Posts

Showing posts from February, 2010

गीता अमृत - 37

सोच एक यात्रा है [क] सोच से सुख , दुःख , चिंता , स्वर्ग , नरक - सब मिल सकता है लेकीन ------ [ख] परम आनंद , परम धाम नहीं मिलता । [ग] सोच के सुख में दुःख का बीज होता है । [घ] यात्रा वह है ... जिसका प्रारम्भ तो होता है लेकीन ------- [च] जिसका अंत अनंत होता है , यदि अंत भी आजाये तो वह यात्रा नहीं रह पाती । आइये अब हम गीता की परम यात्रा में चलते हैं जो हमें आगे - आगे ले जाती है लेकीन जिसमें कोई ऐसी सोच नहीं उपजती जो यह कहे की तुम कहाँ जा रहे हो ? सोच एक ऊर्जा है जो स्वर्ग - नरक में पहुचाती है और हमारे अगले जन्म को भी निर्धारित करती है । गीता सूत्र - 8.6 एवं 15।8 कहते हैं --- यदि तेरी सोच बहुत गहरी होगी तो तेरे को वह सोच यथा उचित अगली योनी में ले जा सकती है जिसमें तुम जाना नहीं चाहते --- सोच के बारे में भी सोच का होना जरुरी है । गीता कहता है --- सात्विक गुणों की सोच स्वर्ग में पहुंचा सकती है जो भोग का एक माध्यम है और यह सोच मनुष्य योनी में पुनः जन्म दिला कर योग मार्ग पर चला सकती है । राजस गुण के लोग नरक में जा सकते हैं या भोगी कुल में पैदा हो कर अपनी भोग की यात्रा को आगे चला सकते

गीता अमृत - 36

पूरी आजादी है तुलसीदास कहते हैं ....... बिनु भय , प्रीति न होय और गीता कहता है ...... प्रीति को बाँध कर , बंदी बना कर नहीं रखा जा सकता , प्रीति कुछ पानें के लिए नहीं उठती , यह तो प्रभु का प्रसाद है जो किसी - किसी को साधना के फल के रूप में मिलता है । गीता कहता है - भय तामस गुण का तत्त्व है , तामस गुण के प्रभाव में चेतना सिकुड़ जाती है , मनुष्य सहारे की तलाश में भागता है , वह यदि प्रभु को जपता है तो अपने स्वार्थ के लिए , अपनें फ़ायदा के लिए और जब भय से छुटकारा मिल जाता है तब वह पुनः प्रभु को भूल जाता है । क्या प्रभु बेवकूफ है जो मनुष्य की सोच को नहीं समझ सकता ? मेरी भाषा आप को अच्छी नहीं लगेगी लेकीन आप भाव पर जाना , मैं क्या गलत कह रहा हूँ ? वह जिससे एवं जिसमे पूरा ब्रह्माण्ड है , वह जिसके बिना कुछ नहीं है , वह क्या उनके मन की बात को नहीं समझता होगा जो भय के कारण प्रीति का ढोंग करते हैं ? प्रीति तो साधना - फूल की खुशबू है , क्या खुशबू किसी से पूछ कर हवा में उडती है ? खुशबू तो अलमस्ती में होती है जिसको न दिशाओं का पता होता है , न वह यह जानती है की वह क्या और कैसे कर रही है ? वह त

गीता अमृत - 35

हम कहाँ से कहाँ जा रहे हैं ? मनुष्य का जीवन भाव आधारित है , भावों के आधार पर वह सोचता है की वह आगे जा रहा है लेकीन क्या यह बात सत है ? भाव गुणों से हैं और सत गुनातीत है [ गीता - 2.16 ] फिर क्या हमारी यात्रा असत की है ? मैक्स प्लैंक जो क्वांटम विज्ञान के जनक हैं और जिनको नोबल पुरस्कार मिला हुआ है एवं जिनको आइन्स्टाइन भी एक महान वैज्ञानिक समझते हैं , उनका कहना है ---विज्ञान की हमारी खोंज हमें अपनें के होनें की ओर खीचती है और ऐसा लगता है की हम आगे नहीं धीरे - धीरे पीछे सरक रहे हैं । हम न तो आगे जा रहे हैं न पीछे जा रहे हैं , हमारी चाह की यात्रा दिशा हींन है , हम भ्रमित हैं , हमें पता नहीं है की हम कहाँ से चले हैं और कहाँ हमें जाना है ? आप न्यूटन से आन्स्ताइन तक - इस 200 वर्षों के विज्ञान को देखिये और तब आप को पता चल जाएगा की इस वैज्ञानिक युग में मनुष्य की दिशा क्या है ? न्यूटन से आइन्स्टाइन तक कौन वैज्ञानिक अतृप्त अवस्था में आखिरी श्वास नहीं भरा है - ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि सब जो खोज रहे थे उनको वह तो मिला नहीं और जो मिला उनको और अतृप्त कर दिया । आइये ! अब देखते हैं गीता के कुछ

