मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त और अंतःकरण

 


मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त 

और अंतःकरण 

मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त और अंतःकरण को श्रीमद्भगवद्गीता , श्रीमद्भगवत पुराण , सांख्य और पतंजलि योग दर्शन के आधार पर यहाँ समझने की कोशिश की जा रही है । 

➡️ मन को 11 वीं इन्द्रिय भी कहा जाता है , देखिये ⬇

गीता : 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ,

 " इंद्रियाणाम् मनः च अस्मि " अर्थात इंद्रियों में

 मन मैं हूँ ।

➡️ सांख्य दर्शन के मन , बुद्धि , अहँकार , चित्त और अंतःकरण समीकरण को पतंजलि भी स्वीकारते हैं जो निम्न प्रकार है ⬇️

⬇️ जब पुरुष प्रकाश के प्रभाव में त्रिगुणी प्रकृति की साम्यावस्था विकृत होती है तब महत् या बुद्धि उत्पन्न होता है । बुद्धि से अहँकार की उत्पत्ति होती है । अहँकार गुण आधारित 03 प्रकार के होते हैं --

सात्त्विक , राजस और तामसअहँकार से  05 ज्ञान इन्द्रियाँ , 05 कर्म इन्द्रियाँ और मन की उत्पन्न होती हैं । मन , बुद्धि और अहँकार को सामूहिक रूप में एक नाम दिया गया है चित्त और इस को अंतःकरण भी कहते 

हैं । चित्त और अंतःकरण एक दूसरे के संबोधन हैं और 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं । 

➡️चित्त जड़ है जो न तो स्वयं को समझता है और न अन्य को लेकिन जब पुरुष की ऊर्जा इसमें बहने लगती है तब यह प्रकृति - पुरुष की संयोग भूमि बन जाता है । 

चित्त के माध्यम से पुरुष 10 इंद्रियों , 05 तन्मात्र और 05 महाभूतों को समझता है । जिस वस्तु का प्रतिविम्ब चित्त पर उभड़ता है , उसे पुरुष देखता है । इसे ऐसे समझें , पुरुष अँधा होता है जो चित्त के माध्यम से देखता है । 

◆ चित्त से जुड़ते ही पुरुष चित्ताकार हो जाता है । 

◆ चित्त का स्वामी , पुरुष अपरिवर्तनीय है और चित्त परिवर्तनीय ।

● अंतः करण स्वेच्छा से अलग - अलग बिषय ग्रहण करते हैं । मन एवं अहँकार के सहयोग से बुद्धि तीनों कालों के बिषयों पर गहरा चिंतन करती है।

मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी - अपनी वृत्तियों को जानते हैं और इन सभी वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है । 

अब आगे ⬇️


गीता आधारित मन रहस्य 

अध्याय

श्लोक 

योग

3

6 , 7 , 40

3

5

13

01

6

6  + 10 - 21 तक +

26 , 27 + 35 - 37 तक

18

7

4

01

8

5 , 6

02

10

22

01

13

5 , 6 

02

15

8

01

योग

X

29


अब ऊपर दिए गए श्लोकों को देखते हैं⬇️

गीता श्लोक : 3.6 + श्लोक - 3.7

●हठात् इन्द्रिय नियोजन , मनको बिषय - मननसे नहीं रोक सकता ।

● इन्द्रिय नियोजन मनसे होना चाहिए ।

गीता श्लोक : 3.40 

● इंद्रियाँ , मन और बुद्धि पर काम ( Sex )का 

सम्मोहन रहता है ।

गीता श्लोक : 5.13 

● अंतःकरण (मन , बुद्धि , अहँकार ) जिसका निर्मल है , वह 09 द्वारों वाले शरीर में सुखसे रहता है ।

गीता श्लोक : 6.6

◆ मन सहित इंद्रियाँ जिसकी नियोजित हैं , वह स्वयं का मित्र है ।

श्लोक : 6.10 - 6.21 12 श्लोको का सार 

👌यहाँ  मन शांत के लिए एक ध्यान विधि दी जा रही है…

● जब मन सहित जब इंद्रियाँ नियोजित हो जाय तब उस आशा - संग्रह मुक्त योगी को एकांत में प्रभुसे एकत्व स्थापित करना चाहिए ।

मन शांत रखने की ध्यान विधि 👇

शुद्ध समतल भूमि पर कुश या मृगचर्म का बिछावन बिछा कर ..

> उस पर किसी आसान में बैठ कर ,मन एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिए …

【 1】 शरीर , सिर और गर्दन तनाव रहित एक सीधी रेखा में स्थिर होने चाहिए ...

【 2 】 नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि एकाग्र करने का अभ्यास करना चाहिए ।

सावधानियाँ

➡️ इस अभ्यासमें , सामान्य भोजन लेना चाहिए , उपवास रखना वर्जित है और सम्यक निद्रा लेनी चाहिए ।

◆ जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है , वैसे योगारूढ़ योगी का मन स्थिर रहता है। 

गीता श्लोक 6.26 - 6.27

👉मनका पीछा करते रहो , वह जहाँ - जहाँ जाय , उसे वहाँ - वहाँ से प्रभुके विग्रह पर लौटा ले आना चाहिए ।

👉 राजस गुण , ब्रह्म - खोज मार्गी के लिए एक बड़ी रुकावट है।

गीता श्लोक : 6.35 - 6.37 

●चंचल मन , अभ्यास - वैराग्यसे बश में होता है ।

● शांत मन वाला , योगमें होता है ।

गीता में अर्जुन पूछते हैं , " श्रद्धावान पर अनियमित योगी का अंत कालमें जब मन विचलित हो जाता है , तब उसे कौन सी योनि मिलती है ? "

