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Showing posts from 2014

गीता में दो पल - 11

योग क्या है ?   # गीता श्लोक : 6.23 # ** यहाँ प्रभु कह रहे हैं :--- " दुःख संयोग वियोगं , योग सज्ज्ञितम् " भावार्थ दुःख के कारणों से वियोग होना ,योग है । <> अब देखना होगा , दुःखके कारण क्या - क्या हैं ? # चाह और अहंकार , दुःखके मूल कारण हैं । *अब सोचना है की चाह -अहंकार रहित जीवन कैसे हो ? <> इस प्रकार की स्थिति कुछ करनें से नहीं आ सकती अपितु जो हो रहा है ,वह गुणों की उर्जा से हो रहा है ,ऐसा समझनेंका अभ्यास कर्ताभाव के अहंकार से मुक्त करता है और धीरे -धीरे गुण साधना जब पकती है तब दुःख के सभीं कारणों जैसे आसक्ति ,काम ,कामना ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,भय ,आलस्य और अहंकार से मुक्त स्थिति मिलती है जिसको कहते हैं :--- सुख संयोग वियोगः इति योगः ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल - 10 (शब्द से सृष्टि )

तत्त्व - ज्ञान   " In the beginning was the word , and the word was with God , and the word was God . "   ~~ John 1:1 > First verse in the Gospel ~~  ** प्रारंभ में शब्द था ,   ** शब्द प्रभु के साथ था ,  ** शब्द ही प्रभु था ।  <> गोस्पेलके माध्यम से क्या कहना चाह रहे हैं ?   # अब देखते हैं भागवत क्या कह रहा है ?  ## भागवत में इस सम्बन्ध में ब्रह्मा , मैत्रेयऋषि , कपिल मुनि और प्रभु कृष्ण क्रमशः स्कन्ध - 2 , 3 , 3 और 11 में निम्न बात कहते हैं ।  ## : तीन गुणों की माया से काल के प्रभाव में पहले महत्तत्व की उत्पत्ति होती है ।  ** : महत्तत्त्व पर काल का प्रभाव तीन प्रकार के अहंकारों को पैदा करता है ।  # : सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति है ।  * : राजस अहंकार से इन्द्रियाँ और बुद्धि उपजती हैं ।   ** : तामस अहंकार से शब्द की उत्पत्ति है   और :---  शब्द से अन्य चार तन्मात्र ( स्पर्श, रूप , रस और गंध ) एवं उनके अपनें -अपनें महाभूतों जैसे आकाश , वायु , तेज , जल और पृथ्वी की रचना होती है । शब्दसे निराकार उर्जा साकार रूप में दृश्य के रूप में अब्यक्त से ब्यक्त होती है । अब्यक्त

गीता में दो पल - 9

* 24 तत्त्वों का बोध साकार उपासना है । 10 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत , 5 तन्मात्र और 4 अन्तः करण ( मन + बुद्धि + चित्त + अहंकार ) - ये हैं साधना के 24 तत्त्व । * ऊपर ब्यक्त 24 तत्त्वों की साधन सगुन ब्रह्म की साधना है । * जब यह साधना पकती है तब वह साधक स्वतः निर्गुण ब्रह्म - साधना में होता है । * निर्गुण ब्रह्म साधक,काल का बोधी होता है । * काल का बोधी माया का द्रष्टा होता है । * ऐसे साधक दुर्लभ होते हैं । ~~~ ॐ ~~~

गीता में दो पल - 8

<> महतत्त्व क्या है ? भाग - 2 <>  ● पिछले अंक में महतत्त्व सम्बंधित कुछ बातों में मूल बात थी कि महतत्त्व प्रभु से प्रभु में एक ऐसी सनातन उर्जा का माध्यम है जो ब्रह्माण्ड के दृश्य वर्ग के होनें का मूल श्रोत है ।  <> अब आगे <>  ● भागवत : स्कन्ध - 2 , 3 और 11 ।  * भागवत के ऊपर ब्यक्त तीन स्कंधों में ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल मुनि और प्रभु कृष्ण के सृष्टि - विज्ञान को ब्यक्त किया गया है ।  * सांख्य -योग आधारित ब्रह्मा ,मैत्रेय , कपिल एवं कृष्ण द्वारा ब्यक्त सृष्टि - विज्ञान कहते हैं :---  <> प्रभु से प्रभु में तीन गुणोंका एक सनातन माध्यम है जिसे माया कहते हैं ।  <> प्रभुका एक रूप कालका भी है जो माया में गति एवं गतिके माध्यमसे परिवर्तन लाता रहता है ।  <> सृष्टि में सबसे पहले मूल तत्वों की उत्पत्ति होती है जिन्हें सर्ग कहते हैं ।  <> सर्गों से ब्रह्मा सृष्टि का विस्तार करते हैं जिसे विसर्ग  कहते हैं ।  <> सर्गों की उत्पत्ति ही मूल तत्वों की उत्पत्ति है <>  ● माया पर निरंतर काल का प्रभाव पड़ता रहता है और इस प्रभाव में माया से महतत्व