गीता अमृत - 34

सांख्य - योग मूल मंत्र आप को यहाँ गीता आधारित सांख्य - योग के कुछ मूल मन्त्रों को दिया जा रहा है जो संभवतः आप के अन्दर वह ऊर्जा प्रवाहित कर सकें इससे आप का रुख परमात्मा की ओर हो सके । [क] मनुष्य = प्रकृति + पुरुष .... गीता - 7.4 - 7.6 , गीता - 13.5 - 13.6 , गीता - 14.3 - 14.4 [ख] मनुष्य = क्षेत्र + क्षेत्रज्ञ ....... गीता - 13.1 - 13.३ , क्षेत्र बिकारों से परिपूर्ण है और क्षेत्रज्ञ निर्विकार है [ग] प्रकृति - पुरुष अज हैं ......... गीता - 13.19, 15.16 और राग - द्वेष इनसे हैं , क्ष्रेत्र क्या है ? जड़ + चेतन या अपरा एवं परा दो प्रकृतियों का योग , क्षेत्र है , जो समयाधीन है , जो सविकार है और जिसका आदि , मध्य एवं अंत है । क्षेत्रज्ञ क्या है ? आत्मा - परमात्मा निर्विकार , समयातीत , भावातीत सनातन , क्षेत्रज्ञ है आत्मा क्या है ? देखिये गीता के श्लोक - 2.18 - 2.30 तक जो कहते हैं - आत्मा अबिभाज्य , अपरिवर्तनशील , अति शूक्ष्म , मन - बुद्धि सीमा में न आनेंवाला ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को जीवित की संज्ञा देता है । आत्मा क्या है ? देखिये गीता सूत्र - 10.20, 15.7, 13.22 - ये सूत्र कहत

गीता अमृत - 33

कैसे पायें हरी दर्शन ? हरी दर्शन के लिए बुद्धि नहीं ह्रदय चाहिए ....... हरी दर्शन के लिए संदेह - भ्रम नहीं , आस्था चाहिए , और आस्था के लिए मन - बुद्धि निर्विकार होनें चाहिए । गीता का अर्जुन [ गीता सूत्र - 11.8 ] प्रभु से दिब्य नेत्र पा कर प्रभु के ऐश्वर्य रूप को देखनें के बाद भी भ्रमित है और प्रभु से कहीं दूर स्थित वेद्ब्यास द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य आँखों से [ गीता सूत्र - 18.75 ] संजय साकार श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म देख कर धन्य हो रहे हैं - यह है एक उदाहण , आस्थावान का एवं भ्रमीत ब्यक्ति का । अर्जुन गीता सूत्र - 11.17 में कह चुके हैं की मैं आप को मुकुट धारण किये हुए , गदा - चक्र धारण किये हुए देख रहा हूँ और पुनः गीता सूत्र - 11.45 में कहते हैं --यदि मैं आप का बिष्णु रूप देख लेता तो ------ क्या यह भ्रम नहीं है ? गीता भ्रम का विज्ञान है और अर्जुन के रूप में भ्रम एक साकार रूप में दीखता है जब की प्रभु एक भ्रम वैद्य के रूप में गुनातीत योगी की भूमिका निभा रहे हैं । आइये ! देखते हैं की गीता हमें हरी दर्शन की ओर कैसे ले जाता है ? [क] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44, 12.3 - 12.4, 7.24------ गीता क

गीता अमृत - 33

कैसे पायें प्रभु को ? यहूदी धर्म शास्त्र तालमुद कहता है -- तूं क्या खोज रहा है ? प्रभु तेरे को खोज रहा है । अर्जुन [ गीता - 11.8 ] को प्रभु दिब्य नेत्र देकर अपनें ऐश्वर्य रूप को दिखाया लेकीन अर्जुन फिर भी भ्रमित ही हैं तभी तो गीता आगे बढ़ रहा है और एक हैं संजय - जिनको वेद्ब्यास [ गीता - 18.75 ] द्वारा दिब्य नेत्र मिले हैं और वे साकार श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म देख कर धन्य हो रहे हैं । प्रभु को समझनें एवं देखनें के लिए भागना नहीं पड़ता , अपनें मन - बुद्धि को निर्विकार बनाना पड़ता है । प्रभु को खोजो नहीं , प्रभु तो सब में है , उसे समझनें लायक बनो । आइये ! अब हम गीता में झाकते हैं हो सकता है कुछ संकेत हाथ लग जाएँ -------- [क] भोग की बुद्धि अनिश्चयात्मिका बुद्धि होती है और योगी की बुद्धि निश्चयात्मिका होती है गीता - सूत्र ..... 2.41, 2.66, 7.10 [ख] भोग - भगवान् को एक साथ एक बुद्धि में रखना असंभव है -- गीता सूत्र ... 2.42 - 2.44 [ग] ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है -- गीता सूत्र - 12.3 - 12.4 [घ] शुद्ध बुद्धि में प्रभु रहता है --- गीता सूत्र .... 6.21 [च] आसक्ति रहित कर्म प

गीता अमृत - 32

प्रभु की ओर ------- गीता में श्री कृष्ण कहते हैं ------ मन - बुद्धि के परे , मेरी अनुभूति ध्यान के माध्यम से निर्विकार मन - बुद्धि से योग सिद्धि पर ह्रदय में मिलती है ---यहाँ देखिये गीता सूत्र ... 6.24, 7.24, 12.3 - 12.4, 3.38, 10.20, 13.17, 13.22 15.7, 15.11, 15.13, 18.61 को , आत्मा - प्रभु की आहट ह्रदय में मिलती है यहूदी धर्म शास्त्र - तालमुद कहता है - Why was man created on the last day ? God created the gnat before Thee . अब आप सोचिये की प्रभु और मनुष्य का क्या रिश्ता है ? मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो भोग से योग में पहुँच कर प्रभु की किरण देख सकता है और इसके लिए मन - बुद्धि को निर्विकार बनाना पड़ता है । आइये अब हम कुछ ऐसे गीता में दिए गए उदाहरणों को लेते हैं जो साकार से निराकार एवं भावों से भावातीत की ओर ले जानें में सक्षम हैं -------- [क] श्री राम , श्री कृष्ण एवं अर्जुन , प्रभु हैं -- गीता सूत्र - 10.32, 10.31, 10.37 [ख] विष्णु , इन्द्र , कपिल मुनि , नारद , यमराज , प्रभु हैं -- गीता सूत्र - 10.21, 10.22, 10.26, 10.29 [ग] वेद्ब्यास , शुक्राचार्य , कुबेर - प्रभु हैं -- गीता सूत