इस बिषय पर गीतामें दो बातें बताई गई हैं ; 

1 - बैराग्य में पहुंचे योगीका योग जब खंडित होता है तब वह 

स्वर्ग न जा कर किसी योगी कुल मे जन्म लेता है और पिछले जन्म की साधना जहाँ खंडित हुई होती है , वह उसे वहाँ से पुनः आगे बढ़ाता है ।

2 -  ऐसे योगी जो वैराग्यवस्था तक नहीं पहुंच पाते ,  उनका योग खंडित हो जाता है और वे देह त्याग कर जाते हैं , वे श्रीमानों के कुल में जन्म न ले कर स्वर्ग जाते हैं और स्वर्ग में अपना भोग पूरा करते हैं । जब उनके भोग की अवधि समाप्त हो जाती  है तब वे पुनः जन्म लेते हैं और प्रारम्भ से साधना करते हैं ।

गीता श्लोक : 7.4

अपरा प्रकृति के 08 तत्त्व हैं >पंच महाभूत , बुद्धि , अहंकार और मन...

गीता श्लोक : 8.5 - 8.6

●अंत समयकी गहरी सोच उस मनुष्यके जीवात्मा को उसकी सोचके अनुसार यथा उचित योनि में ले जाती है ।

● जब जीवात्मा देह त्यागता है तब उसके संग

मन सहित 05 ज्ञान इंद्रियाँ भी होती हैं । मन और ज्ञान इन्द्रियों के समूह को लिंग शरीर ( cosmic body ) या सूक्ष्म शरीर कहते हैं ; यहाँ देखिये भागवत : 11.22।

गीता श्लोक : 10.22

प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , इन्द्रियों में  मन और चेतना मैं हूँ ।

गीता श्लोक : 13.5 - 13.6

क्षेत्र ( देह ) की रचना 

05 महाभूत , 05 बिषय , 10 इंद्रियाँ , अहँकार , बुद्धि , विकार , सभीं द्वैत्य भाव , धृतिका और मन एवं चेतना  ।

गीता श्लोक : 15.8

जैसे वायु  गंध को अपनें साथ ले जाता है वैसे जीवात्मा देह त्याग के समय अपनें साथ मन सहित 05 ज्ञान इन्द्रियों को भी ले जाता है ।। यहाँ गीता श्लोक : 8.5 + 8.6 को भी देखें जो कहते हैं ⬇️

# अंत काल में जो मेरी स्मृति के साथ आखिरी श्वास छोड़ता है , वह मेरे स्वरुप को प्राप्त करता है ।

# आखिरी श्वास के समय का गहरा भाव उसकी अगली योनि को निश्चित करता है ।

अब आगे ⬇️


भागवत आधारित मन रहस्य 

स्कन्ध संख्या

अध्याय . श्लोक

योग

2

1 .17

01

3

5.30 , 25.15 ,28.10 ,29.20 


04

5

6 .2 + 11.8 + 11.9

03

7

11.33

01

10

1 .42 + 2.36 + 16.42 

03

11

7.8 , 13.13 , 13.25 , 13.34

 22.26, 22.37 , 26.22 , 28.20 

08

योग

मन सम्बंधित इन 20 श्लोकों के भावार्थ आगे मिलेगें ...

20


अब ऊपर के सूत्रों के सारको देखते हैं ⬇️

भागवत 2.1.17

मन को स्थिर करनें हेतु मन का पीछा करते रहने का अभ्यास करना चाहिए ।

2.2.15 : अंत समय में मनको देश - काल बंधन से मुक्त रहना चाहिए ।

भागवत स्कन्ध 3 

3.5.30 : मनसे बिषय बोध होता है ।

3.25.15 :बंधन - मोक्ष का माध्यम , मन है ।

3.28.10 :प्राणवायु नियंत्रणसे मन शुद्ध रहता है। 

3.29.20 :राग - द्वेष मुक्त चित्त , प्रभु से जोड़ता है ।


 भागवत स्कन्ध : 5 , 7 और 10 से मन सम्बंधित श्लोक ⬇️

श्लोक : 5.6.2 

योगी , मनका गुलाम नहीं होता।

श्लोक : 5.11.8 

शुद्ध चित्त ,कैवल्य का द्वार होता है ।

श्लोक : 5.11.9 

मनकी वृत्तियाँ : 10 इंद्रियाँ , बिषय , अहँकार और 05 प्रकारके कार्य /

श्लोक : 7.11.33 

मन बासनाओं का संग्रहालय है ।

श्लोक : 10.1.42 

 विकारों का पुंज , मन है ।

श्लोक : 10.2.36 

मन और वेद वाणी से प्रभुके स्वरूप का अंदाज़ भर लगता है।

श्लोक : 10.16.42 

 11 इन्द्रियों सहित 05 बिषय , 05 महाभूत और बुद्धिका केंद्र , चित्त है ।

श्लोक : 11.7.8 

अशांत मन एक वस्तु को अनेक रूपों में देखता है

श्लोक : 11.13.13 

बिषय चिंतन , संसार से बाध कर रखता है ।

श्लोक : 11.13.25 

 बिषय मनन से मन बिषयाकार बन जाता है ।

श्लोक : 11.13.34 

जगत मनका विलास है ।

श्लोक : 11.22.26 

 कर्म संस्कारो का पुंज , मन है ।

श्लोक : 11.22.37 

पूर्व अनुभवों पर मन भौरे की तरफ मंडराता रहता है ।

श्लोक : 11.26.2

इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में विकार उठते हैं ।

श्लोक : 11.28.20 

मनकी अवस्थाएँ :जाग्रत , स्वप्न  और सुषुप्ति पर निर्मल मन तुरीय अवस्था में होता है जहां इसका एकत्व ब्रह्म से होता है । 


अब आगे ⬇️


सांख्य में चित्त - मन क्या हैं ?


