गीता में दो पल भाग - 2

1- गीता - 3.5+18.11 > कोई जीवधारी एक पल केलिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता ।कर्म करनें की उर्जा गुणों से मिलती है और गुणों में लगातार हो रहे परिवर्तन का परिणाम है कर्म ।
2- गीता - 14.10 + 18.60 > सात्त्विक ,राजस और तामस ये तीन गुण मनुष्य में सदैव रहते हैं जिनसे उस मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है।
3- गीता - 5.22+18.38 > इन्द्रिय -बिषय के योग से जो होता है वह भोग है । भोग - सुख भोग के समय अमृत सा भाषता है पर उसका परिणाम बिष समान होता है ।कोई ऐसा कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो पर सहज कर्मों को तो करना ही
चाहिए ।
4- गीता - 18.48- 18.50 तक > आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
5- गीता - 13.2 > ज्ञान वह जो प्रकृति -पुरुष का बोध कराये ।
6- गीता - 3.37+14.6-14.8+14.12+14.13+14.22> आसक्ति ,काम ,कामना ,क्रोध , लोभ ,मोह ,
आलस्य ,और भय - ये गुणतत्त्व हैं जिनको भोग तत्त्व भी कहते हैं ।
7- गीता - 7.14 > तीन गुणों के माध्यम को माया कहते हैं ।
8- गीता - 7.15 > माया प्रभावित ब्यक्ति आसुरी प्रकृति का होता है ।
9- भागवत : 8.1.14 > नैष्कर्म्य की सिद्धि ब्रह्म से एकत्व प्राप्ति का नाम है (इसे गीता - 18.48 के साथ देखें ) ।
10- भागवत , 11.3 > पराभक्त मायाका द्रष्टा होता है ।
~~ ॐ ~~

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