गीता अमृत - 31

बुद्धि की भी सीमा है लेकीन वह -------- ? Bose - Einstein super condensate theory [ 1922 ] - लगभग एक सौ वर्ष बाद अब उस कण को बनानें में कामयाब दिख रही है जिस के आधार पर वह Quantum - Particle विज्ञान में एक और क्रांति ला सकेगा । गीता का क्वांटम कण है - आत्मा जिससे गीता का प्रारम्भ है , जिस कण का विज्ञान कुरुक्षेत्र में प्रभु कृष्ण के द्वारा तीन वेदों के रसायनों से अर्जुन के मोह को समाप्त करनें के लिए किया गया । लगभग 5560 BCE - 800 BCE में गीता का जन्म हुआ - ऐसी मान्यता है , तब से आज तक यह परम कण भारत भूमि की चारों दिशाओं में बिकिरण के माध्यम से अपनी ऊर्जा को भर रहा है । परम कण - आत्मा को जो समझता है वह चुप हो जाता है और जो , कुछ बताना चाहते हैं उनको सुननें वाले लोग नहीं होते और यह आत्मा का Quantum Science तब से आज तक मंदिरों की दीवारों को देखा रहा है । आइये अब हम गीता के कुछ परम ज्ञान को देखते हैं --------- [क] मन - चेतना [ गीता - 10.22 ], बुद्धि [ गीता - 7.10 ] , समय [ गीता - 10.30 ], काम [ गीता - 7.11 ], काम देव [ गीता - 10.28 ] , पुरुष - तत्त्व [ गीता - 7.8 ], शिव [ गीता - 10.23

गीता अमृत - 30

भ्रमित ब्यक्ति क्या चाहता है ? दो शब्द हैं - संदेह एवं भ्रम । संदेह में पूर्ण रूप से अस्थिरता होती है - कभी हाँ तो कभी ना , कभी आगे तो कभी पीछे चलना होता है लेकीन भ्रम संदेह से अधिक खतरनाक होता है , भ्रमित ब्यक्ति अपनें को ढक कर रखनें की कोशिश में रहता है । भ्रमित ब्यक्ति अवलंबन खोजता है , वह उसे तलाशता है जो उसके हाँ में हाँ मिलानें वाला हो । भ्रमित ब्यक्ति चाहता है की जो उसे मिले उसका कद छोटा हो और यदि लम्बे कद वाला मिल जाता है तब भ्रमित ब्यक्ति की परेशानी बढ़ जाती है । गीता में अर्जुन का कद छोटा है और अर्जुन भ्रमित हैं , अर्जुन का मात्र एक प्रयाश होता है की वे अपनें को कैसे छिपा कर रक्खें ? आइये अब हम गीता के अर्जुन की भाव दशा को देखते हैं -------- [क] गीता सूत्र - 1.30 , अर्जुन कहते हैं ....मेरा मन भ्रमित हो रहा है । [ख] गीता सूत्र - 1.26 - 1.46 , अर्जुन यहाँ जो भी कहते हैं उस से यह स्पष्ट होता है की अर्जुन मोह में हैं । देह में कम्पन का होना , गले का सूखना , त्वचा में जलन का होना - यह सब मोह के लक्षण हैं [ग] गीता सूत्र - 2.7 , अर्जुन कहते हैं - धर्म - बिषयों के कारण उनका मन

गीता अमृत - 29

भाव और भावातीत को जानों मनुश्मृति - 6.29 में धर्म के लक्षण के रूप में जो बाते बताई गई हैं , उन बातों को गीता में ब्रह्मण के लक्षण के रूप में गीता सूत्र - 18.42 में कही गई हैं जब की ब्रह्मण वह है जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो - यह बात गीता सूत्र - 2.46 में कही गई हैं । गीता सूत्र - 10.4 - 10.5 में परम कहते हैं --इन्द्रिय नियोजन का भाव , मन शांत करनें के भाव , सुख - दुःख का भाव , भय - अभय का भाव , समता का भाव , संतोष का भाव , सत्य को समझनें का भाव एवं अन्य सभी भाव , मेरे से पैदा होते हैं । अब आप गीता सूत्र - 7.12 - 7.15 तक को देखिये , इन सूत्रों के माध्यम से परम कहते हैं ---तीन गुणों के भाव मुझसे हैं लेकीन इन गुणों एवं गुणों के भावों में मैं नहीं होता । गुणों के भाव मनुष्य को सम्मोहित करके मुझसे दूर रखते है और गुना तीत - माया मुक्त योगी मुझसे परिपूर्ण होता है । भावातीत ब्रह्मण है , भावातीत गुनातीत - योगी है और सत्य भावातीत है [गीता सूत्र - 2।16 ], अब आप समझें की ब्रह्मण , गुनातीत - योगी एवं ब्रह्म में क्या सम्बन्ध है ? गीता कहता है --प्रभु अविज्ञेय है [ गीता - 13.15 ] , परम अक्षर है