कारिका ⬇️

योग⬇️

3 , 21 , 22 , 24 - 25 , 29 - 34 35 - 37 , 46 - 47

16

# कारिका : 3 , 21, 22 

 सृष्टि रचना 

प्रकृति +पुरुष संयोग से  23 तत्त्वों की उत्पत्ति होती है (महत् , अहँकार , मन , 10 इन्द्रियां , 5 तन्मात्र , 5 महाभूत )

➡️प्रकृति से महत् , महत् से अहँकार , अहँकार से मन +10 इन्द्रियां + 5 तन्मात्र और तन्मात्रों से उनके अपनें - अपनें महाभूतों की उत्पत्ति होती है 

 ➡️ तीन गुणों की साम्यावस्था , अविकृति मूल प्रकृति है जो अनादि सनातन , जड़ , प्रसवधर्मी तथा कार्य नहीं कारण है ।

 ➡️ पुरुष निष्क्रिय , शुद्ध चेतन  और ज्ञान - ऊर्जा का श्रोत है । 

➡️कारिका : 24 +25

अहँकार 

अभिमान ही अहँकार है । 

➡️ सात्त्विक , राजस और तामस 03 प्रकार के अहँकार हैं । 

➡️ 11 इन्द्रियां और 05 तन्मात्र अहँकार से उत्पन्न होते हैं ।

➡️ 11 इन्द्रियां सात्त्विक अहँकार से हैं , 05 तन्मात्र तामस अहँकार से हैं और राजस अहँकार दोनों की केवल मदद करता है ।



कारिका : 29 - 34

# 13 करण हैं 

जिनमें महत् + मन +अहँकार को अंतःकरण और शेष 10 इंद्रियों को बाह्य करण कहते हैं ।

➡️ अंतःकरण को स्वामी ( द्वारि ) और 10 बाह्य करण को द्वार कहते हैं । 

➡️ 13 करणों में 12 करण महत् ( बुद्धि ) नियंत्रित हैं ।

कारिका : 29 + भागवत : 3.26.14

अंतःकरण क्या है ?

मन , बुद्धि और अहँकार को अंतःकरण कहते हैं। अंतःकरण की असामान्य वृत्तियॉ निम्न हैं ⬇️

मन का संकल्प , बुद्धि का ज्ञान और अहँकार का अभिमान /

कारिका : 28 में बतायी गयी 10 इंद्रियों की वृत्तियाँ भी असामान्य हैं जो निम्न हैं ⬇️

तन्मात्र और पञ्च ज्ञान इंद्रियों की वृत्तियाँ  ⬇️

रूप - रंग , शब्द , श्वाद , गंध और स्पर्श संवेदना 

प्राण , अपान , व्यान , उदान और समान रूपी वृत्तियॉं सामान्य वृत्तियॉं हैं ।

कारिका : 30

अंतःकरण क्रमशः

● जब अंतःकरण के साथ कोई एक इंद्रिय जुड़ती है तब वह चतुष्टय कहलाती है । 

● दृश्य बिषयों में इन चारों की वृत्ति कभीं एक साथ तो कभीं क्रमशः भी होती है ।

● अदृश्य बिषयों में अंतःकरण की इंद्रिय पूर्वक ही वृत्ति होती है ।

कारिका - 31

अंतःकरण क्रमशः

◆ मन , बुद्धि और अहँकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनी - अपनी वृत्तियों को जानते हैं । 

◆ इन सभी वृत्तियों का पुरुषार्थ ( मोक्ष ) ही उद्देश्य होता है । 

● ये करण (करण के लिए अगली कारिका देखें ) स्वयं प्रवृत्त होते हैं , किसी और से नियंत्रित नहीं होते ।

कारिका : 32

13 करण हैं ; 11 इन्द्रियाँ +मन +बुद्धि 

लेना - देना , धारण करना , ज्ञान देना , करण के कार्य हैं ।

# कर्म इन्द्रियां ग्रहण - धारण दोनों कार्य करती हैं । 

# ज्ञान इन्द्रियाँ केवल ज्ञान देती हैं ।

कारिका : 33 

अंतःकरण क्रमशः

1- बाह्य करण : 10 इन्द्रियाँ 

2 - अंतः करण : मन , बुद्धि , अहँकार 

● बाह्य करण केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं 

अंतःकरण तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं।


कारिका : 35 - 37

अंतःकरण

● कारिका - 32 में 13 करण बताये गए।

● कारिका - 33 में तीन अंतः करण और 10 बाह्य करण बताये गए ।

● अंतःकरण को स्वामी ( द्वारि ) और 10 बाह्य करण को द्वार कहते हैं ।

◆अंतः करण स्वेच्छा से अलग - अलग बिषय ग्रहण करते हैं ।

◆ मन एवं अहँकार के सहयोग से बुद्धि तीनों कालों के बिषयों पर गहरा चिंतन करती है।


<> श्रीमद्भागवत पुराण : 3.26 में कपिल - देवहूति वार्ता के अंतर्गत अंतःकरण की निम्न वृत्तियाँ बतायी गयी हैं ⬇️

संकल्प , निश्चय , चिंता और अभिमान 

करण क्रमशः 

● 11 इन्द्रियाँ और अहँकार बुद्धि को समर्पित हैं अर्थात बुद्धि से नियंत्रित हैं और एक दूसरे से भिन्न गुण वाले होते हैं ।

● पुरुष के सभीं उपभोग की व्यवस्था बुद्धि करती है।


कारिका : 46 - 47


बुद्धि (प्रत्यय ) सर्ग निरुपण

● बुद्धि के प्रमुख 04 प्रकार ..

