वेद जिज्ञासा - 2 वेद और प्रभु
वेद विभिन्न माध्यमों से मनुष्य के रुख को प्रभु की ओर मोड़ना चाहते हैं । सारी नदियाँ सागर से मिलना चाहती हैं और अपनें इस जिज्ञासा पूर्ति के लिए उन्हें घोर श्रम करना पड़ता है । आखिर वे सागर से क्यों मिलना चाहती हैं ? क्योंकि सागर उनका मूल है । सागर का पानी वाष्प बनकर आकाश में पहुँचता है । वहां से बूंद बनकर नीचे पृथ्वी पर गिरता है और फिर वहीँ बूंदें मिलकर एक साथ एक दिशा और एक लक्ष के लिए चल पड़ती हैं अपनें मूल श्रोत की तलाश में ।
अंततः नदियों के रूप में वहीँ बूंदें सागर से मिल जाती हैं । सागर से मिलते ही सारी नदियाँ सागर बन जाती हैं और उनका अपना - अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
क्या हम लोग परमात्मा में लीन हो कर परमात्मा नहीं बनना चाहते ! चाहते हैं लेकिन भोगकी रस्सियों में जकड़ा मनुष्य आगे चल नहीं पाता । मनुष्य के भोग बंधनों से मुक्त कराने के सारे उपाय वेद
करते हैं ।
ऋग्वेद प्रभु की अनुभूति हृदय में कराता है - देखिये नीचे दी गयी स्लाइड को । पहली स्लाइड के नीचे गीता के कुछ श्लोकों को दिया गया है जहाँ प्रभु की अनुभूति हृदय माध्यम से होने की बातें कहीं गयी हैं ।
गीता : 14.24 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , अर्जुन ! ध्यान माध्यम से शुद्ध हुयी बुद्धि से लोग मुझे अपने - अपने हृदय में देखते हैं ।
आगे चल कर हम देखेंगे कि साधना में हृदय को बुद्धि से अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है ? अब देखते हैं , स्लाइड को ⬇️
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