गीता, अर्जुन एवं श्री कृष्ण - 2

परम श्री कृष्ण कहते हैं........
साधना में अब्यक्त भाव की स्थिति में अब्यक्त अक्षर की अनुभूति ही परम धाम है ---गीता 8.21
अब आप अपनी बुद्धि इस सूत्र पर कुछ देर लगाएं , ऐसा करनें से आप को जो मिलेगा वह आप का अपना
होगा जिसको आप बाटना चाहेंगे पर बाट न पायेंगे ।
अब्यक्त भाव भावातीत का दूसरा नाम है और अक्षर वह है जो सनातन है , जो प्रकृति का नाभि केन्द्र
[ nucleous ] है । परम पवित्र सनातन निर्विकार पुरूष से प्रकृति है , प्रकृति से प्रकृति में टाइम - स्पेस है , विकार शब्द मन-बुद्धि की उपज है और यह निर्विकार की सोच का बीज है , यदि विकार शब्द न हो तो निर्विकार की कल्पना कैसे होगी ?
परम श्री कृष्ण कहते हैं [ गीता 4.3 , 9.28- 9.29 , 10.1 , 18.57 ]--तूं मेरा प्रिय है , इसलिए गीता -ज्ञान मैं तेरे को दे रहा हूँ , तूं अपनें को मुझे समर्पित कर दे , ऐसा करनें से तूं मुझे प्राप्त कर लेगा और यह भी कहते हैं --मेरा कोई प्रिय- अप्रिय नहीं , मैं सब में सम भाव से हूँ । अब आप अर्जुन की नीति को देखें --------------गीता-श्लोक 10.12--10.13 में अर्जुन कहते हैं ....आप सत- असत से परे परम अक्षर परम धाम परम ब्रह्म हैं और साथ में प्रश्न भी पूछते हैं । समर्पित ब्यक्ति की बुद्धि प्रश्न रहित होती हैं , वह क्या प्रश्न करेगा ?
अब आप गीता के चार और श्लोकों को देखिये ---गीता श्लोक 18.59- 18.60 , 18.65 - 18.66 को ।
श्री कृष्ण कहते हैं ....तूं सभी धर्मों को छोड़ कर मेरी शरण में आजा नहीं तो तूं मारा जाएगा और यह भी देखनें को मिलता है की ....मोह में भी अंहकार होता है । गीता में अर्जुन कुल एवं जाती धर्म की चर्चा करते हैं [ गीता 1.40- 1.44 ] और श्री कृष्ण [ गीता 3.35, 18.47 ] स्व-धर्म एवं पर धर्म की चर्चा करते हैं ।
अब आप सोचिये की अर्जुन के कितनें धर्म हैं ? गीता सूत्र 18.59,18.60 से यह स्पष्ट होता है की मोह में
अंहकार होता है यदि ऐसा है तो वह अंहकार कैसा होता होगा ?
कामना का अंहकार परिधि पर होनें से साफ़- साफ़ दिखता है लेकिन मोह का अंहकार केन्द्र पर होनें से छिपा
होता है ।
मोह में डूबे अर्जुन को श्री कृष्ण कभीं कहते हैं ---मैं ही सब कुछ हूँ , तूं मेरी शरण में आजा और कभीं
कहते हैं तूं उस परमात्मा की शरण में जा वहीं तेरे को शान्ति मिलेगी , बिचारा अर्जुन क्या करे ? श्री कृष्ण
एक तरफ़ स्वर्ग की लालच दे कर युद्ध में उतारना चाहते हैं और दूसरी तरफ़ स्वर्ग को भी भोग का एक
माध्यम बताते हैं --ऎसी स्थिति में अर्जुन भ्रम रहित कैसे हो सकते हैं ?
गीता तो समाप्त हुआ लेकिन अर्जुन मोह रहित हुए या नहीं , यह सोच का बिषय आप के लिए है ।
====ॐ=======

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