विपर्यय + अशक्ति + तुष्टि + सिद्धि

1 - विपर्यय : यह 05 प्रकार की है ।

2 - अशक्ति : यह 28 प्रकार की है ।

3 - तुष्टि : यह 09 प्रकार की है ।

4 - सिद्धि : यह 08 प्रकार की है ।

★ कुल मिला कर 50 प्रकार की बुद्धि होती है।


अब आगे ⬇️


चित्त के सम्बन्ध में 

पतंजलि कैवल्य पाद के 13 सूत्र ⬇️

2

4

5

6

15

16

17

18

19

20

21

23

24

-

योग >

13


कैवल्य पाद सूत्र : 2 , 4 + 5  + 6

➡️ कैवल्य पाद सूत्र - 2

"जन्म के अंतर का परिणाम प्रकृति की आपूर्ति से होता है "

➡️ सिद्धि प्राप्त योगी अपनें संकल्प मात्र से कोई भी रूप धारण कर सकता है और उसे ऐसा करने में प्रकृति सहयोग करती है ।

● ध्यान से निर्मित चित्त क्लेश - कर्म वासनाओं से  मुक्त होता है ।

● संकल्प से निर्मित चित्त निर्माण चित्त होता है जो अस्मिता से निर्मित होता है ।

● जब योगी एक से अनेक शरीर बना लेता है तब उन शरीरों में अगल - अलग निर्माण चित्त होते हैं जिनका नियंत्रण योगी के मूल चित्त से  होता है ।

कैवल्य पाद सूत्र : 15 

चित्तानुसार वस्तु दिखती  है ⬇️

कैवल्य पाद सूत्र : 16

संसार चित्तके अधीन नहीं और जब संसार किसी चित्तका बिषय नहीं तब उसका क्या होगा ? पतंजलि प्रश्न उठा रहे हैं ।


कैवल्य पाद सूत्र : 17 

जिस वस्तु का प्रतिविम्ब चित्त पर नहीं बना होता , उस वस्तु को चित्त नही समझता।


कैवल्य पादसूत्र : 18 

चित्त परिवर्तनशील है और उसका स्वामी पुरुष अपरिवर्तनीय ।


कैवल्य पाद सूत्र : 19 - 20 

चित्त जड़ है अतः उसे स्वयं का ज्ञान नहीं होता और दूसरों को भी नहीं जानता , केवल पुरुष ज्ञानी है । पुरुष के साक्षित्व में  स्मृति में चित्त सूचनाओं को धारण करता है।


कैवल्य पाद सूत्र - 21 

एक चित्त  दूसरे  चित्त का दृश्य है । दूसरा अन्य चित्त का दृश्य होता है । 

एक जीवन में अनेक चित्त होते हैं । चित्त बदल रहा है अतः स्मृतियां भी बदलती रहती हैं ।


कैवल्य पाद सूत्र : 23 

चित्त प्रकृति - पुरुष संयोग भूमि है ।



कैवल्य पाद सूत्र : 24 

चित्त असंख्य वासनाओं से विचित्त होने के साथ अन्य 23 तत्त्वों से मिलजुल कर कार्य करने वाला और और परार्थ भी है ।



अब आगे ⬇️


चित्त सम्बंधित कुछ स्लाइड्स ⬇️


1⃣चित्त वृत्तियाँ और भूमियाँ


2⃣मन की अवस्थाएँ / चित्त की भूमियाँ दोनों एक हैं ⬇️


3⃣चित्त की भूमियाँ , वृत्तियाँ , क्लेष ,

बुद्धि और बुद्धि की वृत्तियाँ ⬇️


अब आगे ⬇️


चित्त और पञ्च क्लेष ⬇️ 


चित्त वृत्तियाँ

चित्त और क्लेष  साधना के प्रमुख तत्त्व हैं । चित्त के सम्बन्ध में निम्न स्लाइड में 04 अहम् बातों को और क्लेष के सम्बन्ध में 02 अहम् बातों को दिखाया जा रहा है ⬇️

➡️चित्त के सम्बन्ध में उसके निम्न 04 अंगों को समझना चाहिए ⬇️

1 - चित्त की वृत्रियाँ , 2 - चित्त की भूमियाँ ,

 3 - चित्त के परिणाम और 4 - चित्त के धर्म ।

 क्लेष को समझने के लिए , उसके निम्न दो तत्त्वों को समझना चाहिए ⬇️

 क्लेष के प्रकार और क्लेष की अवस्थाएँ हैं । 


【01】 चित्त - वृत्तियाँ 

सन्दर्भ : पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 5 + 6 ⬇️

◆ प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा और स्मृति ये चित्त की पांच वृत्तियां क्लिष्ट - अक्लिष्ट दो रूपों में होती  हैं ।

◆  क्लिष्ट राजस - तामस गुणों के प्रभाव के कारण दुःख से जोड़ती हैं और अक्लिष्ट सात्त्विक गुण प्रभावित होने के कारण सुख से जोड़ती हैं । 

◆ चित्त की इन 05 वृत्तियों में कोई भी वृत्ति किसी समय गुण प्रभाव के कारण क्लिष्ट या अक्लिष्ट हो सकती है।


1.1 - चित्त की पहली वृत्ति प्रमाण  

प्रमाण प्रमा से बना है 

यथार्थ अनुभव' को 'प्रमा' कहते हैं। 'स्मृति' तथा 'संशय' आदि को 'प्रमा' नहीं मानते अतएव अज्ञात तत्त्व के अर्थज्ञान को 'प्रमा' कहा है। 

शास्त्रदीपिका में कहा है ⬇️

" कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि 

ज्ञानं प्रमाणम् "

 अर्थात जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो , अन्य ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।

भारतीय दर्शनों में प्रमाण की मान्यता को नीचे स्लाइड में देखें । 

इनमें से पतंजलि और सांख्य में 03 प्रकार के निम्न प्रमाण मान्य हैं ⬇️

 प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम या शब्द या आप्तवचन ।



ऊपर स्लाइड में भारतीय 10 दर्शनों के मान्य प्रमाणों को दिखाया गया है । अब आगे इन प्रमाणों के सम्बन्ध में देखा जाएगा लेकिन पहले इन प्रमाणोंके नामों से  एक बार पुनः परिचित हो लेते हैं ….