गीता में दो पल -7

प्रभु से प्रभु में माया है जो प्रभु की ही एक उर्जा का माध्यम है और जिससे एवं जिसमें वे सभीं मूल तत्त्व है जिनसे दृश्य वर्ग का होना , रहना और समाप्त होना का चक्र चलता रहता है। 1-  संसार में जो परिवर्तन होता दिखता है , वह समय के होनें की सूचना है । 2- समय को प्रभु का एक ऐसा माध्यम है जिसके होनें की कल्पना प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों से किया जाता है । 3- माया से काल (समय ) के प्रभाव में प्रभु की मूल प्रकृति है जिसे महतत्त्व कहते हैं । 4- दशांगुल - न्याय में कहा गया है कि :---- 4.1 : ब्रह्माण्ड के सात आवरण हैं ; पृथ्वी ,जल , अग्नि , वायु , आकाश , अहंकार और महतत्त्व जिसे मूल प्रकृति कहते हैं । 4.1.1 : पृथ्वी से दसगुना पानी है । 4.1.2 : पानी से 10 गुना अग्नि है । 4.1.3 : अग्नि से 10 गुना वायु है । 4.1.4 : वायुसे 10 गुना आकाश है । 4.1.5 : आकाश से 10 गुना अहंकार है । 4.1.6 : अहंकारसे 10 गुना महतत्त्व है । <> महतत्त्व  सर्व आत्मा प्रभु का चित्त है  (भागवत: 2.1.35 ) । ## अगले अंक में गीता -तत्त्व विज्ञान के कुछ और तत्त्वों को स्पष्ट किया जाएगा ।। ~~ ॐ ~~

जीव कण क्या है ?

# श्रीमद्भागवद्गीता , श्रीमद्भागत पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराणके आधार पर कुछ ऐसी बातें यहाँ दी जा रही हैं जिनका सम्बन्ध जीव और पदार्थ निर्माण से है । आज हर वैज्ञानिक चाहे वह भौतिक शास्त्री हो , चाहे ,रसायन शास्त्री हो या कोई अन्य ,सभीं जीव निर्माणकी सोच पर केन्द्रित हैं ।  # प्रो. एल्बर्ट आइन्स्टाइन 1995 - 1902 के मध्य जब गणित - कोस्मोलोजी को एक नयी दिशा देनें में केन्द्रित थे तब उनको कहीं से गीता मिल गया और जब उनकी नज़र अध्याय - 7,8,13 और 14 के कुछ श्लोकों पर केन्द्रित हुयी तब उनसे रहा न गया और बोल उठे :----  " When I read Bhagavad Gita and reflect about how God created this universe , everything else seems so superfluous ." # भागवत में कृष्ण ,ब्रह्मा , मैत्रेय और कपिल के सृष्टि विज्ञान दिए गए हैं । इनके सृष्टि विज्ञान में कहा गया है :---  " 1- प्रभु से प्रभु में उनकी तीन गुणों वाली माया एक माध्यम है जो सनातन एवं सीमा रहित है और जो हृदय की भाँति धड़क ( pulsate ) रही है । इसकी धड़कन कालके कारण है ; काल अर्थात समय ( Time ) जो परमात्माका एक निर्मल क्वान्टा है । माया अर्थात spa

