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Showing posts from February, 2012

गीता धुन

कामना रहित स्थिर प्रज्ञ योगी होता है --- गीता 2.55 Steadfast devotee is a man who is free from desires मन में आती जाती कामनाओं का द्रष्टा स्थिर प्रज्ञ होता है ----- गीता 2.70 He who is witness to the incoming and outgoing desires within his mid is a steadfast devotee स्पृहा , कामना , ममता एवं अहंकार रहित स्थिर प्रज्ञ होता है ------ गीता 2.71 Steadfast devotee is without attachment , without desires , without clinging and without ego कर्म – फल की सोच का न होना संन्यासी के लक्षण हैं … . गीता 6.1 Action without thinking about its result makes one Yogin ==== ओम् ======

कामना क्रोध एवं अहंकार भाग एक

आसक्ति , कामना एवं क्रोध गीता कहता है ----- गुणों के प्रभाव में इन्द्रियाँ अपनें - अपने विषयों को खोजती रहती है , जब बिषय मिल जाता है तब मन में उस विषय की प्राप्ति की लहर उठती है जिसको मनन कहते हैं कहते हैं , मनन की सघनता उस उर्जा को आसक्ति में बदल देती है , सघन आसक्ति को कामना कहते है , कामना पूर्ति में जब बिघ्न पड़ता है तब कामना की उर्जा क्रोध में बदल जाती है , इस सूत्र को इस प्रकार से देखें -------- इंद्रिय + बिषय = मन में मनन सघन मनन = कामना कामना की असफलता से क्रोध और गीता सूत्र 3.37 कहता है … ..... काम एषः क्रोध एषः रजोगुणसमुद्भव : अर्थात काम का रूपांतरण ही क्रोध है और काम – क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं गीता सूत्र – 7.4 में प्रभु कहा रहे हैं ------ भूमिरापः अनिलः वायु : खं मनः बुद्धिः एव च अहंकारह इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा अर्थात अहंकार अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में से एक तत्त्व है / प्रारम्भ में जो समीकरण आसक्ति , कामना एवं क्रोध के सम्बन्ध में दिया गया है उसके सम्बन्ध में गीता के निम्

आत्मा एवं देह

गीता श्लोक – 5.13 सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् नौ द्वारों वाले शरीर में उसका आत्मा आनंद से रहता है जिसके सभीं कर्म मन द्वारा त्यागे जा चुके होते है / One who has action without attachment whose mind does not think about actions being performed , his Soul dwells in his body of nine doors happily as a witness . गीता श्लोक – 14.5 सत्त्वं रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवा : निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनं अब्ययम् देह में अब्यय को प्रकृति के तीन गुण रोक कर रखते हैं Three natural modes – Goodness , Passion and dullness bind down Soul in the body . गीता में प्रभु श्री कृष्ण जो एक सांख्य – योगी के रूप में हैं अपने दो सूत्रों के माध्यम से अर्जुन को वह ज्ञान दे रहे हैं जो उसके सर के ऊपर – ऊपर से निकल जा रहा है , वह समझना तो चाहता है लेकिन उसका मन – बुद्धि तंत्र में तामस गुण की ऊर्जा भरी होनें के नाते समझ नहीं पा रहा , अर्जुन की यह सोच उसके श्लोक – 6.33 , 6.34 से स्पष्ट होता है जहाँ वह कह रहा है ------ हे मधुसूद

आत्मा और देह

गीता श्लोक – 13.32 यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते सर्वत्रावस्थितो देहे तथा आत्मा नोपलिप्यते आकाश सर्वत्र है , शूक्ष्म है और किसी से लिप्त नहीं ठीक आकाश की भांति आत्मा देह में सर्वत्र है , शूक्ष्म है और देह के किसी भी भाग से लिप्त नहीं है / गीता श्लोक – 13.33 यथा प्रकाशयत्येक : कृत्स्नं लोकमिमं रवि : क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत जैसे सम्पूर्ण लोकों को एक सूर्य प्रकाशित करता है वैसे देह में देही [ आत्मा ] सम्पूर्ण देह को ऊर्जा प्रदान करता है / आत्मा और आकाश आत्मा और सूर्य ऊपर गीता के दो सूत्रों में आत्मा को प्रभु श्री कृष्ण आकाश एवं सूर्य से तुलना कर रहे हैं , प्रभु कह रहे हैं , आकाश सर्वत्र है , सीमारहित है / यह नहीं कहा जा सकता की आकाश है और यह भी नहीं कहा जा सकता की यह नहीं है अर्थात आकाश के होनें के सन्दर्भ में कोई समीकरण नहीं दिया जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह नहीं है / आत्मा के लिए प्रभु श्लोक – 10.20 में कहते हैं , आत्मा रूप में मैं सभीं भूतों के ह्रदय में बसा हुआ हूँ और श्लोक – 13.32 , 13.33 में कह रहे हैं ,

