गीता अमृत - 45
गीता का इशारा प्रभु की ओर
गीता कहता है .......
[क] गीता सूत्र - 10.21, 10.23
सूर्य , चन्द्रमा एवं अग्नि - मैं हूँ , ऐसी बात प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
[ख] गीता सूत्र - 7.8
सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रकाश , मैं हूँ - यह प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
[ग] गीता सूत्र - 9.19, 15.12, 7.9
सूर्य - चन्द्रमा के प्रकाशों का तेज एवं अग्नि का तेज , मैं हूँ ।
गीता कहता है ......
परमात्मा भावातीत एवं अविज्ञेय - अब्यक्तनीय है और अब इस बात के आधार पर विज्ञान की खोजों को देखिये की 19 वी एवं 20 वी शताब्दी के मध्य तक एवं आज तक वैज्ञानिक प्रकाश में क्या खोज रहे हैं ?और उनको क्या - क्या मिल रहा है ?
न्यूटन [ 1666 ] से जैक सरफती [ 1967 ] तक जिनमें नोबल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक जैसे आइन्स्टाइन ,लुईस ब्रागली , सी वी रमण , हेजेंनबर्ग , श्रोडिन्गर , एवं जैक सरफती आदि प्रकाश के माध्यम से जो पाया वह आज के विज्ञान की बुनियाद है लेकीन क्या ये लोग अपनी - अपनी खोजों से तृप्त हो पाए - जी नहीं हो पाए और अधिक अतृप्त हो कर आखिरी श्वास भरी - आखिर बात क्या थी ?
आइन्स्टाइन का सारा विज्ञान प्रकाश की गति पर केन्द्रित है और आज टी वी , ग्लोबल पोजीस्निंग आदि जैसी चीजें जो उपलब्ध हैं , आइन्स्टाइन के कारण हैं , लेकीन यह भी सत्य है की आइन्स्टाइन जैसा अतृप वैज्ञानिक शायद ही कोई और भी हो , आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
मैक्स प्लैंक जिनका heat quanta आज वीश्वीं शताब्दी के विज्ञान का केंद्र विन्दु बना हुआ है , वे कहते हैं --
विज्ञान प्रकृति को कभी भी नहीं पकड़ सकता , वैज्ञानिक की हर खोज उसे यह एह्शाश कराती है की तुम
जहां थे उसके आगे नहीं बल्कि दो कदम पीछे चले गए हो ... इतना बड़ा वैज्ञानिक इस तरह की अपनी
तनहाई ब्यक्त कर रहा है , आखिर कोई को कारण होगा ही ?
सीधी सी बात है - सोच की सीमा जहां समाप्त हो जाती है , सत्य की अनुभूति वहाँ होती है और तब वह सोची परम आनंद से परिपूर्ण हो कर अपनी अनुभूति को ब्यक्त करना चाहता है जो वह कर नहीं सकता क्योंकि उसकी अनुभूति बुद्धि स्तर पर नहीं होती , चेतना स्तर पर होती है जो अब्यकनीय होती है ।
गीता कहता है [ 12।3 - 12.4 ] -- ब्रह्म से तूं परिपूर्ण हो तो जाएगा लेकीन अपनी इस अनुभूति को कभी भी
पूर्ण रूप से ब्यक्त नहीं कर पायेगा और शांडिल्य ऋषि कहते हैं - प्रभु के सम्बन्ध में जो कुछ भी बोला जाता है , वह
सब इशारा मात्र होता है ।
प्रभु सत्य है , सत्य ही ब्रह्म है जो भावातीत एवं अब्यक्तनीय है लेकीन इसकी ऊर्जा तन , मन एवं बुद्धि
को तृप्त कर देती है ।
ज्ञान प्राप्ति पर ऋषि शारीरिक तौर पर भ्रमण करता हुआ मस्त रहता है जिसकी अलमस्ती लोगों को
खीचती है और ज्ञान प्राप्त वैज्ञानिक अपनी प्रयोग शाला में एक कैदी की तरह अपने को बंद करके
धीरे - धीरे तनहाई में डूबता चला जाता है । कहते हैं -- महाबीर को पसीना नहीं आता था और आना भी
नहीं चाहिए , वह जो परम ऊर्जा से परिपूर्ण हो उसे पसीना क्यों आयेगा , पशीना तो तनहाई का संकेत है ।
गीता एक मार्ग है जो जैसे - जैसे आगे बढ़ता है इससे दो मार्ग निकलते हैं - एक प्रयोगशाला की ओर
जाता है और एक परम धाम की ओर - आप जो चाहें चुन सकते हैं ।
======ॐ=======
गीता कहता है .......