गीता अमृत - 28

कौन प्रभु का प्रसाद पाता है ? [क] नियोजित इन्द्रियों वाला , स्थिर मन - बुद्धि वाला , भोग के सम्मोहन से अप्रभावित सम भाव वाला ब्यक्ति प्रभु के प्रसाद को पाता है ---गीता सूत्र ....2.56 - 2.72, 14.22 - 14.27 [ख] गुण तत्वों जैसे काम , कामना , अहंकार , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य से प्रभावित न होनें वाला ब्यक्ति परम प्यार के रूप में प्रभु - प्रसाद को प्राप्त करता है ---गीता सूत्र ....3.27, 3.37 - 3.43, 4.10 , 5.23, 16.21 [ग] आसक्ति रहित परा भक्त परम आनंद के रूप में प्रभु - प्रसाद को पाता है ----गीता सूत्र .... 18.4 - 18.55 [घ] प्रकृति - पुरुष को समझनें वाला तत्त्व ज्ञान के रूप में प्रभु - प्रसाद को प्राप्त करता है ----गीता सूत्र .... 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 14.19, 14.23, 13.19, 13.20, 15.16 [च] कर्म में अकर्म का भाव एवं अकर्म में कर्म का भाव रखनें वाला प्रभु - प्रसाद को पाता है ----गीता सूत्र .... 4.18 [छ] माया मुक्त योगी गुणों को करता देखता हुआ स्वयं को साक्षी समझनें वाला तत्व - ज्ञानी के रूप में ज्ञान का परम प्रसाद पाता है ----गीता सूत्र .... 7.12 - 7.15. 14.19, 14.23

गीता अमृत - 27

मंदिरों में लगी लम्बी - लम्बी कतारें किनकी हैं ? गीता के निम्न श्लोकों को देखिये ....... 2.42 - 2.46, 9.20 - 9.22, 6.41 - 6.45, 14.19, 14.23, 14.20 गीता कहता है गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं लेकीन भोग - योग के आधार पर सात्विक गुण धारी एवं राजस - तामस गुण धारियों को दो भागों में समझा जा सकता है । राजस एवं तामस गुण धारी लोग भोग केंद्र के चारों तरफ घूमते रहते एक दिन परिधि पर आखिरी श्वास भरते हैं और सात्विक गुण धारी भोग से बैराग्य में पहुँच कर प्रभु मय हो कर आवागमन से मुक्त हो सकता है । मंदिरों के सामनें लगी कतारों में खड़े लोगों में कितनें ऐसे लोग होते हैं जिनके अन्दर कामना , लोभ , मोह एवं अहंकार का प्रभाव नहीं होता ? कितनें लोग मंदिर प्रभु को धन्यबाद देनें के लिए जाते हैं ? भोगी जब स्वयं को करता समझ कर भागते - भागते थक जाता है और यह समझनें लगता है की अब वह सफल नहीं हो सकता तब मंदिर में पहुंचता है की शायद यहाँ उसकी मुराद पूरी हो सके । जो हारे हुए हैं , वे जीत की उम्मीद से मंदिर पहुंचते हैं ...... जिनको सब कुछ उपलब्ध है , वे अपनें अहंकार को दिखानें के लिए मंदिर पहुंचते हैं ....

गीता अमृत - 26

प्रकृति में मनुष्य यहाँ आप गीता में यह देखनें जा रहे हैं की प्रकृति , पुरुष एवं प्रभु का क्या समीकरण है ? और इसके लिए आप गीता के निम्न सूत्रों को अपनाएं ------ 7.14 - 7.16, 8.6, 15.8, 16.5 - 16.19, 17.4 - 17.22, 18.4 - 18.12, 18.19 - 18.39 अब आप गीता की उन बातों को देखें जो इन सूत्रों में बंद हैं ------ [क] मनुष्य प्रकृति - पुरुष के योग से एक ऐसा जीव है जो भोग - भगवान् दोनों को समझ सकता है लेकीन जीवों में सबसे अधिक तनहा जीव क्यों है ? क्यों की भोग में भगवान् की उसकी खोज बेहोशी की खोज है । मनुष्य जब भोग को योग का माध्यम समझनें लगता है तब वह तनहा नहीं रहता । [ख] तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार के लोग हैं लेकीन राजस - तामस गुण धारियों को गीता एक जैसा समझते हुए कहता है -- ये लोग आसुरी स्वभाव वाले होते हैं जिनके जीवन का केंद्र भगवान् नहीं भोग होता है । [ग] भोगी दिशाहीन यात्रा करते हुए भोग में घूमता हुआ भोग में एक दिन शरीर छोड़ जाता है - इसका जीवन अतृप्ति में अतृप्त स्थिति में समाप्त होता है । [घ] योगी भोग से अपना जीवन प्रारम्भ करके योग में पहुंचता है जहां उसको भोग से बैराग्य हो जाता है