गीता में दो पल - 6

<> बुद्धि कैसे स्थिर होती है ? भाग - 1 <>  ● देखिये गीता श्लोक : 2.64 + 2.65 ●  1- श्लोक : 2.64 > " जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष अप्रभावित रहती हुयी बिषयों में विचरती रहती हैं , वह नियोजित अन्तः अन्तः करण वाला प्रभु प्रसाद प्राप्त करता है ।"   # अन्तः करण क्या है , और प्रसाद क्या है ? यहाँ अन्तः करण के लिए देखें :--   * भागवत : 3.26.14 * और प्रसादके लिए गीता श्लोक : 2.65 ।  भागवत कहता है , " मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्तको मिला कर अन्तः करण बनता है ।" चित्त क्या है ? मन की वह निर्मल झिल्ली जहाँ गुणोंका प्रभाव नहीं रहता ।मनुष्यके देह में गुणों से निर्मित तत्त्वों में मात्र मन एक ऐसा तत्त्व है जो सात्विक गुण से निर्मित  है ।  2- गीता श्लोक : 2.65 > " प्रभु प्रसाद से मनुष्य दुःख से अछूता रहता है और ऐसे प्रसन्न चित्त ब्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है । "   <> स्थिर बुद्धि वाला ब्यक्ति स्थिर मन वाला भी होता है ।  <> स्थिर बुद्धि दुखों से दूर रखती है ।  <> स्थिर बुद्धि वाला प्रभु केन्द्रित रहते हुए परम आनंद में मस्त रहता है ।  ●

गीता में दो पल - 5

1- असीम बुद्धि मिली हुयी है ,आप को । यक़ीनन यह पल आपको दुबारा नहीं मिलनें वाला , जितनी दूरी तय कर सकते हो , कर लो ,बादका पछतावा आपके काम न आयेगा ।अनंतकी यात्राके लिए आप बुद्धि मार्गको अपनाया है और आज बुद्धि प्रधान युग चल रहा है , आपके कदम हैं तो सही मार्ग पर यह मार्ग हैं , दुर्गम । 2- बुद्धि मार्गी धीरे - धीरे पहले बाहर से अकेला होता जाता है और जब पूर्ण एकांत उसे भा जाता है तब --- 3- उसकी साधनाका अगला चरण प्रारम्भ होता है। अगले चरण में अन्दर से रिक्त होना प्रारम्भ हो जाता है। 4- बाहरकी रिक्तताको समझना बहुत आसान तो नहीं लेकिन समझा जा सकता है लेकिन अन्दरकी रिक्तता मनुष्य को द्विज बना रही होती है । ** द्विज क्या है ? द्विज का अर्थ है , दुबारा जन्म लेना । दुबारा जन्म वही ले सकता है जो पहले मरे और कोई मरनें को कितनी आसानी से स्वीकार सकता है ,यह सोचका बिषय है । 5- अन्दरकी रिक्ततामें दो द्वार खुलते हैं ; एक सीधे बोधिसत्व में पहुँचाता है और दूसरा द्वार जिसके आकर्षणसे बचना अति कठिन होता है , वह पागलपन में पहुँचाता है । ** आप अपनें बुद्धि - योग साधना में हर पल होश बनाए रखें । ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल - 4

1- कामना , क्रोध , लोभ और मोह का गहरा सम्बन्ध है अहंकार से । 2- अहंकार कामना , क्रोध , लोभ और मोह का प्राण है , ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा । 3- कामना , क्रोध , लोभ और मोह ये भोग की रस्सियाँ हैं जिनमें मोह रस्सी की लम्बाई सबसे अधिक होती है और मोटाई सबसे कम । 4- मोह तामस गुण का तत्त्व है और तामस गुण के प्रभावी होनें पर जब किसी की मौत होती है तो उसे अगली कीट , पतंग और पशु में से कोई एक योनि मिलती है (गीता - 14.8+14.15 ) । 5- तुलसी दास कृत रामचरित मानस से ऐसा लगता है कि सम्राट दशरथके प्राण घोर मोह में निकले थे । 6- मोह की दवा सत्संग है ,भागवत ऐसी बात कहता है लेकिन सत्संग में दो होते हैं ; एक सत और दुसरे वे जो सत के जिज्ञासु हैं । सत पुरुष तो पारस होता है पर होता दुर्लभ है । यदि पारस हो भी तो क्या होगा उसके पास जानें से अगर हम लोहा नहीं हैं क्योंकि पारस केवल लोहे को सोना बनता है , गोबरको नहीं । 7- भागवत में कहा गया है कि गंगा पृथ्वी पर उतरनें से पहले एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि जब मैं पृथ्वी पर रहूंगी तो लोग अपनें - अपनें पाप धो - धो कर मेरी निर्मलता समाप्त कर देंगे अतः मैं वहाँ नहीं