[क] गीता सूत्र - 10.21, 10.23
सूर्य , चन्द्रमा एवं अग्नि - मैं हूँ , ऐसी बात प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
[ख] गीता सूत्र - 7.8
सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रकाश , मैं हूँ - यह प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ।
[ग] गीता सूत्र - 9.19, 15.12, 7.9
सूर्य - चन्द्रमा के प्रकाशों का तेज एवं अग्नि का तेज , मैं हूँ ।
गीता कहता है ......
परमात्मा भावातीत एवं अविज्ञेय - अब्यक्तनीय है और अब इस बात के आधार पर विज्ञान की खोजों को देखिये की 19 वी एवं 20 वी शताब्दी के मध्य तक एवं आज तक वैज्ञानिक प्रकाश में क्या खोज रहे हैं ?और उनको क्या - क्या मिल रहा है ?
न्यूटन [ 1666 ] से जैक सरफती [ 1967 ] तक जिनमें नोबल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक जैसे आइन्स्टाइन ,लुईस ब्रागली , सी वी रमण , हेजेंनबर्ग , श्रोडिन्गर , एवं जैक सरफती आदि प्रकाश के माध्यम से जो पाया वह आज के विज्ञान की बुनियाद है लेकीन क्या ये लोग अपनी - अपनी खोजों से तृप्त हो पाए - जी नहीं हो पाए और अधिक अतृप्त हो कर आखिरी श्वास भरी - आखिर बात क्या थी ?
आइन्स्टाइन का सारा विज्ञान प्रकाश की गति पर केन्द्रित है और आज टी वी , ग्लोबल पोजीस्निंग आदि जैसी चीजें जो उपलब्ध हैं , आइन्स्टाइन के कारण हैं , लेकीन यह भी सत्य है की आइन्स्टाइन जैसा अतृप वैज्ञानिक शायद ही कोई और भी हो , आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
मैक्स प्लैंक जिनका heat quanta आज वीश्वीं शताब्दी के विज्ञान का केंद्र विन्दु बना हुआ है , वे कहते हैं --
विज्ञान प्रकृति को कभी भी नहीं पकड़ सकता , वैज्ञानिक की हर खोज उसे यह एह्शाश कराती है की तुम
जहां थे उसके आगे नहीं बल्कि दो कदम पीछे चले गए हो ... इतना बड़ा वैज्ञानिक इस तरह की अपनी
तनहाई ब्यक्त कर रहा है , आखिर कोई को कारण होगा ही ?
सीधी सी बात है - सोच की सीमा जहां समाप्त हो जाती है , सत्य की अनुभूति वहाँ होती है और तब वह सोची परम आनंद से परिपूर्ण हो कर अपनी अनुभूति को ब्यक्त करना चाहता है जो वह कर नहीं सकता क्योंकि उसकी अनुभूति बुद्धि स्तर पर नहीं होती , चेतना स्तर पर होती है जो अब्यकनीय होती है ।
गीता कहता है [ 12।3 - 12.4 ] -- ब्रह्म से तूं परिपूर्ण हो तो जाएगा लेकीन अपनी इस अनुभूति को कभी भी
पूर्ण रूप से ब्यक्त नहीं कर पायेगा और शांडिल्य ऋषि कहते हैं - प्रभु के सम्बन्ध में जो कुछ भी बोला जाता है , वह
सब इशारा मात्र होता है ।
प्रभु सत्य है , सत्य ही ब्रह्म है जो भावातीत एवं अब्यक्तनीय है लेकीन इसकी ऊर्जा तन , मन एवं बुद्धि
को तृप्त कर देती है ।
ज्ञान प्राप्ति पर ऋषि शारीरिक तौर पर भ्रमण करता हुआ मस्त रहता है जिसकी अलमस्ती लोगों को
खीचती है और ज्ञान प्राप्त वैज्ञानिक अपनी प्रयोग शाला में एक कैदी की तरह अपने को बंद करके
धीरे - धीरे तनहाई में डूबता चला जाता है । कहते हैं -- महाबीर को पसीना नहीं आता था और आना भी
नहीं चाहिए , वह जो परम ऊर्जा से परिपूर्ण हो उसे पसीना क्यों आयेगा , पशीना तो तनहाई का संकेत है ।
गीता एक मार्ग है जो जैसे - जैसे आगे बढ़ता है इससे दो मार्ग निकलते हैं - एक प्रयोगशाला की ओर
जाता है और एक परम धाम की ओर - आप जो चाहें चुन सकते हैं ।
======ॐ=======
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