गीता अमृत - 53

परम द्वार

[क] परस्तस्यातु भाव: अन्यः अब्याक्तात सनातनः ।
यः स सरवेषु भूतेषु नश्यत्सु न बिनश्यति ॥ 8।20 ॥
[ख] अब्यक्त: अक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्भाव परमं मम ॥ 8।21 ॥
[ग] पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततं ॥ 8।22 ॥

गीता के तीन श्लोक परम द्वार की ओर संकेत दे रहे है , यह कहते हुए की -------
अनन्य भक्ति से अब्यक्त भाव भरता है .......
अब्यक्त भाव में अब्यक्त अक्षर की धुन ह्रदय में भरती है .....
जब यह धुन ह्रदय से चल कर तीसरी आँख पर पहुंचती है .....
तब वह योगी तन , मन एवं बुद्धि से अपनें को अलग देखता है .....
जो योगी इस भाव दशा में अपना प्राण छोड़ता है उसे ....
परम गति के माध्यमसे परम पद मिलता है ।
मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है - परम पद पाना जिसके पानें से ....
मनुष्य आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

===== ॐ=====

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

मन मित्र एवं शत्रु दोनों है