1- प्रत्यक्ष 2 - अनुमान 3 - शब्द या आगम या आप्त वचन 4 - परोक्ष 5 - उपमान 6 - ऐतिह्य

 7 - अर्थापत्ति 8 - संभव 9 - अनुपलब्धि या अभाव


निम्न पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 7 को यहाँ देखें जो  प्रमाण से सम्बंधित है⬇️



प्रमाण वृत्ति 03 प्रकार की है ; प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम । अब इन 03 प्रमाण वृत्तियों को समझते हैं ⬇️

1.1.1 प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्ति

 05 ज्ञान इंद्रियों और उनके बिषयों के संयोग से जो वृत्ति उठती है , उसे प्रत्यक्ष प्रमाण बृत्ति कहते हैं । 

1.1.2 अनुमान प्रमाण वृत्ति

दूर कहीं धुआं देख कर आग होने का अनुमान लगाना अनुमान वृत्ति है ।  

1.1.3 आप्त वचन (शब्द , आगम प्रमाण वृत्ति

जिसके संबंध में प्रत्यक्ष - अनुमान से जानना संभव  न हो सके , उसे शास्त्रों या सत् पुरुषों के दिये गए उपदेशों से जाना जाता है , इस वृत्ति को आगम या आप्त वचन या शब्द कहते हैं ।  

अब आगे ⬇️

चित्त बृत्तियीं के सार को यहाँ एक बार पुनः देखते हैं ⬇️



1.1.4 - परोक्ष प्रमाण 

परोक्ष प्रमाण की मान्यता जैन दर्शन की है । इंद्रियों और विचार से जो कुछ भी जाना जाता है वह परोक्ष प्रमाण है। स्मृति , तर्क , अनुमान आदि अनेकों इसके रुप हैं ।


1.1.5 - उपमान प्रमाण 

गौतम का तीसरा प्रमाण उपमान है । किसी ज्ञात वस्तु के आधार पर अज्ञात वस्तु को जानना उपमान है जैसे गाय से नील गाय को जानना ।

1.1.6 - ऐतिह्य प्रमाण 

ऐतिह्य का अर्थ है परंपरागत अर्थात परंपरा की जो मान्यताएं चली आ रही हैं , उन्हें प्रमाण मान कर अज्ञात को समझना ऐतिह्य प्रमाण है ।

 1.1.7 - अर्थापत्ति प्रमाण 

मीमांसा दर्शन में अर्थपत्ति प्रमाण है । यदि कोइ व्यक्ति जीवित है और घर में नहीं है तो उसके बाहर होने का ज्ञान होता है । प्रभाकर मिश्र के अनुसार अर्थपत्ति से तभी ज्ञान होता है जब घर में अनुपस्थित व्यक्ति के प्रति संदेह हो ।

1.1.8 - संभव प्रमाण 

जैसे किलोग्राम के अंदर ग्राम का होना , अंगी के भीतर अंग का होना , जैसे व्यापक के भीतर व्याप्य का होना संभव प्रमाण है । 

1.1.9 - अनुपलब्धि या अभाव प्रमाण 

जब किसी वस्तु  को  अन्य किसी प्रमाण से जानना सम्भव न हो तब उस वस्तु के अभाव का ज्ञान होता है । मिमांसक इस प्रमाण को मानते हैं लेकिन प्रभाकर मिश्र इसे नहीं मानते  ।


चित्त की दूसरी और तीसरी वृत्ति 

विपर्यय और विकल्प 

विपर्यय और विकल्प चित्त की दूसर और तीसरी वृत्तियां हैं । जिनके सम्बन्ध में पतंजलि के निम्न 02 सूत्रों को देखें ⬇️

पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 8 +9 ⬇️

सूत्र : 08 > विपर्यय ⬇️

विपर्यय वृत्ति अविद्या अर्थात मिथ्या ज्ञान के कारण पैदा होती है । जब राजस - तामस गुण प्रभावी होते हैं , तब अविद्या का होना होता है । 

सूत्र : 09 > विकल्प वृत्ति ⬇️

शब्द ज्ञान अनुपाती वस्तु शून्यो विकल्प:  

अर्थात  वस्तु की अनुपस्थितमें  उस बिषय के सम्बन्ध में शब्द ज्ञान के आधार पर सोचना चित्त में विकल्प वृत्ति पैदा होती है । 

देवता , भूत - प्रेत आदि के सम्बन्ध में जानना मात्र शब्द -  ज्ञानसे संभव है । 

शब्द ज्ञान वह ज्ञान है जो शास्त्र आदि सर्वमान्य ग्रंथों से प्राप्त होता है

 चित्त की चौथी और पांचवीं वृत्ति 

निद्रा - स्मृति 

समाधि पाद सूत्र : 10 +11⬇️

4 - निद्रा चित्त वृत्ति 

पतंजलि समाधि पाद सूत्र : 10

" अभाव प्रत्यय आलंबना वृत्ति : निद्रा "

