गीता के मूल तत्त्व भाग तीन

यहाँ हम गीता के मूल तत्त्वों को देख रहे हैं और इसके अंतर्गत पहले हम देख रहे हैं पुरुष , परमात्मा एवं ब्रह्म / अब आगे देखते हैं अगले कुछ सूत्रों को जिनका सम्बन्ध सीधे पुरुष , परात्मा एव ब्रह्म से है /

श्लोक – 13.3 – 13.4 , 14.3- 14.4

ब्रह्म जीव धारण करनें का माध्यम है एकिन मेरे अधीन है और मैं जनक बीज हूँ /

श्लोक – 9.19

सत् - असत् मैं हूँ /

श्लोक – 13.13

अनादि ब्रह्म न सत् है न असत् /

श्लोक – 9.18

सबका बीज , अब्यय , सबका पालन कर्ता , सबका द्रष्टा , सबका आधार , मैं हूँ /

श्लोक – 9.10

सभीं चर – आचार की रचना मैं करता हूँ , सबका जनक बीज मैं हूँ और प्रकृति का भी रचना कर्ता मैं ही हूँ /

श्लोक – 7.10

सभीं जीवों का आदि बीज मैं हूँ /

श्लोक – 8.3

अक् षरं ब्रह्म परमं

श्लोक – 9.8

जगत मेरे अधीन है/

श्लोक – 10.3

मुझे अजन्मा , अनादि सभीं लोकों के स्वामी के रूप में जो देखता है वह मोह रहित होता है /

श्लोक – 2.52

मोह के साथ वैराज्ञ नहीं मिल सकता /

गीता से आप जितना खीचना चाहें खीच लें लेकिन वह न तो कम होता है और न हीं बढ़ता है / गीता आप से कुछ लेता है और किता आप को सब कुछ देता है ; आप से जो लेता है उसे आप देनें को तैयार नहीं और गीता जो देता है उसके लिए आप भोग संसार में खूब तैर रहे हैं लेकीन बेहोशी में / जिस दिनन आप को यह पता चलेगा की आप जिस में तैर रहे हैं और तैर कर पार करना चाहते हैं वह मात्र तैरनें से अ [ अनी आखिरी सीमा को नहीं दिखानें वाला , उस अनादि का आखिरी किनारा मिलता है गीता से / प्रभु श्री कृष्ण में स्वयं को देखनें का अभ्यास आप को भोग संसार के आयाम के परे के आयाम में पहुंचा सकत है /


====ओम्=====


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