गीता अध्याय - 13 भाग - 15

गीता श्लोक - 13.22

उपद्रष्टा अनुमन्ता च भार्ता भोक्ता महेश्वरः /
परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः //

" अस्मिन देहे पुरुषः परः , उपद्रष्टा , अनुमन्ता , भर्ता , भोक्ता , महेश्वर च परमात्मा इति उक्तः "

" इस देह में पुरुष परम है , उपद्रष्टा  है , यथार्थ सम्मति देनेवाला है [ अनुमन्ता ] , धारण- पोषण कर्ता है [ भर्ता ] , भोगनें वाला है , महेश्वर है और उसे परमात्मा कहा जाता है " 

यहाँ इस सूत्र के साथ आप गीता के निम्न सूत्रों कोभी देख सकते हैं :-----
10.20 , 13.29 , 13.32 , 15.7 ,15.9 ,  15.11 , 

उपद्रष्टा शब्द ध्यान की दृष्टि से अपनी अलग जगह रहता है ; द्रष्टा वह होता है जो यह समझता है कि मैं देख रहा  हूँ , यहाँ देखनें के साथ मैं का भाव होता है और उपद्रष्टा  में मैं की अनुपस्थिति होती है और भाव रहित स्थिति में द्रष्टा दृष्य पर केंद्रित रहता है / देखनें का काम है आँखों का और आँखों को जो ज्योति देखनें को मिलती है वह देह में स्थित उप द्रष्टा से मिलती है / देह में दृष्य को देखनें वाला मूलतः मन है , मन गुणों का गुलाम होता है , जो गुण मन पर भावी होता है , मन दृष्य को उस भाव से देखता है / द्रष्टा कर्ता भी हो सकता है लेकिन उपद्रष्टा  कर्ता का द्रष्टा होता है , कर्ता का गवाह होता है / 

पुरुशब्द सांख्य - योग दर्शन का है लेकिन गीता में सांख्य - योग दर्शन को कुछ  अलग ढंग से प्रयोग किया गया है / गीता में पुरुष शब्द आत्मा , जीवात्मा , ब्रह्म , परमेश्वर , महेश्वर , परम के लिए किया गया है जबकि सांख्य योग में अस्तित्व को दो के सहारे समझा गया है ; प्रकृति और पुरुष / गीता में अस्तित्व का केंद्र एक है - परमात्मा , जिससे आत्मा है [ जीवात्मा ] , ब्रह्म है , प्रकृति है , माया है और माया के तीन गुण हैं / 
गीता में सांख्य , न्याय , भक्ति , मिमांश , वेदान्त , वैशेषिका सब कुछ देखा जा सकता है लेकिन कुछ अलग ढंग से / गीता का अध्याय - 13 मूलतः सांख्य योग दर्शन पर है लेकिन यहाँ सांख्य योग दर्शन को कुछ अलग ढंग से देखा गया है / 

गीता के माध्यम से स्थिर बुद्धि बनना एक सीधा ध्यान मार्ग है और जो गीता केंद्रित हो गया उससे अस्तित्व का राज ज्यादा दूर नहीं रहता / 

===== ओम् =====

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

मन मित्र एवं शत्रु दोनों है