गीता में दो पल भाग - 3

* भोग - कर्म योग - कर्ममें पहुँचा सकता है । * योग - कर्म , योग सिद्धि में पहुँचाते हैं । << और अब आगे >> * मनुष्यका कर्म जीवन की जरुरत को पूरा करनेंका हेतु तो है लेकिन यह भोग से योग में पहुँचानें का भी एक सरल माध्यम है । भोग में भोग तत्त्वों के प्रति होश बनाना ही कर्म योग है ।कर्म में कर्म तत्त्वों की गांठों को खोलना ,योग या ध्यान है । योग जब उपजता है यब कर्म तत्त्वों की पकड़ समाप्त हो जाती है। कर्म - तत्त्वों की पकड़ जब नहीं होती तब भोग के प्रति वैराग्य हो जाता है । वैराग्य में ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान परम सत्य का आइना होता है । * इतनी सी बात यदि गहराई से पकड़ी जा सके तो परम सत्यकी किरण दिखनें लगती है । <> अब ज़रा इन बातों को पकड़ें <> * भोग से भोग में हम हैं --- * भोगमें भोग तत्त्वों की गाठों को हमें खोलना है --- * निर्ग्रन्थ की स्थिति को योग सिद्धि कहते हैं --- * योग सिद्धि प्रभुका खुला द्वार है ।। ~~ ॐ ~~

गीता में दो पल भाग - 2

1- गीता - 3.5+18.11 > कोई जीवधारी एक पल केलिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता ।कर्म करनें की उर्जा गुणों से मिलती है और गुणों में लगातार हो रहे परिवर्तन का परिणाम है कर्म । 2- गीता - 14.10 + 18.60 > सात्त्विक ,राजस और तामस ये तीन गुण मनुष्य में सदैव रहते हैं जिनसे उस मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है। 3- गीता - 5.22+18.38 > इन्द्रिय -बिषय के योग से जो होता है वह भोग है । भोग - सुख भोग के समय अमृत सा भाषता है पर उसका परिणाम बिष समान होता है ।कोई ऐसा कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो पर सहज कर्मों को तो करना ही चाहिए । 4- गीता - 18.48- 18.50 तक > आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परानिष्ठा है । 5- गीता - 13.2 > ज्ञान वह जो प्रकृति -पुरुष का बोध कराये । 6- गीता - 3.37+14.6-14.8+14.12+14.13+14.22> आसक्ति ,काम ,कामना ,क्रोध , लोभ ,मोह , आलस्य ,और भय - ये गुणतत्त्व हैं जिनको भोग तत्त्व भी कहते हैं । 7- गीता - 7.14 > तीन गुणों के माध्यम को माया कहते हैं । 8- गीता - 7.15 > माया प्रभावित ब्यक्ति आसुरी प्रकृति का होता है । 9-

गीता में दो पल ( भाग - 1 )

1- भोग - सम्मोहनकी गहराईको समझना योग है । जबभी हम भोगकी ओर पीठ करना चाहते हैं वह झटसे अपनी ओर रुखको मोड़ लेता है और इस प्रक्रियामें इतना कम समय लगता है कि हम इसके प्रति अनभिज्ञ ही बने रहजाते हैं । 2- भोगकी वह कौन - कौन सी रस्सियाँ हैं जिनके माध्यम से वह हमें बाध कर रख रक्खा है ? 3- रस्सियाँ तो तीन हैं जिनको तत्त्व - ज्ञानी गुण कहते हैं ; जिनमें से दो देहमें नाभि और उसके नीचे सक्रीय रहते हैं और एक हृदय और हृदयके ऊपर वाले चक्रों पर सक्रीय रहता है जैसे हृदय , कंठ , आज्ञाचक्र और सहस्त्रार । 4- भोगसे बाधनें वाली मजबूत दो रस्सियों को तत्त्व ज्ञानी राजसगुण और तामसगुण कहते हैं और तीसरी वह रस्सी है जो अहंकारके प्रभाव में भोग से जोडती है अन्यथा वह निर्मल निर्विकार उर्जा के संचारका माध्यम है जिसे कहते हैं , सात्त्विक गुण ।सात्त्विक गुण में पहुँचना वह स्थिति है जो भोग - योगका जोड़ है , जहाँ से पीछे भोगकी ओर मुड़ना अति आसान और आगे निराकार , अब्यक्त और अप्रमेयकी यात्रामें उतरना अति कठिन । 5- तत्त्व ज्ञानी कृष्ण कहते हैं ( गीता - 14.5 ) : आत्मा देह में तीन गुणों द्वारा बधी है ; जब साधक गुणातीत हो

