गीता अमृत - 33
कैसे पायें हरी दर्शन ?
हरी दर्शन के लिए बुद्धि नहीं ह्रदय चाहिए .......
हरी दर्शन के लिए संदेह - भ्रम नहीं , आस्था चाहिए , और
आस्था के लिए मन - बुद्धि निर्विकार होनें चाहिए ।
गीता का अर्जुन [ गीता सूत्र - 11.8 ] प्रभु से दिब्य नेत्र पा कर प्रभु के ऐश्वर्य रूप को देखनें के बाद भी भ्रमित है
और प्रभु से कहीं दूर स्थित वेद्ब्यास द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य आँखों से [ गीता सूत्र - 18.75 ] संजय साकार
श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म देख कर धन्य हो रहे हैं - यह है एक उदाहण , आस्थावान का एवं भ्रमीत ब्यक्ति का ।
अर्जुन गीता सूत्र - 11.17 में कह चुके हैं की मैं आप को मुकुट धारण किये हुए , गदा - चक्र धारण किये हुए
देख रहा हूँ और पुनः गीता सूत्र - 11.45 में कहते हैं --यदि मैं आप का बिष्णु रूप देख लेता तो ------ क्या यह भ्रम नहीं है ?
गीता भ्रम का विज्ञान है और अर्जुन के रूप में भ्रम एक साकार रूप में दीखता है जब की प्रभु एक भ्रम
वैद्य के रूप में गुनातीत योगी की भूमिका निभा रहे हैं । आइये ! देखते हैं की गीता हमें हरी दर्शन की ओर
कैसे ले जाता है ?
[क] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44, 12.3 - 12.4, 7.24------ गीता कहता है - भोग - भगवान् को धारण करनें के लिए अलग - अलग बुद्धियाँ चाहिए और ब्रह्म की अनुभूति , मन - बुद्धि से परे की है ।
[ख] गीता सूत्र - 2।41, 2.66, 7.10, 10.22 ----- गीता कहता है - मन - बुद्धि - चेतना स्वयं श्री कृष्ण हैं , प्रभु को निश्चयात्मिका बुद्धि धारण करती है और भ्रमित बुद्धि में भोग बसता है ।
[ग] गीता सूत्र - 12.7 - 12.8, 18.54 - 18.55 -- गीता कहता है - परा भक्त प्रभु मय होता है
[घ] गीता सूत्र - 18.49 - 18.50 -- गीता कहता है - आसक्ति रहित कर्म से परा भक्ति का द्वार खुलता है ।
[च] गीता सूत्र - 6.21 - शुद्ध बुद्धि में प्रभु का निवाश होता है ।
[छ] गीता सूत्र - 6.29 - 6.30, 6.42, 7.3, 7.19, 12.5, 14.20 कहते हैं -- परा भक्त हर पल आत्मा - प्रभु में रहता है लेकीन ऐसे भक्त दुर्लभ हैं ।
अब आप सोचिये की गीता क्या कह रहा है ? गीता कहता है --------
प्रभु को तुम क्या खोजोगे , प्रभु तेरे को हर पल देख रहा है और जिस पल तुम अपनें मन - बुद्धि को निर्विकार बना लोगे उस पल प्रभु तेरे लिए निराकार नहीं रह पायेगा और तुम उसको देख कर कस्तूरी
मृग जैसा बन कर पुनः उसे पानें की चाह में भागनें लगेगा ।
परा भक्त को सब चाहते हैं लेकीन परा भक्त बनना कोई नहीं चाहता ॥
======ॐ=============
हरी दर्शन के लिए बुद्धि नहीं ह्रदय चाहिए .......
हरी दर्शन के लिए संदेह - भ्रम नहीं , आस्था चाहिए , और
आस्था के लिए मन - बुद्धि निर्विकार होनें चाहिए ।
गीता का अर्जुन [ गीता सूत्र - 11.8 ] प्रभु से दिब्य नेत्र पा कर प्रभु के ऐश्वर्य रूप को देखनें के बाद भी भ्रमित है
और प्रभु से कहीं दूर स्थित वेद्ब्यास द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य आँखों से [ गीता सूत्र - 18.75 ] संजय साकार
श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म देख कर धन्य हो रहे हैं - यह है एक उदाहण , आस्थावान का एवं भ्रमीत ब्यक्ति का ।
अर्जुन गीता सूत्र - 11.17 में कह चुके हैं की मैं आप को मुकुट धारण किये हुए , गदा - चक्र धारण किये हुए
देख रहा हूँ और पुनः गीता सूत्र - 11.45 में कहते हैं --यदि मैं आप का बिष्णु रूप देख लेता तो ------ क्या यह भ्रम नहीं है ?
गीता भ्रम का विज्ञान है और अर्जुन के रूप में भ्रम एक साकार रूप में दीखता है जब की प्रभु एक भ्रम
वैद्य के रूप में गुनातीत योगी की भूमिका निभा रहे हैं । आइये ! देखते हैं की गीता हमें हरी दर्शन की ओर
कैसे ले जाता है ?
[क] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44, 12.3 - 12.4, 7.24------ गीता कहता है - भोग - भगवान् को धारण करनें के लिए अलग - अलग बुद्धियाँ चाहिए और ब्रह्म की अनुभूति , मन - बुद्धि से परे की है ।
[ख] गीता सूत्र - 2।41, 2.66, 7.10, 10.22 ----- गीता कहता है - मन - बुद्धि - चेतना स्वयं श्री कृष्ण हैं , प्रभु को निश्चयात्मिका बुद्धि धारण करती है और भ्रमित बुद्धि में भोग बसता है ।
[ग] गीता सूत्र - 12.7 - 12.8, 18.54 - 18.55 -- गीता कहता है - परा भक्त प्रभु मय होता है
[घ] गीता सूत्र - 18.49 - 18.50 -- गीता कहता है - आसक्ति रहित कर्म से परा भक्ति का द्वार खुलता है ।
[च] गीता सूत्र - 6.21 - शुद्ध बुद्धि में प्रभु का निवाश होता है ।
[छ] गीता सूत्र - 6.29 - 6.30, 6.42, 7.3, 7.19, 12.5, 14.20 कहते हैं -- परा भक्त हर पल आत्मा - प्रभु में रहता है लेकीन ऐसे भक्त दुर्लभ हैं ।
अब आप सोचिये की गीता क्या कह रहा है ? गीता कहता है --------
प्रभु को तुम क्या खोजोगे , प्रभु तेरे को हर पल देख रहा है और जिस पल तुम अपनें मन - बुद्धि को निर्विकार बना लोगे उस पल प्रभु तेरे लिए निराकार नहीं रह पायेगा और तुम उसको देख कर कस्तूरी
मृग जैसा बन कर पुनः उसे पानें की चाह में भागनें लगेगा ।
परा भक्त को सब चाहते हैं लेकीन परा भक्त बनना कोई नहीं चाहता ॥
======ॐ=============
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