गीता मूल तत्त्व आत्मा का एक और स्वरुप

गीता श्लोक – 10.20 अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः अहम् आदि : च मध्यम् च भूतानाम् अंत एव च प्रभु कह रहे हैं ----- मैं सब भूतों के ह्रदय में स्थित आत्मा हूँ , सभीं भूतों का आदि मध्य एवं अंत भी हूँ I am the Supreme Soul dwelling in the hearts of all beings , I ,m the beginning , the present life and the end of all beings . गीता श्लोक – 15.8 शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्राम्तीश्वर : गृहीत्वैतानि संयाति वायु ; गंधानिवाशयात् जैसे वायु गंध को अपनें साथ रखती है वैसे आत्मा अपने साथ मन एवं इंद्रियों को भी रखता है / The Soul at the time of living the body takes away mind and the senses . गीता में प्रभु के दो सूत्रों में जो हमनें देखा वह कुछ इस प्रकार से है --------- सभीं जीवों के ह्रदय में आत्मा जो है वह प्रभु का ही अंश है और आत्मा के कारण मनुष्य का जन्म जीवन एवं मृत्यु है अर्थात जबतक आत्मा देह में है तबतक मनुष्य जीव है , जबतक जीव है तबतक उसका वर्त्तमान का जीवन है और जब जीवन का अंत होता है तब आत्मा देह को त्याग कर गमन कर जाता है किसी और देह की तलाश में या फिर अपने परम श्रोत प्

आत्मा रहस्य का अगला अंश

गीता सूत्र – 2.25 अब्यक्तः अयं अचिंत्य : अयं अ विकार्य : अयं उच्यते / तस्मादेवं विदित्वैनम् नानुशोचि महर्सि // आत्मा अब्यक्त है [ unmanifest ] आत्मा अविकार्य [ अपरिवर्तनीय ] है [ unchanging ] आत्मा अचिंत्य है [ unthinkable ] गीता सूत्र – 2.28 अब्यक्त आदिनि भूतानि ब्यक्तमध्यानि भारत / अब्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना // सभीं भूतों का आदि अब्यक्त से है The beginning of all being is from unmanifest सबका अंत अब्यक में होता है And all are ending in unmanifest सबका वर्तमान केवल ब्यक्त है , फिर जो समाप्त हो रहे हैं उनके लिए क्या सोचना ? गीता के श्री कृष्ण , सांख्य – योगी कह रहे हैं ------ हे अर्जुन ! आर्त्मा अब्यक्त है , अचिंत्य है . अपरिवर्तनीय है / अपरिवर्तनीय की बात तो हम सबकी बुद्धि पकड़ पाती है लेकिन अब्यक्त एवं अचिंत्य को बुद्धि कैसे समझे ? भगवान श्री कृष्ण आत्मा को अब्यक्त एवं अचिंत्य कह रहे हैं और उसे ब्यक्त भी कर रहे हैं और जो अचिंत्य है उसके सम्बन्ध में कह रहे हैं की तूं उसे समझ , क्या अर्जुन के लिए य

गीता के मूल तत्त्व आत्मा

गीता सूत्र – 2.23 नैनं छिन्तंदि शस्त्राणि नैनं दहति पावकः / न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः / / गीता सूत्र – 2.24 अच्छेद्य : अयं अदाह्यः अयं अक्लेद्यःअशोष्य एव च / नित्यः सर्वगतः स्थारुणुर चलोऽयम सनातनः // गीता के दो सूत्र कह रहे हैं -------- वह जो शस्त्रों से खंडित न हो सके [ One which cant be cleaved by weapons ] वह जो अग्नि से जलाया न जा सके [ To which fire does not burn ] वह जो जल से भींगता न हो [ To which waters do not wet ] वह जिसको वायु सुखा नहीं सकती [ One which is not dried by air ] वह जो टूट न सके [ One which is unbreakable ] वह जो अदाह्य हो [ One which is unburnt ] वह जो अक्लेद्य हो [ One which could not be dessolved ] वह जो अपरिवर्तनीय हो [ One which does not change with time ] वह जो अचल हो [ Immovable ] वह जो सनातन हो [ One which is indestructible ] वह जो नित्य हो [ One which is always ] वह जो सर्वत्र हो [ One which is everywhere ] गीता में प्रभु अर्जुन को कुछ ऎसी बातें इन दो सूत्रों के माध्यम से बता रहे है जिनके आधा