निद्रा में बिषय आलंबन का अभाव होता है और स्वप्न बिषय आलंबन युक्त निद्रा का नाम 

है । कभीं - कभीं हम जब सो कर उठते हैं तब कहते हैं कि आज बहुत प्यारी नींद आयी , समय का पता तक न चला अर्थात उस नींद में भी चित्त की कोई वृत्ति सक्रिय थी जो मीठी नींद की स्मृति को जगने के बाद प्रकट कर रही होती है , वही चित्त की निद्रा वृत्ति है ।



5 - स्मृति चित्त वृत्ति 

पतंजलि समाधि पाद सूत्र - 11  


अनुभव किये हुए विषयों का समय पर चित्त पटल पर प्रगट हो जाना , स्मृति है । 

भागवत : 11.22.37 में कहा गया है , 

" पूर्व अनुभवों पर मन भौरे की भांति मंडराता रहता है " और पूर्व अनुभवों का  संग्रह चित्त के जिस भाग में होता है वह स्मृतिकी भूमि है ।


अब आगे ⬇️



पञ्च क्लेष से परिचय⬇️

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 3 - 17तक


साधन पाद सूत्र : 3 >पञ्च क्लेष ⬇️

➡अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेष , ये 05 क्लेष हैं । 

इन 05 क्लेषों के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा बाद में होगी । 

भागवत : 3.10 > मैत्रेय - विदुर वार्ता के अंतर्गत बताया गया है कि अविद्या छठवीं सृष्टि है 

जिसमें निम्न  05 गाँठे होती है ; 

1 - तामिस्र (द्वेष ) , 2 - महामोह ( राग ) , 

3 -  तम , 4 - अन्धतामिस्त्र ( अभिनिवेश या मृत्यु भय ) , 5 -  मोह

भागवत : 3 .10 > विदुर - मैत्रेय वार्ता के अंतर्गत बिदुर जी ऋषि मैय्रे से पूछते हैं , ब्रह्मा जी द्वारा रचित सृष्टियाँ कितने प्रकार की हैं । मैत्रेयजी उत्तर देते हुए कहते हैं , ब्रह्मा रचित 10 प्रकार की सृषियां हैं - (1) महत्तत्त्व , (2) अहँकार , (3) भूत सर्ग  जिनमें पञ्च महाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है ,(4)  इंद्रियों की , (5)इन्द्रिय अधिष्ठाता देवता - मन , (6) सृष्टि अविद्या , (7) - 06 प्रकार के स्थावर बृक्षों की ( वनस्पतियां , औषधि , लता , त्वकसार , वीरुध , द्रुम ) , (8) सृष्टि तिर्यक योनियाँ ( पशु - पक्षियों की ) (9)  सृष्टि मनुष्यों की (10) देवसर्ग ( देवता , पितर , असुर , गन्धर्व -अप्सराएं , यक्ष - राक्षस , सिद्ध - चरण - विद्याधर , भूत - प्रेत - पिशाच , किन्नर - किम्पुरुष - अश्वमुख आदि 08 प्रकार की देवसृष्टि है ।


क्लेष - 1

 अविद्या

यहाँ देखें पतंजलि साधन पाद सूत्र : 4 ⬇️

पञ्च क्लर्षों में पहला क्लेष अविद्या और क्लेषों की 04 अवस्थाएँ

 ऊपर दिए गए सूत्र की रचना को देखिये ⬇️

" अविद्या + क्षेत्र + उत्ततेषां + प्रसुप्त + तनु

 + विच्छिन्न + उदाराणाम् "

इस साधन पाद सूत्र - 4  में 07 शब्द हैं , उनके भवार्थों को यहाँ देखते हैं …

1 -  अविद्या अर्थात अज्ञान , 2 - क्षेत्र अर्थात स्थान , 3 - उत्तरेषाम् अर्थात शेष 04 क्लेषों की , 4 - प्रसुप्त अर्थात निद्रा अवस्था में  , 5 -  तनु अर्थात शिथिल अवस्था , 6 - विच्छिन्न अर्थात कई टुकड़ों में विभक्त ,7 -  उदाराणाम् अर्थात उदार अवस्था में । 

➡️ अब ऊपर दिए गए साधन पाद सूत्र - 04 का भावार्थ देखें ⬇️


● अविद्या ही अगले शेष चार अर्थात् अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्लेशों का उत्पत्ति क्षेत्र है ।

 ◆ प्रसुप्त , तनु  , विच्छिन्न और उदार क्लेषों की 04 अवस्थायें हैं ।

◆  अविद्या सब क्लेशों की जननी है

◆  सबके मूल में अविद्या की उपस्थिति रहती है 

ऐसा समझें कि अविद्या कारण (उत्पत्ति कर्ता) है और शेष  चार क्लेश ( अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) उसके कार्य हैं । 

क्लेषों की अवस्थाओं को समझें ⬇️

➡️ मनुष्य के  बालपन में प्रायः क्लेश  प्रसुप्त अवस्था में रहते हैं । उसके बाद उम्र और संसार के अनुभव  के साथ  क्लेश धीरे - धीरे तनु अवस्था में आते रहते हैं और  फिर विछिन्न एवं उदार होते चले जाते हैं । 

यदि क्रियायोग का सहारा न लिया जाए तो मनुष्य में सभी क्लेश  या तो विछिन्न अवस्था में रहेंगे या फिर उदार ( प्रकट रूप में ) अवस्था में रहेंगे।

जब कोई भी क्लेश अनुकूल वातावरण पाने पर तीव्र रूप में कार्य रूप में आ जाता है तो उसे उस क्लेश की उदार अवस्था में आना कहते हैं । 