गीता में प्रभु के वचन

<> आसक्ति भाग - 04 <>  ● यहाँ गीताके कुछ चुने हुए सूत्रों को लिया जा रहा है जिनका सीधा सम्वन्ध आसक्ति से है ।  1-गीता - 2.48 > आसक्ति रहित कर्म , समत्व योग है ।  2-गीता -3.19+3.20 > अनासक्त कर्म प्रभुका द्वार खोलता है ।  3-गीता - 4.22 > समत्व योगी कर्म -बंधन मुक्त होता है । 4- गीता - 5.10 > आसक्ति रहित कर्म करनें वाला भोग संसार में कमलवत रहता है ।  5-गीता - 18.23 > आसक्ति , राग और द्वेष रहित कर्म , सात्विक कर्म होते हैं ।  6- गीता - 18.49 > अनासक्त कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ।  7- गीता - 18.50 > नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।  8- गीता - 2.62 > मन द्वारा बिषयों का मनन उस बिषय के प्रति आसक्ति पैदा करता है ।  9-गीता - 3.34 > सभीं बिषयों में राग -द्वेष की उर्जा होती  है ।  10-गीता - 2.56 + 4.10 > राग ,भय और क्रोध रहित ज्ञानी होता है ।  <> आसक्ति इन्द्रिय , बिषय और मन ध्यान की पहली रुकावट है <> <> कर्मयोग - साधना में आसक्ति की साधना पहली साधना है ।  <> आसक्ति की साधना जब पकती है तब योग घटित होता

आसक्ति को समझो

<> आसक्ति क्या है ? गीताके माध्यम से आसक्ति जो समझनें हेतु गीता के कुछ सूत्रों को यहाँ दिया जा रहा है ,आप इन सूत्रोंको  अपनें ध्यानका श्रोत बना सकते हैं ।  ● गीता श्लोक : 2.48+2.56+2.60+2.62+2.63+ 3.19+3.20+3.25+3.34+4.10+ 4.22+5.10+5.11+18.23+18.49+18.50  **  गीताके ऊपर दिए गए 16 श्लोकोको  यहाँ देखते हैं :---  1-● सूत्र - 2.48 :  योगस्थ: कुरु कर्माणि संगम् त्यक्त्वा धनञ्जय।  सिद्धयसिद्धयो : समः भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।  " आसक्ति रहित मनकी स्थिति समत्व योग की स्थिति है जहाँ अनुकूल - प्रतिकूल परिस्थितियों से मन -वुद्धि प्रभावित नहीं होते।"   " Action without attachment maintains the evenness of mind and this state of mind is called Evenness Yoga . "  2-● सूत्र - 2.56 :  दुखेषु अनुद्विग्नमना : सूखेषु विगतस्पृह : ।  वीत राग भय क्रोधः मुनिः स्थितधी: उच्यते ।।  " राग ,भय ,क्रोध रहित सुख -दुःख से अप्रभावित स्थिर - बुद्धि योगी होता है ।"  " man of equality and free from  moledy , anger and fear is Steadfast Yogin . "  3-● सूत्र - 2.60 :  य

गीता में महात्मा शब्द

<> गीता - 11.50 + 17.74 <>  ** गीता - 11.50 में संजय प्रभु कृष्ण केलिए महात्मा शब्द का प्रयोग किया है ।  ** गीता - 18.74 में संजय अर्जुन को महात्मा शब्द से संबोधित करते हैं ।आइये ! देखते हैं महात्मा शब्द को ।  <> गीता अध्याय - 11 के अंत में ( श्लोक -11.45 से श्कोक 11.55 तक ) अर्जुन प्रभु का चतुर्भुज विष्णु रूप देखना चाहते हैं और जब देख लेते हैं तब प्रभु अपनें सामान्य रूप में आजाते हैं ।प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन इस संसार में किसी भी तरह मेरे इस रूप को कोई नहीं देख सकता जिस रूप को तूँ देख रहा है। प्रभु इतना कह कर अपनें सामान्य रूप में आजाते हैं । संजय भी प्रभु के चतुर्भुज स्वरुप को देखते हैं और चतुर्भुज स्वरुप देखनें के साथ प्रभको महात्मा शब्दसे संबोधित करते हैं अर्थात महात्मा शब्द विष्णुका संबोधन है।  ** गीता अध्याय - 18 के अंत में प्रभु अर्जुन से पूछते हैं , हे अर्जुन क्या शांत मन से मेरे संबाद को सुना और क्या तुम्हारा अज्ञान जनित मोह समाप्त हुआ ( गीता - 18.72 ) ? प्रभु की इस बात पर अर्जुन कहते हैं ( गीता - 18.73 ) आप की कृपा से मेरा मोह समाप्त गो गया है , मैं अपनी ख

