गीता अमृत - 21

जीवन कितना लंबा है ?

गीता सूत्र - 18.19, 18.23 - 26 तक और फिर गीता सूत्र 8.3 की यात्रा जितनी लम्बी है , मनुष्य का
जीवन भी उतना ही लंबा है ।
गीता एक यात्रा है जिसमें अनेक मार्ग हैं और उनमें से एक मार्ग है - कर्म का ।
गीता कहता है - गुणों की गणित में तीन प्रकार के लोग हैं , उनके कर्म अपनें - अपनें हैं , उनके तप, साधना ,
यज्ञ , पूजा - प्रार्थना , बुद्धि - ध्रितिका - सब कुछ अपनें - अपनें हैं । गीता कहता है - तुम जहां हो उसे समझकर आगे चलते रहो और इस प्रकार एक दिन तुम परम गति में पहुँच जाओगे ।
गीता कहता है [ गीता - 8.3 ] - वह जो भावातीत में पहुंचाए , कर्म है और आगे कहता है [ गीता - 2.16 ]सत्य भावातीत है । अब हमें यह समझना चाहिए की कर्म से परम गति कैसे मिल सकती है ?
भोग कर्म में जब गुणों के बंधन ढीले हो जाते हैं तब वह कर्म भोग कर्म न रह कर योग कर्म हो जाता है ।
गुणों के प्रभाव से रहित कर्म आसक्ति रहित कर्म होता है जिसको गीता समत्व - योग की संज्ञा देता है [गीता - 2.47 - 2.51 तक ] । गीता का श्लोक - 2.47 को लोग अपनें सीनें पर लिख लिया है जो कहता है - कर्म करना अधिकार है लेकीन इस श्लोक का शेष भाग एवं श्लोक - 2.48 कहते हैं - आसक्ति रहित कर्म योग सिद्धि है ।
गीता सूत्र 3.27, 3.33, 18.59 - 18.60 कहते हैं - गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है और यह
कर्म भोग कर्म होता है जिसके सुख में दुःख का बीज होता है लेकीन जब इन कर्मों में भोग - बधन नहीं होते
तब ये कर्म योग कर्म हो जाते हैं जो परम गति में पहुंचाते हैं ।
जीवन की लम्बाई इतनी है जितनी भोग कर्म से योग कर्म की लम्बाई है ।
भोग से बैराग्य ....
काम से राम .....
विचारों से निर्विचार
तक का मार्ग गीता दिखाता है ।

=====ॐ=====

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