अब क्लेषों की 04 अवस्थाओं को एक बार पुनः देख लेते हैं 👇

1 - प्रसुप्त अवस्था

जब  चित्त में क्लेश केवल बीज रूप में होता है तो क्लेश की यह अवस्था प्रसुप्त अवस्था होती  है । 

अभी क्लेश  का अंकुरण नहीं हुआ  है लेकिन  अनुकूल परिस्थिति मिलने पर कभी भी अंकुरण हो सकता है ।

2 - तनु अवस्था 

जब हम क्लेषों को दबा देते हैं तब वे तनु अवस्था में होते हैं । तनु अवस्था में जो क्लेष हैं , समझो वे प्रभावी होने का इंज़ार कर रहे होते हैं और अवसर आते ही वे केंद्र से परिधि पर आ जाते हैं अर्थात तनु अवस्था से उदार अवस्था में आ जाते हैं  ।

आज के समय में लोगों में सभीं क्लेश और बुरे संस्कार तनु अवस्था में हैं और लोगों के जीवन में क्रियायोग अर्थात तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान के अभ्यास के अभाव के कारण सारे मानसिक समस्याओं में उलझे हुए हैं ।

तनु अवस्था क्षीण की अवस्था होती है जो क्रियायोग सिद्धि से मिलती है । 

जब क्रियायोग ( साधन पाद - 01 ) की सिद्धि मिल जाती है तब क्लेष तनु अवस्था में आ जाते हैं लेकिन निर्मूल नहीं होते । तनु अवस्था में क्लेष पूर्ण रूप से निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं ।

साधन पाद - 2 में कहा गया है कि समाधि भाव उठते ही क्लेष तनु अवस्था में आ जाते हैं ।

 साधन पाद - 10 + 11 में बताता गया कि क्रियायोग और ध्यान से क्लेषों का नाश होता है 

और साधन पाद - 45 में बताया गया है कि ईश्वर

प्रणिधान से समाधि भाव जागृत होता है ।

अर्थात साधन पाद : 2 , 10 , 11 और 45 को एक साथ देखने से स्पष्ट होता है कि

जब चित्त समाधि को ओर रुख कर लेता है तब क्लेष क्षीण हो गए होते हैं । 

3 - विच्छिन्न अवस्था

 जब कोई एक क्लेश उदार अवस्था में आ जाता हैं तो उसके विरोधी स्वभाव वाले क्लेश चित्त में नीचे दब जाते हैं । क्लेष की यह स्थिति उसकी विच्छिन्न अवस्था होती है । 

इसे ऐसे समझें ⤵️

जैसे एक गुण अन्य दो गुणों को दबा कर ऊपर उठता है वैसे एक क्लेष अन्य 04 क्लेषों को दबा कर ऊपर उठता है । क्लेषों की इस अवस्था को विच्छिन्न अवस्था कहते हैं

4 - उदार अवस्था

सभी क्लेशों को जैसे ही अनुकूल वातावरण  मिलता है ,  वे उदार अवस्था में आकर मनुष्य को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त कर देते हैं और फिर नाना प्रकार दुःख मिलते रहते हैं ।

ध्यान रहे सभीं क्लेष एक साथ एक समय पर उदार अवस्था में नहीं आते ; जब एक उदार अवस्था में होता है तो अन्य अन्य अवस्थाओं में होते हैं ।


क्लेषों की दग्धबीज पांचवीं अवस्था⤵️

  क्लेशों की दग्धबीज की अवस्था केवल युक्त योगी जनों की होती है । जब किसी क्लेश की उदार या विछिन्न अवस्था को क्रियायोग के साधन से तनु किया जाता है और फिर योग मार्ग पर आगे बढ़ते हुए निर्बीज समाधि से पूरी तरह समाप्त किया जाता है , तब क्लेषों की अवस्था दग्धबीज की अवस्था होती है ।

जैसे किसी बीज को आग में भून दिया जाय तो उसमें अंकुरण की संभावना 100 प्रतिशत नष्ट हो जाती है , इसी तरह निर्बीज समाधि से पांचों क्लेशों को पूरी तरह भून (दग्धबीज) दिया जाता है और योगी क्लेषों की निर्बीज अवस्था को या दग्धबीज अवस्था को प्राप्त हो जाता है । 

यही योग साधना का लक्ष्य भी है ।

अतः साधक  को होशपूर्वक अपने क्लेशों की तनु अवस्था का ध्यान रखकर उन्हें उदार होने से पूर्व ही दग्धबीज करने का पूरा प्रयास करते रहना चाहिये। क्लेशों को तनु से उदार अवस्था में न आने देने के लिए प्रतिपक्ष भावना रूपी साधन का बार - बार प्रयोग करते रहना चाहिए। 

प्रतिपक्ष भावना का अर्थ है कि जो भी विकार, या कुसंस्कार प्रकट होना चाह रहा हो  उसके विपरीत अच्छे या शुभ गुणों का चिंतन करना या कुसंस्कार या क्लेश के दुष्परिणाम का चिंतन कर उससे दूर हटने का प्रयास करना , प्रतिपक्ष भावना है ।

इस प्रकार प्रतिपक्ष भावना से क्लेशों को उदार होने से बचाया जा सकता है , उन्हें दग्धबीज भी करने में आगे बढ़ा जा सकता है और अंतिम रूप से दग्धबीज करने के लिए निर्बीज या असम्प्रज्ञात समाधि में पहुंचना होता है।