गीता अध्याय - 07

Title :गीता अध्याय - 7 Content: गीता अध्याय - 7 ** अध्याय में कुल 30 श्लोक हैं और सभीं श्लोक प्रभु श्री कृष्ण के हैं । ** यह अध्याय अर्जुन के प्रश्न -7 ( श्लोक - 6.37 + 6.38 - 6.39 ) के उत्तर रूप में बोला गया है ,अर्जुन अपनें प्रश्न में पूछते हैं :- -- " श्रद्धावान पर असंयमी योगी का योग जब खंडित हो जाता है तब वह भगवत् प्राप्ति न करके किस गति को प्राप्त करता है ? # इस अध्यायमें प्रभु अपनें 22 श्लोकोंके माध्यम से अर्जुनको सविज्ञान -ज्ञान रूप में यह बता रहे हैं कि हे अर्जुन तुम निराकार मुझको साकार माध्यमों से कैसे समझ सकते हो ? पहले प्रभुके उन श्लोकों को देखते हैं जिनका सम्बन्ध इस प्रसंग से है ।सविज्ञान ज्ञानका भाव है साकारसे निराकार में पहुँचना । <> श्लोक : 7.3+7.6 - 7.17 तक + 7.21- 7.7.26 तक + 7 7.28-7.30 तक -कुल 22 श्लोक । ^^अब इन श्लोकों में यात्रा करते हैं ।^^ * श्लोक : 7.3 > हजारों ऐसे लोग जो मुझे समझनें का यत्न करते हैं उनमें एकाध को सिद्धि भी मिल जाती है पर हजारों सिद्धोंमें कोई -कोई मुझे तत्त्व से समझ पाता है । तत्त्वसे समझना क्या है ? तत्त्व से समझना अर्थात

गीता तत्त्व - 6

यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजति अन्ते कलेवरम् ।  तम् तम् एव एति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।  ~~ गीता - 8.6 ~~  <> यहाँ युद्ध क्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कह रहे हैं ? ,आप इसे ध्यान -बिषय पर एकांत में  सोचना ।<>  °° ज़रा सोचना °°  ^ अभी युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ ,अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा है ,अभी किसी भी पल युद्ध प्रारम्भ हो सकता है ,ऐसा युद्ध जिसमें औसतन 218700 लोग प्रति दिन मरनें वाले हैं और ऐसे समय नें कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं :---  ** हे अर्जुन! मौत की घटना जब घट रही हो तब मनुष्यके मनमें हो गहरे भाव उठ रहे होते हैं उनके आधार पर उसका अगला जन्म होता है ।**  ^ प्रभु श्री कृष्ण का यह सूत्र इतना स्पष्ट है कि उसकी यदि और स्पष्ट किया जाय तो इसका मूल स्वरुप बदल सकता है अतः आप स्वयं इसे समझनेंका प्रयत्न करें ।^   ** मौतके समय मनमें उठ रहे गहरे भाव , यह तय करते हैं कि उस मृतक को अगला जन्म कैसा मिलेगा ।  ** लौकिक और वैदिक दोनों प्रबृत्ति परक कर्म मनुष्य को संसारकी प्राप्ति कराते हैं **  > सुखदेव जी : भागवत : 5.14 < ~~ ॐ ~~

गीता - अमृत ( दो शब्द )

दो शब्द :  जब - जब गीताके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ , ऐसा लगनें लगता है जैसे कोई मुझे रोक रहा हो और यह कह रहा हो कि  मुर्ख ! यह क्या करनें जा रहे हो ?   * क्या जो तुम लोगों को बतानें की तैयारी कर रहे हो , उसे स्वयं ठीक -ठीक समझ पाए हो ?  * क्या तुम्हें यह पक्का यकीन है कि तुम जिस बीज को बोना चाह रहे हो वह पूरी तरह से पक चूका है ?  * इस प्रकार कुछ और मौलिक प्रश्न मेरे मन -बुद्धि पर डूब घास की तरह छा जाते है और मैं इस सम्बन्ध में आगे नहीं चल पाता लेकिन आज हिम्मत करके दो -एक कदम चलनें की कोशिश में हूँ और उम्मीद है कि इस मूक गीता -यात्रा में आप मेरे संग प्रभु की उर्जा के रूप में रहेंगे । आइये ! अब हम और आप गीताकी इस परम शून्यताकी यात्रामें पहला कदम उठाते हैं और यदि यह पहला कदम ठीक रहा तो अगले कदम स्वतः उठते चले जायेंगे ।  <> गीतामें सांख्य योगके माध्यमसे कर्म-योग की जो बातें प्रभु अर्जुन को बताते हैं , उन्हें जीवनमें अभ्यास करनेंसे सत्यका स्पर्श होता है लेकिन तर्कके आधार पर उन पर सोचना अज्ञानके अन्धकार में पहुँचाता है ।  <> गीता जैसा कहता है , वैसा बननेंका अभ्यास करो , गी