गीता अमृत - 25

जो है , वह किससे है ? सन्दर्भ गीता सूत्र 8.16 - 8.20, 3.22, 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 13.19 13.33, 15.1 - 15.3, 15.6, 15.16, 14.20, 2.28 जो है , जो था और जो होनें वाला है सब अब्यक्त से है , अब्यक्त से था औरर अब्यक्त से होगा - यह बात गीता सूत्र 2.28 कहता है । वह अब्यक्त - प्रभु , परमात्मा , ब्रह्म एवं अनेक नामों से संबोधित किया जाता है लेकीन नाम मात्र इशारा होते हैं । अब्यक्त से तीन गुणों का एक माध्यम है जो सीमा रहित है सनातन है जिससे एवं जिसमें वैज्ञानिक टाइम स्पेस है और सभीं सूचनाएं हैं । इस माध्यम का नाम है - माया । माया से माया में दो प्रकृतियाँ हैं - अपरा एवं परा । अपरा प्रकृती को जड़ प्रकृति भी कहते हैं जिसमें आठ तत्त्व हैं - पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि एवं अहंकार । परा प्रकृति चेतना को कहते हैं । प्रकृति - पुरुष के योग से जीव हैं जिनमें पुरुष आत्मा - परमात्मा है जो निर्विकार सनातन समयातीत है और प्रकृति के रूप में देह है जो समयाधींन है एवं जो विकारों से परिपूर्ण है । गीता कहता है - समय की एक सायकिल है जिसको कल्प कहते हैं - एक कल्प एक ब्रह्मा

गीता अमृत - 24

समर्पण प्रभु से जोड़ता है यहाँ हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना है तब गीता के अर्जुन के समर्पण की बात , कुछ स्पष्ट हो पायेगी । गीता श्लोक - 1.22, 2.7, 2.31, 2.33, 8.7, 10.9 - 10.11, 11.1, 11.37, 11.51, 18.62, 18.65 - 18.66, 18.72 - 18.73 अब पहले इनको देखते हैं ---- [क] भक्ति का प्रारंभ समर्पण से होता है । [ख] बुद्धि - योग की सिद्धि पर समर्पण भाव का उदय होता है । [ग] सकारण समर्पण मोह या कमजोर अहंकार की छाया है । [घ] निष्काम समर्पण , प्रभु से जोड़ता है । आइये ! अब चलते हैं गीता में जहां समर्पण से सम्बंधित श्री कृष्ण एवं अर्जुन को देखते हैं ---- [क] श्री कृष्ण महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध कहते हैं [ गीता - 2.31, 2.33 ] और अर्जुन इसको ब्यापार कहते हैं [ गीता - 1.22 ] , अब आप यह देखें की जब दोनों की प्रारंभित सोच ही भिन्न - भिन्न है तो दोनों एक मत कैसे हो सकते हैं ? [ख] श्री कृष्ण स्वयं को परम ब्रह्म , परम धाम एवं सृष्टि के आदि - मध्य एवं अंत के रूप में स्वयं को बताते हुए कहते हैं ......तूं मेरी शरण में आजा , ऐसा करनें से तेरा कल्याण होगा और तू परम गति को प्राप्त करेगा [गीता - 8.7, 10

सोच की दौड़ - क्यों और कहाँ तक ?गीता अमृत - 23

ज़रा आप इनको देखें ------ [क] मनुष्य संसार में दुसरे नंबर पर नहीं रहना चाहता । [ख] मनुष्य अपनें बंद मुट्ठी में कुछ और भरना चाहता है । [ग] मनुष्य की कामना दुस्पुर है । [घ] मनुष्य सोचता है - जो नहीं है वह हमारे पास हो और जो है वह सरकनें न पाए । [च] मनुष्य की कामना उसके आत्मा को दुबारा शरीर धारण करनें के लिए विवश करती है । [छ] गुणों के साथ परमात्मा नहीं दीखता और गुण ही आत्मा को शरीर में रोक कर रखते हैं । [ज] गुनातीत या मायामुक्त योगी दुर्लभ हैं । अब आप इनको समझनें के लिए देखिये गीता सूत्र - ----- 8.6, 15.8, 2.62 - 2.63, 6.24, 7.20, 18.72 - 18.73, 14.14, 6.41 - 6.42, 7.3, 7.19 - 7.20, 12.5 14.15, 7.4, 10.22 मनुष्य की सोच यदि भोग से सम्बंधित है तो वह उस ब्यक्ति से उसका वर्तमान छीन लेती है । भोग की सोच में मनुष्य सोचता है की वह आगे जा रहा है लेकीन ऐसा होता नहीं है - मैक्स प्लैंक - एक नोबल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक कहते हैं ---- खोज में उठा कदम कहता है की तुम आगे जा रहे हो लेकीन आगे जानें के बाद ऐसा लगता है की हम जहां थे , अब उससे भी पीछे चले गए हैं । आप सोचिये की आप की सोच आप को कहाँ ले ज

गीता अमृत - 22

कर्म करनें वाला कौन है ? जो हमारी कर्म की परिभाषा है वह गीता के कर्म के माध्यम की परिभाषा है । गीता के कर्म के लिए हमें अपनें स्वभाव को बदलना होगा । स्वभाव बदलनें के लिए हमें अपनें अन्दर के गुण - समीकरण को बदलना होगा । गुण समीकरण को बदलनें के लिए हमें अपना ------ खान , पान , वाणी , तन , मन एवं बुद्धि को बदलना होगा , और यह सब तब संभव होगा जब हम गीता में दुबकी लेते रहनें का अभ्यास करेंगे । अब आप देखिये गीता सूत्र - 18.19, 18.23 - 18.28, 8.3, 14.6 - 14.12, 14.17 - 14.18, 3.27, 3.33, 18.59 - 18.60, 2.45, 5.22, 3.5, 2.47 - 2.51, 14.19, 14.23, 14.20, 13.19, यदि आप किसी ढाबे पर रोटी खाते हैं तो एक वक्त की रोटी के लिए आप को जो खर्च करना पड़ता है उस में गीता - प्रेस - गोरखपुर से प्रकाशित गीता आप को मिल सकता है लेकीन गीता को कंधे पर टांग कर कौन चलना चाहता है ? गीता कहता है - तीन गुण हैं जो पुरे ब्रह्माण्ड में प्रत्तेक सूचना में हैं , गुणों के इस माध्यम को माया कहते हैं । गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं , सब का अपना - अपना कर्म है जिसको भोग कर्म कहते हैं, जिनकी पकड़ मनुष्य को परमात्म