ध्यान रखना होगा की निर्बीज समाधि या असम्प्रज्ञात समाधि से क्लेषों के बीज नष्ट तो हो जाते हैं लेकिन संस्कार अब भी शेष बच रहते हैं जो अनुकूल परिस्थिति  मिलने पर क्लेषों को उत्पन्न कर सकता है । 




▶️क्लेष - 01

अविद्या की परिभाषा

साधन पाद सूत्र : 5 

अनित्य को नित्य , अशुचि को शुचि , दुःख को सुख और अनात्म को आत्म समझना अविद्या है जिसे विपर्यय या अज्ञान भी कहते हैं



क्लेष - 2

 अस्मिता 

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 6 


अस्मिता 

अस्मिता का अर्थ है , चित्तका  अहं भाव - ऊर्जा से भरा हुआ होना । यहाँ ब्यक्ति विशेष में स्थित पुरुष स्वयं को मन, बुद्धि और इन्द्रियां समझने लगता है ।

ऊपर सूत्र कह रहा है -  द्रष्टा ( पुरुष ) और दृश्य ( प्रकृति ) का एक होना , अस्मिता है अर्थात अस्मिता ऊर्जा के प्रभाव में पुरुष स्वयं को बुद्धि , अहँकार , 11 इन्द्रियाँ , पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत समझने लगता है ।


क्लेष - 3

 राग 

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 7 


" सुख अनुशयी रागः "

अर्थात जो सुख के पीछे चले , वह राग है अर्थात वह ऊर्जा जो सुख की खोज में रखे ।


क्लेष - 4

 द्वेष 

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 8 

जो दुःखके पीछे चले या दुःखका अनुसरण करे , वह द्वेष है अर्थात जो दुःख की जननी हो ।

ओके

क्लेष - 5

अभिनिवेश  

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 9 

मृत्यु - भय से सभीं प्रभावित हैं चाहे कोई विद्वान हो या सामान्य ब्यक्ति । मृत्यु  - भय सबके संस्कार में होता ही है । इस मृत्यु - भय को  अभिनिवेश कहते हैं

मृत्यु भय के कारण मनुष्य की कामनाएं अनंत हैं ।




साधन पाद सूत्र : 2 > समाधि भाव जागृत होते ही क्लेश तनु अवस्था में आ जाते हैं 

ऊपर सूत्रमें बताया गया कि समाधि भावना जाग्रत् होते ही क्लेश तनु अवस्था में आ जाते हैं और साधन पाद - 45 में बताया गया है कि ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि मिलती है । 

अब तनु अवस्था को समझते हैं ⬇️


चित्त की निम्न 05 अवस्थाएं या भूमियां हैं  👇


सूत्र : 2 क्रमशः ⬇️

क्लेश तनु अवस्था में आ जाते हैं

चित्त की 05 भूमियों में पहली 03 ; क्षिप्ति , मूढ़ और विक्षिप्त अवरोध हैं और अंत की  दो एकाग्रता एवं निरु निवृत्ति मार्ग से जोड़ती हैं ।

अब भूमियों को समझते हैं ….

1 - क्षिप्ति भूमि में चित्त पूर्व अनुभवों पर भौरे की भांति मंडराता रहता हैं । 

2 - मूढ़ भूमि में चित्त दूसरों को नुकसान पहुंचाना चाहता है

3 - विक्षिप्ति भूमि में चित्त भ्रम - संदेह से भरा रहता है । 

4 - एकाग्रता भूमि में चित्त साधना अवलंबन पर केंद्रित रहता है ।

5 - निरु भूमि में चित्त समाधि में बसने का यत्न करता रहता है अर्थात समाधि केंद्रित हो जाता है ।

~~




साधन पादसूत्र : 11 

ध्यान से कलेशों का नाश  

"ध्यान से क्लेषों की वृत्तियां पूरी तरह निर्मूल हो जाती हैं "


क्लेश कर्माशय ( चित्त ) की मूल हैं 

साधन पाद सूत्र : 12 

साधन पाद सूत्र : 12 के सम्बन्ध में निम्न को समझें 👇

👉कर्म आशय अर्थात कर्म जहाँ एकत्रित होते रहते हैं अर्थात चित्त 

👉ध्यान से वर्तमान में तथा अगले जन्म में भोगे जानेवाले सभीं पाप - कर्म निर्मूल होते रहते हैं । 

👉कर्म से संस्कार बनते हैं जो कर्माशय ( मन ) में एकत्रित होते रहते हैं ।


क्लेश और आवागमन सम्बन्ध 

साधन पाद सूत्र : 13 +14

साधन पाद सूत्र : 13 

क्लेश की जड़ें जबतक हैं तबतक आवागमन में रहना पड़ता है ।

साधन पाद सूत्र : 14 

पुण्य - पाप कर्मों के आधार पर अगला जन्म और योनि निश्चित होती है ,  पाप - पुण्य कर्म फलों को भोगना पड़ता रहता है और आवागमन रहस्य भी यही है ।

🐧 पुण्य , पाप , पुण्य - पाप मिश्रित और निष्काम , ये 04 प्रकार के कर्म कहे गए हैंपुण्य कर्म सतगुणी करते हैं , पाप कर्म राजस - तामस गुणों के प्रभाव में होते हैं , मिश्रित कर्म तीनों गुणों के आपसी उतार - चढ़ाव के कारण भोगी लोग करते हैं और निष्काम स्थिर प्रज्ञ गुणातीत योगी करते हैं । 

🐚 निष्काम की चर्चा श्रीमद्भगवद्गीता में प्रभु श्री कृष्ण करते हैं लेकिन इसके बारे में और कुछ कहा नहीं गया 

है । 

💐 जब तक क्लेष निर्मूल नहीं होते तबतक सुख - दुख भरा जीवन जीना पड़ता है

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