गीता मूल तत्त्व आत्मा क्रमशः

गीता के मूल तत्त्व यहाँ हम गीता के मूल तत्त्वों में आत्मा रहस्य को गीता के आधार पर समझनें की कोशिश कर रहे हैं और अज हम गीता के दो नीं सूत्रों को देखनें जा रहे हैं / गीता सूत्र – 2.19 य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् / उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते // गीता सूत्र – 2.20 न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायंभूत्वाभवितावान भूयः / अजो नित्यः शाश्वतं अयं पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे // न मार ता है न मरता है [ does not slay , and is not slain ] न जन्म लेता है , न मरता है , सबसे प्राचीन है जो , जो शरीर समाप्ति पर भी नहीं मारा जाता [ never born never die , unborn , eternal , permanent , primeval , which is not slain when the body is slain . ] गीत के उप दिए गए दो सूत्र कह रहे हैं ------- आत्मा वह है जो देह में ऊर्जा का श्रोत है , जो अजन्मा है , शाश्वत है , सर्वत्र है , जो अपरिवर्तनीय है जो समयातीत है , जो न तो मारता है और न ही मरता है / आत्मा प्राचीनतम है अर्थात टाइम – स्पेस आत्मा से आत्मा में है जो समयातीत है और जो

आत्मा को कैसे समझें

आत्मा गीता के दो सूत्र 2.17 एवं 2.18 आत्मा के सम्बन्ध में कहते हैं ----- आत्मा वह है जो … .... अब्यय है [ immutable ] अविनाशी है [ indestructible ] सर्वत्र है [ pervades everywhere ] अप्रमेय है [ incomprehensible ] गीता अध्याय दो में प्रभु अपनें तेरह सूत्रों में आत्मा को स्पष्ट करते हैं और यह भी कहते है की आत्मा अचिंत्य है / वह बिषय जो अचिंत्य हो उसे ब्यक्त कैसे किया जा सकता है ? यह बात अप सोचें क्योंकि यह मेरी बुद्धि से परे का बिषय है / क्या विज्ञान में कोई सूचना ऎसी है जो ----- अचिंत्य हो अब्यय हो सर्वत्र हो जो अप्रमेय हो ? ==== ओम् =====

गीता के मूल तत्त्व आत्मा भाग दो

गीता के मूल तत्त्वों में हम यहाँ आत्मा से सम्बंधित प्रभु श्री कृष्ण के श्लोकों को देख रह रहे हैं , तो आइये देखते हैं गीता का एक श्लोक ------- श्लोक – 14.5 सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवा : / निबधन् अन्ति महाबाहो देहे देहिनं अब्ययम् // “ अब्यय आत्मा को देह में प्रकृति रचित तीन गुण [ सात्त्विक , राजस एवं तामस ] रोक्क कर रखते हैं " यहाँ प्रभु के इस सूत्र में दो बातों को साधना की दृष्टि से हमें देखना चाहिए / [ क ] अब्यय शब्द आत्मा के लिए प्रयोग किया गया है , इस बात को समझाना है [ ख ] तीन गुण आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं , इस बात को भी हमें देखना है [ क ] अब्यय शब्द का क्या भाव है ? ब्यय शब्द उसका संबोधन है जिस से यदि कुछ ले लिया जाए तो उसकी मात्रा कम हो जाती हो और यदि उसमें कुछ मिला दिया जाए तो उसकी मात्रा बढ़ जाती हो / अब्यय शब्द को ब्यय शब्द के साथ समझना चाहिए / अब्यय का अर्थ है वह जिसकी मात्रा को न तो कम किया जा सके और न ही बढ़ाया जा सके अर्थात अब्यय वह है जो स्थिर रहता हो , क्या विज्ञान में कोई ऎसी सूचना है जिसको अब्यय नाम से संबोधित किया

गीता का मूल तत्त्व आत्मा

गीता के मूल तत्त्वों को हम यहाँ देख रहे हैं जिसके अंतर्गत पुरुष , परमात्मा एवं ब्रह्म शब्दों से हमारा परिचय हो चुका है अब हम आत्मा शब्द को गीता में देखनें जा रहे हैं / गीता में आत्मा शब्द के लिए गीता के निम्न श्लोकों को हमें देखना चाहिए ------ 2.13 2.17 2.18 2.19 2.2 2.21 2.22 2.23 2.24 2.25 2.28 2.29 2.3 1020 15.8 13.32 13.33 5.13 14.5 Dr. Vidyanathananad [ Shri Mohan Maharaj ] is working on , A Geometrical space which does not get affected by external forces and remains unchanged geometrically . Mohan Maharaj of Ramkrishna mission is a renounced mathematician in India and recently was awarded by the Govt. of India . Quantum mathematics says , any informations can not be reduced to zero and based on this theory Dr. Chandra,s some of the predictions were not accepted by the science- community . अमेरिका में वैज्ञानिकों को अंग प्रत्यार्पण – विज्ञान के क्षेत्र में एक अद्भुत बात मिली है , उनका कहना है की जब किसी का अंग किसी और में लगाया जाता है तब यह पूरी संभावना र