गीता अमृत - 21

जीवन कितना लंबा है ? गीता सूत्र - 18.19, 18.23 - 26 तक और फिर गीता सूत्र 8.3 की यात्रा जितनी लम्बी है , मनुष्य का जीवन भी उतना ही लंबा है । गीता एक यात्रा है जिसमें अनेक मार्ग हैं और उनमें से एक मार्ग है - कर्म का । गीता कहता है - गुणों की गणित में तीन प्रकार के लोग हैं , उनके कर्म अपनें - अपनें हैं , उनके तप, साधना , यज्ञ , पूजा - प्रार्थना , बुद्धि - ध्रितिका - सब कुछ अपनें - अपनें हैं । गीता कहता है - तुम जहां हो उसे समझकर आगे चलते रहो और इस प्रकार एक दिन तुम परम गति में पहुँच जाओगे । गीता कहता है [ गीता - 8.3 ] - वह जो भावातीत में पहुंचाए , कर्म है और आगे कहता है [ गीता - 2.16 ] सत्य भावातीत है । अब हमें यह समझना चाहिए की कर्म से परम गति कैसे मिल सकती है ? भोग कर्म में जब गुणों के बंधन ढीले हो जाते हैं तब वह कर्म भोग कर्म न रह कर योग कर्म हो जाता है । गुणों के प्रभाव से रहित कर्म आसक्ति रहित कर्म होता है जिसको गीता समत्व - योग की संज्ञा देता है [गीता - 2.47 - 2.51 तक ] । गीता का श्लोक - 2.47 को लोग अपनें सीनें पर लिख लिया है जो कहता है - कर्म करना अधिकार है लेकीन इस श्लोक का श

गीता अमृत - 20

किं तद्ब्रह्म ? अर्जुन के आठवें प्रश्न का एक अंश ऊपर का प्रश्न है जिसका अर्थ है -- ब्रह्म क्या है ? परम श्री कृष्ण कहते हैं ---- अक्षरं ब्रह्म परमं अर्थात परम ब्रह्म अक्षर है [जिसका कभी अंत न हो ] ब्रह्म , इश्वर , प्रभु , परम अक्षर , परमात्मा काम चलानें के नाम हैं जिनसे उस ऊर्जा को ब्यक्त किया जाता है जो अब्याक्तातीत है । ऋषि शांडिल्य- लाउत्सू कहते हैं - उसका कोई नाम नहीं है और गीता कहता है ---- वह बिष - अमृत , सत - असत है और न सत है न असत है [ गीता - 9.19 + 13.12 ] , अब उसे आप किस भाव में समझेंगे ? यह आप को पता चलेगा । गीता में ब्रह्म को समझनें के लिए आप निम्न श्लोकों को देखें -- अध्याय - 2 .....श्लोक - 16, 28, 42 - 44 तक । अध्याय - 5......श्लोक - 14 - 15 अध्याय - 7 .....श्लोक - 8, 15, 24, 25,26, अध्याय - 8 ....श्लोक - 3, 20 - 22 तक अध्याय - 9 ....श्लोक - 4 - 6, 16 - 17, 19, 29 अध्याय - 10 ..श्लोक - 2 - 6, 8 , 20 - 40 अध्यायh - 11 श्लोक - ६ - ७, ३२, ५२ - ५५ अध्याय - 1२ - 1 - 7 अध्याय - 13 .. श्लोक - 12 - 17, 22, 24, 27, 30 - 31 अध्याय 15 ...श्लोक - 7, 12 - 18 अध्याय - 18 ...श्

गीता अमृत - 19

गीता श्लोक - 7.27 श्लोक कहता है - इच्छा , द्वेष , द्वन्द एवं मोह से प्रभावित ब्यक्ति अज्ञानी होते हैं और गीता श्लोक - 5.10 - 5.11 कहते हैं -- क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ , भोग - योग , भोगी - योगी को न समझनें वाले लोग अज्ञानी होते हैं .....अब आप इन चार गीता सूत्रों पर अपनी बुद्धि को जितना चाहें उतना लगाएं - जितनी गहरी सोच होगी उतनी गहरी बात सामनें आएगी । गीता सूत्र - 7.27 में इच्छा , द्वेष एवं द्वन्द अहंकार - राजस गुण के समीकरण के तत्त्व हैं और मोह है - तामस गुण का मूल तत्त्व । गीता सूत्र - 6.27, 2.52 को जब आप एक साथ देखेंगे तो आप को पता चलेगा -- राजस - तामस गुण प्रभु के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट हैं । गीता ज्ञान की परिभाषा गीता सूत्र - 13.2 में देते हुए कहता है - वह जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध पैदा करे - ज्ञान है और गीता आगे यह भी कहता है -- कामना - मोह [ राजस गुण - तामस गुण ] अज्ञान की जननी हैं [ गीता - 7.20, 18.72 - 18.73 ] , अब आप गीता के विज्ञान को समझें की गीता आप को किधर ले जाना चाह रहा है ? इच्छा [ कामना ] , द्वेष , द्वन्द में राजस गुण में अहंकार ऊपर परिधि पर होनें से द

