गीता में भोग तत्त्वों की पहचान
गीता श्लोक –3.7
य:तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन/
कर्म इन्द्रियै:कर्मयोगम् असक्तः स:विशिष्यते//
इस श्लोक को ऐसे पढ़ें
तु अर्जुन यः मनसा इन्द्रियाणि नियम्य आसक्तः
कर्म इंद्रियै:कर्मयोगम् आरभते सः विशिष्यते
शब्दार्थ
किन्तु हे अर्जुन ! जो मन से इंद्रियों को बश में करके अनासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है /
भावार्थ
नियोजित कर्म इंद्रियों से होश में किया गया कर्म ही कर्म योग है //
Control of senses through developing correct understanding in the mind leads to Karma – Yoga .
Actions performed in Karma – Yoga do not have influence of three natural modes such as goodness , passionate and dullness . A man is said to be Karma – Yogin whose actions do not have the energy of greed , aversion , loathed , bondage , clinging and ego
आप इस श्लोक को गीता के श्लोक 6.24 , 6.26 , 6.29 , 6.30 , 2.60 , 2.61, 2.64 , 2.67 के साथ देखें //
==== ओम्======
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