गीता के मूल तत्त्व भाग तीन

यहाँ हम गीता के मूल तत्त्वों को देख रहे हैं और इसके अंतर्गत पहले हम देख रहे हैं पुरुष , परमात्मा एवं ब्रह्म / अब आगे देखते हैं अगले कुछ सूत्रों को जिनका सम्बन्ध सीधे पुरुष , परात्मा एव ब्रह्म से है / श्लोक – 13.3 – 13.4 , 14.3- 14.4 ब्रह्म जीव धारण करनें का माध्यम है एकिन मेरे अधीन है और मैं जनक बीज हूँ / श्लोक – 9.19 सत् - असत् मैं हूँ / श्लोक – 13.13 अनादि ब्रह्म न सत् है न असत् / श्लोक – 9.18 सबका बीज , अब्यय , सबका पालन कर्ता , सबका द्रष्टा , सबका आधार , मैं हूँ / श्लोक – 9.10 सभीं चर – आचार की रचना मैं करता हूँ , सबका जनक बीज मैं हूँ और प्रकृति का भी रचना कर्ता मैं ही हूँ / श्लोक – 7.10 सभीं जीवों का आदि बीज मैं हूँ / श्लोक – 8.3 अक् षरं ब्रह्म परमं श्लोक – 9.8 जगत मेरे अधीन है / श्लोक – 10.3 मुझे अजन्मा , अनादि सभीं लोकों के स्वामी के रूप में जो देखता है वह मोह रहित होता है / श्लोक – 2.52 मोह के साथ वैराज्ञ नहीं मिल सकता / गीता से आप जितना खीचना चाहें खीच लें लेकिन वह न तो कम

गीता के श्री कृष्ण

गीता के मूल तत्त्व भाग – 02 पुरुष परमात्मा एवं ब्रह्म भाग – 2 आइये इस सन्दर्भ में गीता के कुछ और श्लोकों को देखते हैं ------- श्लोक – 13.17 बिभिन्न जीवों में वह बिभाजित सा दिखता है लेकिन वह है एक [ omnipresence ] श्लोक – 15.17 जीव लोक में सभीं जीव मेरे ही अंश हैं श्लोक – 7.6 जगत के होनें न होनें का कारण मैं हूँ श्लोक – 7.10 सभीं जीवों का आदि बीज मैं हूँ श्लोक – 7.11 धर्माविरुद्धो भूतेषु कामः अस्मि [ धर्म अनुकूल काम , मैं हूँ ] श्लोक – 10.28 प्रजनन : च अस्मि कन्दर्पः [ प्रजनन की उर्जा काम का देव कामदेव मैं हूँ ] श्लोक – 9.10 सभीं चर – अचरों की रचना कर्ता , प्रकृति का जन्मदाता एवं जनक बीज मैं हूँ श्लोक – 10.30 काल मैं हूँ श्लोक – 7.24 निराकार जब साकार रूप धारण करता है तब वह संदेह के घेरे में रहता है श्लोक – 9.4 सम्पूर्ण जगत मेरे अब्यक्त रूप से ब्यक्त है आज प्रातः कालीन बेला में सूर्य उदय होनें से ठीक पूर्व जहां न रात है न दिन और जिसे साधक संध्या संज्ञा के परिभाषित करते हैं , मैं आप को गीता के दस सूत्रों को दे

गीता तत्त्वम् दो

गीता के मूल तत्त्व पिछले अंक में गीता के मूल तत्त्वों के नामों से आप का परिचय हुआ और अब देखते हैं गीता के मूल तत्त्व पुरुष , परमात्मा एवं ब्रह्म संज्ञाओं से जिसकी ओर गीता इशारा करता है / पुरुष , परमात्मा एवं ब्रह्म गीता में कुल 700 [ 701] श्लोक हैं [ अध्याय – 13 के प्रारंभिक श्लोक के साथ कुल 701 श्लोक हैं ] जिनमें 574 श्लोक प्रभु श्री कृष्ण के हैं जिनका सम्बन्ध सीधे अर्जुन के प्रश्नों के उत्तरों से है / प्रभु के 574 श्लोकों में लगभग 80 श्लिक ऐसे हैं जीके माध्याम से प्रभु स्वयं को एवं साकार – निराकार परमात्मा को ब्यक्त किया है / प्राकृति एवं पुरुष ये दो तत्त्व हैं सांख्य – योग के , जिनको माया एवं ब्रह्म के रूप में देखा जा सकता है / गीता में सांख्य , न्याय , मिमांश , वेदान्त , वैशेषिका सब कुछ है और सब कुछ होनें से पढनें वाला भ्रमित भी होता है अतः गीता की यात्रा में होश को बनाए रखना ही गीता - ध्यान है / आइये देखते हैं गीता के कुछ सूत्रों को जिनके माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -------- गीता श्लोक –