गीता अमृत - 18

कर्म से संन्यास की ओर ------ लोग कहते हैं .......गीता कर्म का विज्ञान है लेकीन यह बात कितनें लोग जानते हैं --गीता कर्म के माध्यम से संन्यास की यात्रा है ? गीता का प्रारम्भ परम श्री कृष्ण सम - भाव ब्यक्ति को पंडित बताते हुए आत्मा से करते हैं और धीरे - धीरे यह यात्रा काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार के होती हुयी सनातन परम ब्रह्म में बिसर्जित होती है । परम कहते हैं -- मनुष्य के रूप में तुम आये हो , तेरा यह अवसर तेरे हाँथ से सरकना नहीं चाहिए , तुम इस अवसर को इस तरह इस्तेमाल करो की यह तेरे लिए परम धाम का मार्ग बन जाए । आइये ! अब देखते हैं गीता के कुछ श्लोकों को ----- [क] सूत्र - 5.3 कामना - द्वेष रहित कर्म करता - सन्यासी है । [ख] सूत्र - 5.3, 5.10, 5.11, 5.23, 16.21 काम क्रोध लोभ नरक के द्वार हैं , आसक्ति रहित कर्म करता भोग संसार में कमलवत रहता हुआ सन्यासी होता है । आसक्ति रहित इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि से होना चाहिए । [ग] सूत्र -3.5, 18.11, 18.48, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 2.14, 18.38, 14.19, 14.23, 18.54-18.55 कर्म करता मनुष्य नहीं गुण हैं , ऐसे कर्म भोग हैं , जिनके करने

गीता अमृत - 17

गीता श्लोक - 4.38 कहता है ------ योग की सिद्धि ज्ञान की जननी है । योग उसका नाम है जो परमात्मा मय बनाता है अर्थात जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्म मय दिखनें लगे , वह है योग । योग में योगी ब्रह्माण्ड की हर सूचना में आत्मा - परमात्मा देखता है और सब को आत्मा - परमात्मा के फैलाव रूप में देखता है । क्या है- ज्ञान ? देखिये गीता सूत्र - 13.1 - 13.3 तक सूत्रों से स्पष्ट है --- क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध - ज्ञान है । क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ क्या हैं ? मनुष्य का देह जो सविकार है वह है क्षेत्र और इस देह में निर्विकार जीवात्मा जो प्रभु का अंश है , वह है - क्षेत्रज्ञ अर्थात बिकार एवं निर्विकार का बोध - ज्ञान है । ग्यानी के लक्षण क्या हैं ? यहाँ देखिये गीता सूत्र - 13.7 - 13.11, 15.10 - 15.11 को जो कहते हैं ...... सम भाव वाला गुणों के तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति , ग्यानी होता है । अब आप गीता में गीता अमृत - 17 को समझनें के लिए गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें ------ 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 15.16, 13.19, 7.14, 15.1 - 15.3, 14.20, 13.22, 10.20, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61, 2.55 - 2.

गीता अमृत - 16

गीता श्लोक - 4.21 - 4.23 तक यहाँ गीता कह रहा है ------- आसक्ति , कामना रहित , सिद्धि - असिद्धि में सम भाव रहनें वाला , भोग - तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति , कर्म - योगी होता है । गीता की इस बात को समझनें के लिए हमें गीता में आसक्ति , कामना , भोग तत्वों एवं समभाव को समझना पडेगा । यहाँ गीता के 50 श्लोकों को दिया जा रहा है जिनसे भोग - तत्वों के प्रति कुछ बातें जानी जा सकती हैं । [क] आसक्ति के लिए देखिये गीता - सूत्र- 2.48 , 2.59, 2.60, 2.62, 3.7, 3.19 - 3.20, 3.25, 3.26, 4.20, 4.23, 5.10, 5.11, 13.8, 14.7, 18.6, 18.11, 18.40 - 18.50, 18.54 - 18.55 [ख] कामना के लिए देखिये गीता सूत्र - 2.55, 2.71, 4.10, 4.19, 6.2, 6.4, 6.24, 7.20, 7.27, 14.7, 14.12 [ग] क्रोध के लिए देखिये गीता सूत्र - 2.62 - 2.63, 4.10, 5.23, 5.26, 16.21 [घ] मोह के लिए देखिये गीता सूत्र - 2.52, 2.71, 4.10, 4.23, 7.27, 18.8, 14.17, 18.72 - 18.73 जब आप गीता के इन सूत्रों को अपनाएंगे तब आप को पता चलेगा --गीता का कर्म - योगी कैसा होता है ? कर्म - योगी वह है जो --- काम , आसक्ति , कामना , संकल्प , बिकल्प , क्रोध , लोभ , मोह

गीता अमृत - 15

पंडित की परिभाषा , गीता में क्या है ? -----गीता ..4.19 गीता श्लोक 4.19 कहता है ...... कामना संकल्प रहित कर्म करता जो ज्ञान से परिपूर्ण हो , वह पंडित है । गीता सूत्र 4.18 में हमनें देखा - जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता हो , वह बुद्धिमान तथा योगी होता है और इस बात को एक नए अंदाज में गीता सूत्र 4.19 कह रहा है । गीता का हर एक सूत्र दुसरे सूत्र का प्रारंभ है , एक सूत्र पर जो रुक गया , वह रुक गया और जो एक बात से सम्बंधित सभी सूत्रों को इकट्ठा करके माला बना कर धारण करता है , वह है - गीता - योगी । आइये ! अब गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं ------ [क] सूत्र - 2.11 प्रज्ञावान सम भाव वाला , पंडित होता है । [ख] सूत्र - 18.42 सम भाव वाला , ब्रह्मण होता है । [ग] सूत्र - 2.46 ब्रह्म को तत्त्व से जाननें वाला , ब्रह्मण होता है । [घ] सूत्र - 2.55 - 2.72 समभाव वाला , संकल्प - कामना, अहंकार रहित गुण - तत्वों के प्रभाव में न आनें वाला , स्थिर बुद्धि वाला होता है । [च ] सूत्र - 6.1 - 6.2, 6.४ संकल्प - कामना रहित योगी होता है । [छ] सूत्र - 3.17 - 3.18 आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति का समंध