गीता एक सन्देश है

^ भागवत में ( भागवत : 1.4 ) कहा गया है कि एक दिन व्यास जी सरस्वती के तट पर स्थित अपनें आश्रम पर सुबह -सुबह किसी गहरी चिंता में डूबे हुए थे । नारदजीका आगमन हुआ और नारद जी व्यास जी को सलाह देते हुए कहते हैं ,मैं आपकी चिंताका कारण समझ रहा हूँ । आप प्रभु श्री कृष्ण की लीलाओं का ऐसा वर्णन करे जो लोगों को भक्ति माध्यम से प्रभुमय बनानें में सक्षम हो । ^^ व्यासजी नारदजी की बात को समझ गए और भागवत की रचना हेतु समाधि -योग माध्यममें पहुँच गए । जब 18000 श्लोकों का भागवत पूरा हुआ तब वेदव्यास जी सबसे पहले अपनें 16 वर्ष से कुछ कम उम्र के पुत्र श्री शुकदेव जी को सुनाया ।भागवत पुराण 18 पुराणों में से एक है ।महाभारत की कथा व्यास जी भागवत से पहले लिखी थी जिसमें गीता महाभारतके भीष्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 6.25 - 6.6.42 के मध्य है । * भागवत को भक्ति रस का समुद्र समझ जाता है और गीता सांख्य -योग के आधार पर कर्म माध्यम से भक्ति में और भक्ति से वैराग्य में तथा वैराग्य में ज्ञान माध्यम से तत्त्व -ज्ञानी के रूप में आवागमन से मुक्त होनें का एक वैज्ञानिक मार्ग दिखाता है । ** पहली बात : भक्ति केलिए सीधा कोई मार

गीता कहता है

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क्या करोगे जान कर /

<> यही रहस्य है <>  * जीवनको समझते -समझते जीवनका अंत आजाता है और हमें जीवनका स्वाद तो नहीं मिल पाता ,पर जो हमारे साथ जाती है वह है घोर अतृप्तता । गीता में प्रभु कृष्ण कहते हैं , देह त्याग कर जब आत्मा चलता है तब उसके साथ मन - इन्द्रियाँ भी होती हैं । भागवत (स्कन्ध - 2,3,11) कहता है , सात्विक अहंकार कालके प्रभाव में मन की उत्पत्ति करता है और 10 इन्द्रियाँ राजस अहंकार एवं कालके सहयोग से उत्पन्न होती हैं ।मनुष्य के देह में मन की स्थिति वैसी होती है जैसे हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स की स्थिति होती है । सृष्टि प्रारम्भ से आजतक का इन्द्रियों का अनुभव मनमें संचित होता है और सघन अतृप्त अनुभव मनुष्य के अगले योनिको निर्धारित करता है ।  * पढ़ लेंगे तब , कारोबार सेट हो जाएगा तब , बच्चे हो जायेंगे तब , बच्चे बड़े होजाएंगे तब , बच्चों का ब्याह हो जाएगा तब ,इस तब के इन्तजार में जीवन नौका कब और कहाँ अपनीं परम यात्रा पर निकल जाती है ,हमें भनक तक नहीं मिल पाती और हम उसकी यात्रा के मूक दर्शक बन जाते हैं । मन इन्द्रियों के साथ आत्मा यात्रा पर होता है ,हमारा प्यारा शरीर जिसे हम कौन सा सुख नहीं देना

गीता तत्त्व भाग -5

●● पढो और मनन करो ●● 1- प्रभु ! किसी की नज़र आप पर टिके या न टिके पर आपकी नज़र सब पर समभाव से होती है । 2-सत्यकी खोज इन्द्रियोंसे प्रारम्भ होती है पर इन्द्रियों तक सीमित नहीं । 3- जिस घडी तन - मन दोनों प्रभुको समर्पित हो गए उसी घडी अनन्य भक्तिकी लहर उठनें लगती है । 4- चलना तो होगा ही , सभीं चल रहे हैं ,ज्यादातर लोगोंकी चाल में चाह की उर्जा होती है जो भोग में रखती है पर बिना चाह की चाल प्रभु की ओर लेजाती है । 5-सभीं जल्दीमें हैं , सबको फ़िक्र है की इतना सारा काम इस छोटे से समयमें कैसे हो सकेगा ? 6 - वेश - भूषासे चाहे जो बन लो , लोगों द्वारा चाहे जो उपाधि प्राप्त कर को जैसे जगत गुरु , योगाचार्य  कृपाचार्य या शंकराचार्य लेकिन ह्रदयके रूपांतरण बिना भक्तिका रस पाना संभव नहीं और हृदयका रूपांतरण ही प्रभुका प्रसाद है जो किसी - किसी को मिल पाता है । ~~~ ॐ ~~~

