गीता तत्त्वों में मोह
गीता तत्वों की परिचय श्रृंखला के अंतर गत अभीं तक हम कामना क्रोध एवं अहँकार को देख रहे थे और अब देखते हैं मोह को / गीता का प्रारम्भ अर्जुन के मोह से है और गीता यों तो कभीं साप्त नहीं होता लेकिन अर्जुन का आखिरी सूत्र 18.73 यः बताता है है कि अर्जुन का मोह समाप्त हो चुका है / गीता में मोह को समझनें के लिए कम से कम गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए -------
1.28 | 1.29 | 1.30 |
2.52 | 4.35 | 18.72 |
18.73 | 4.38 | 10.3 |
14.8 | 14.10 | x |
गीता सूत्र –1.28 – 1.30 तक
दृष्ट्वा इमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्/
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति//
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते//
अपने स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा शरीर मेंकंपन एवं रोमांचहो रहा है … ...
गांडीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते/
न च शकनोम्यवस्थातुम् भ्रमतीव च में मनः//
हाँथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है , त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमितसा हो रहा है और मैं खडा रहनें में भी समर्थ नही हो पा रहा हूँ /
अर्जुन गए तो थे इस पर – उस पार कि लड़ाई लडनें लेकिन अपनें स्वजन लोगों की तीन पीढ़ियों कके लोगों को देख कर मोहित हो उठे और वे जो कुछ भी बोलते हैं उनमें मोह ले लक्षण स्पष्ट नजर आ रहे हैं , प्रभु श्री कृष्ण को और ये मोह के लक्षण कुछ इस प्रकार से हैं --------
अंगों में शिथिलता,कंपन,गला सूखना,त्वचा में जलन का होना और भ्रमित मन
अर्जुन के ऊपर दिए गए सूत्र गीता के आधार हैं , क्योंकि प्रभु श्री कृष्ण के गीता में सभी 556 सूत्रों का सम्बन्ध अर्जुन के मोह से है /
मोह [ delusion ] , भ्रमित मन [ wavering mind ] ,
===== ओम् ========
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