गीता अमृत - 14

कर्म - अकर्म क्या हैं ? ----गीता - 4.18 [क] भोग में उपजा होश भोग - त्याग का कारण है । [ख] जिसनें भोगा , उसनें त्यागा । [ग] बिना भोग संसार का अनुभव नहीं , बिना संसार - अनुभव , ज्ञान नहीं । [घ] भोगी का कर्म योगी को अकर्म दीखता है और योगी का कर्म भोगी को अकर्म सा लगता है गीता श्लोक 4.18 बुद्धि - योग के फल को स्पष्ट करते हुए कहता है ------ जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वह बुद्धिमान है और सभी कर्मो को करनें में सक्षम होता है । अब देखिये गीता के निम्न सूत्रों को -------- 8.3, 2.48, 3.19, 3.20, 3.25, 4.20, 4.23, 5.10, 5.11 8.11, 18.49, 18.50, 18.54, 18.56, गीता के चौदह सूत्र कहते हैं ...... भोग कर्म योग कर्म के मार्ग हैं । भोग कर्मों में कर्म के बंधनों को समझंना , उस ब्यक्ति को योग में पहुंचाते हैं । जब कर्म के होनें के पीछे गुणों के तत्वों की पकड़ नहीं होती तब वह भोग कर्म , योग - कर्म हो जाता है । योग - कर्म बिना आसक्ति के होते हैं , जिससे कर्म करता परा भक्ति में पहुँच जाता है जिसको कर्म- योग की सिद्धि कहते हैं । आसक्ति रहित कर्म के लिए गीता सूत्र 8.3 कहता है ---- भूतभावो

गीता अमृत - 13

राग - भय प्रभु से दूर रखते हैं गीता [ सूत्र 4.10 ] कहता है ------ राग , भय और क्रोध प्रभु से दूर रखते हैं --आखिर राग , भय क्रोध हैं क्या ? इसको जाननें के लिए , देखिये गीता सूत्र -- 2.47 - 2.52, 2.59 - 2.60, 2.62 - 2.63, 2.71, 3.7, 3.19 - 3.20, 3.25, 3.26, 3.37 - 3.42, 4.10, 4.19, 4.23, 5.10, 5.11, 5.23, 5.26, 6.2, 6.4, 6.24, 6.27, 7.20, 7.27, 8.11, 13.8, 14.7, 14.17. 16.21, 18.72, 18.73 गीता यहाँ अपनें 43 श्लोकों में कह रहा है ------ राग - क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं और भय तामस गुण का तत्त्व है - अर्थात राजस एवं तामस गुण प्रभु से मिलनें नहीं देते । क्रोध काम ऊर्जा का रूपांतरण है जो कामना में बिघ्न पड्नें पर पैदा होता है । राजस एवं तामस गुणों की पकड़ जब समाप्त हो जाती है तब सम - भाव आता है , सम भाव ही एक ऐसा माध्यम है जो प्रभु से जोड़ता है । गीता गुणों का विज्ञान है , गीता उनके लिए है जो बुद्धि केन्द्रित लोग हैं । आप गीता को अपना कर प्रभु से दूर नहीं रह सकते । ====ॐ====

गीता अमृत - 12

बुद्धि हींन कौन है ?--- गीता ...7.24 गीता के माध्यम से आप कृष्ण मय हो सकें , बस यही मेरा उद्धेश्य है । आप मेरे लेखों के माध्यम से मुझसे क्यों जुड़ते हैं ? यदि जुडना ही है तो ...... गीता की मैत्री से परम श्री कृष्ण से जुड़िये और तब यह संसार आप को कृष्ण मय दिखनें लगेगा । गीता सूत्र - 7.24 में परम कहते हैं ----- मुझे जन्म - जीवन एवं मृत्यु की परिधि में सिमित समझनें वाले बुद्धि हींन हैं , वे मुझे सनातन , अविनाशी , मन - बुद्धि से परे परम भाव , अब्यक्त भाव की अनुभूति नही समझते । अब गीता सूत्र - 18.29 - 18.32 तक को देखिये और फिर गीता सूत्र - 2.41, 2.66, 7.10 को देखिये- जिनमें परम कहते हैं ----- गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं , उनकी अपनी - अपनी बुद्धियाँ हैं , राजस एवं तामस बुद्धि वाले बुद्धि हींन होते हैं क्यों की उनकी बुद्धियों में अहंकार , चाह एवं भ्रम होते हैं , ऐसी बुद्धि अनिश्चयात्मिका बुद्धि कह लाती है । सात्विक बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है जो परम ऊर्जा से परिपूर्ण होती है । इन्द्रियों से मिलनें वाला आनंद , भोग - आनंद होता है लेकीन निर्विकार बुद्धि से जो आनंद उपजता है वह हो