव मुझसे हैं लेकीन इन गुणों एवं गुणों के भावों में मैं नहीं होता । गुणों के भाव मनुष्य को सम्मोहित करके मुझसे दूर रखते है और
गुना तीत - माया मुक्त योगी मुझसे परिपूर्ण होता है ।
भावातीत ब्रह्मण है , भावातीत गुनातीत - योगी है और सत्य भावातीत है [गीता सूत्र - 2।16 ], अब आप समझें की ब्रह्मण , गुनातीत - योगी एवं ब्रह्म में क्या सम्बन्ध है ?
गीता कहता है --प्रभु अविज्ञेय है [ गीता - 13.15 ] , परम अक्षर है [ गीता - 8.3 ] , अब्यक्त है [ गीता - 2.28 ] ,
सत - असत है [ गीता - 9.19 ] , न सत है न असत है [ गीता - 13.12 ] , एवं सत - असत से परे है [गीता -11.37], और गीता यह भी कहता है --ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है - गीता - 12।3 - 12.4 , फिर प्रभु को कैसे जानें ?
थेल्स के शिष्य अनाक्षिमंदर अपनें गुरु की बात से असहमति दिखाते हुए बोले ---ज्ञात के होनें का श्रोत , ज्ञात नहीं हो सकता वह अज्ञात ही होगा ।
अब आप सोचें की सभी भावों का श्रोत भावातीत कैसे हो सकता है ? यह सोच बुद्धि - योग का प्रारम्भ हो सकती है , आप कोशिश तो करें ।

=======ॐ========

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