गीता अमृत - 42

गीता श्लोक - 8.11 - 8.15

सूत्र कहते हैं .......

[क] वेद जिनको ॐ , ओंकार एवं परम अक्षर कहते हैं ----

[ख] राग रहित योगी जिनमें प्रवेश करते हैं -----

[ग] ब्रह्मचारी जिनमें बसते हैं -----

उस परम पद को मैं बताता हूँ ।

गीता की इस बात के लिए हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए --------

4.12, 8.11 - 8.15, 8.20 - 8.22, 12.3 - 12.4, 13.30, 13.34, 14.19, 14.23,

15.5 - 15.6, 16.21 - 16.22, 18.55 - 18.56......... 21 श्लोक



जब आप ऊपर के सूत्रों को बार - बार अपनी बुद्धि में लायेंगे तो आप के मन - बुद्धि में यह भाव भरनें लगेगा .......

परम पद कोई स्थान नहीं है जिसकी लम्बाई , चौड़ाई एवं उचाई या गहराई को मापा जा सके । परम पद का भाव हैं निर्विकल्प मन - बुद्धि के साथ आत्मा का परमात्मा में मिल जाना । यहाँ एक बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए - जब तक मन - बुद्धि निर्विकार नहीं होते तब तक उस ब्यक्ति का आत्मा परमात्मा होते हुए भी परमात्मा से अलग रहता है । सविकार मन - बुद्धि आत्मा को बार - बार नया शरीर
धारण करनें के लिए बाध्य करते रहते हैं और निर्विकार मन - बुद्धि वाला आत्मा स्वयं परमात्मा होता है ।



गुण - तत्वों से जो मुक्त है वह सम - भाव योगी है और जब ऐसा योगी भावातीत की दशा में पहुंचता है अर्थात इस स्थिति में परमात्मा का भी भाव उसके अन्दर नही रहता तब वह योगी यदि स्वेच्छा से अपना शरीर त्यागता है तो उसके आत्मा का प्रभु में जो बिलय होता है उसे परम पद कहते है ।

परम गति , परम पद और परमं धाम यह सब अलग - अलग नाम एक स्थिति के हैं जहां योगी साक्षी के रूप में अपना शरीर त्यागता है । आज तक कोई ऐसा संत नहीं हुआ जो अपनें इस स्थिति को ब्यक्त करनें में सफल हुआ हो अतः यह स्थिति अब्यक्त स्थिति है ।



======ॐ=======

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