गीता श्लोक - 8.22
पुरुष: स परः पार्थ भक्या लभ्य: तु अनन्यया ।
यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सरबं इदं ततं ॥
अनन्य भक्ति से प्राप्त योग्य प्रभु अपनें परम धाम में
विराजमान होते हुए भी सर्वत्र होते हैं ॥
The experiencing gained during unswerving
devotion is the awareness of the
presence of Me . Me is not limited to a parson or place
but is always available
everywhere where Mine para bhakt is available .
अनन्य भक्ति या परा भक्ति क्या है ?
अनन्य या परा भक्ति साकार भक्ति का वह आखिरी अनुभूति है
जिस को ब्यक्त करनें के कोई माध्यम नहीं होते और
भक्त इस स्थिति में पूर्ण चेतनमय होता है ।
हमारे पास ब्यक्त करनें के माध्यम रूप में हैं -
इन्द्रियाँ जिनका सीधा सम्बन्ध है - मन - बुद्धि तंत्र से ।
आप अपनें जीवन में कभी झाँक कर देखना -
आप की अनेक
ऐसे अनुभूतियाँ होंगी जिनको
घटित होते हुए अनुभव का पता तो होगा लेकीन यदि आप उसे ब्यक्त
करना चाहे तो नहीं कर पाते ।
हमारे पास ब्यक्त करनें के दो माध्यम हैं ; एक भाषा और दूसरा भाव ।
भाषा हमारी अपनी निर्मित है जिसकी अपनी सीमाएं हैं और
भाव का अर्थ ही होता है - वह जिसको ब्यक्त न किया जा सके ।
पराभक्ति समाधि के ठीक पहले की स्थिति होती है , जहां -----
न तन होता है .....
न मन होता है .....
बुद्धि में चेतना की उपस्थिति .....
तन , मन , बुद्धि में जो ऊर्जा का संचार करती रहती है उसे
ब्यक्त करनें का कोई उपाय नहीं होता ॥
===== ॐ ======
Comments