गीता तत्त्व भाग - 4

# मन की उत्पत्ति सात्त्विक अहंकार से है , इन्द्रयाँ एवं बुद्धि राजस अहंकार से हैं ,मन विकारों का पुंज है और मन के बृत्तियों का द्रष्टा बन जाना ब्रह्म से एकत्व स्थापित करता है तथाऐसे योगी को कृष्ण गीता में ब्रह्मवित् योगी कहते हैं ।  # भागवत कहता है , मनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे है और गीतामें प्रभु कृष्ण कहते हैं - इन्द्रियाणां मनः अस्मि लेकिन मनुष्य और परमात्माके मध्य यदि कोई झीना पर्दा है तो वह है मन ।   # मन जब गुणोंके सम्मोहन में होता है तब मनुष्यकी पीठ प्रभुकी ओर रखता है और जब गुणातीत होता है तब एक ऐसे दर्पणका काम करता है जिस पर जो तस्बीर होती है वह प्रभुकी तस्बीर होती है ।   # मनको निर्मल रखना ध्यान कहलाता है औए ध्यान बिधियोंके अभ्यासके माध्यमसे मनको निर्मल रखा जाता है । ध्यानके दो चरण हैं ,पहले चरण में इन्द्रियों एवं उनके बिषयों के सम्बन्ध को समझना होता है । इन्द्रिय -बिषय संयोग भोग है और गुणोंके प्रभावमें जो भी होता है उसे भोग कहते हैं । भोग सुख क्षणिक सुख होता है जिसमें दुःखका बीज पल रहा होता है ।मन ध्यानका दूसरा चरण तब प्रारंभ होता है जब पहला चरण पक जाता है , दूसरा चरण तब

गीता तत्त्व भाग - 3

गीता तत्त्व भाग - 3 1- प्राण वायुका नियंत्रण मन जो निर्मल रखता है । 2- गुणोंके प्रभावके कारण मनुष्यके स्वाभाव नें भिन्नताएँ दिखती हैं । 3- राग - द्वेष रहित मन परमात्माका घर होता है । 4- मोह और असंतोष आपस में मिलकर काम करते हैं । 5- बुद्धिमान व्यक्ति एक भ्रमर जैसा होता है जो सभीं जगहों से सार इकठ्ठा करता है । ~~~ ॐ ~~~

गीता चालक नहीं संचालक है

● गीता वैराग्यका द्वार खोलता है ●  <> गीता एक संचालक है चालक नहीं ;  संचालक ( operator ) उसे कहते हैं जो चलनें वाले और उन नियमोंको समझता है जो चलनें वालेको चला रहे हैं तथा चालक उसे कहते हैं जो चलाना तो जानता है लेकिन चलनें में जो नियम काम कर रहे होते हैं , उनके सम्बन्ध में अनभिज्ञ होता है ।अंगरेजी में दो शब्द है -operator एवं driver ; ओपरेटर संचालक केलिए और ड्राइवर चालक केलिए प्रयोग किया जाता है ।  <> गीता कहता है - कर्म किये बिना कोई भी जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता चाहे वह देव हो , दानव हो , मनुष्य हो या फिर अन्य कोई जीव यह तो एक सूत्र है जो जीवोंके जीवनका चालक है लेकिन सभीं जीव एक जैसे तो नहीं । मनुष्यके पास वह उर्जा है जो उसे प्रश्नोंमें उलझा कर रखती है और एक पल चलता हुआ मनुष्य रुक जाता है ,सोचनें लगता है की बाएं चलूँ या दायें और यह उसकी स्थिति -ना या हाँ के मध्य की स्थिति होती है ।ना और हाँ के मध्य की स्थिति में जब मन - बुद्धि तंत्र होता है तब उसमें संदेह , भ्रम और समभाव इन तीन में से कोई एक उर्जा बह रही रही होती है । गीता कहता है , संदेह तामस गुण एवं कुछ कमजोर अहंका