गीता अध्याय - 5 हिंदी भाषान्तर

 


अब आगे ⤵️अध्याय : 05 का सार..

क्र सं

बिषय

श्लोक

1

अर्जुन का प्रश्न 

कर्मीयोग - कर्मसंन्यास

2

2

प्रभु के श्लोक 

2 - 29 

2.1

● समभाव ●सांख्ययोग और कर्मीयोग ● कर्मीयोग से कर्म संन्यास

◆ तत्त्ववित् ◆कर्म आसक्ति ◆ कर्मफल

X

2.2

●प्रभु के सम्बन्ध में 

◆ ज्ञान ● समदर्शी ◆ ब्रह्म 

# इंद्रिय - बिषय संयोग भोग है # योगी कौन 

ब्रह्मनिर्वाण , यज्ञ 

★ आज्ञाचक्र पर ध्यान

X



 अब अध्याय : 05 का हिंदी भाषान्तर ⤵


श्लोक - 1

अर्जुन पूछ रहे हैं …
हे कृष्ण ! आप कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों की प्रशंसा करते हैं । आप मुझे केवल वह बतायें जो मेरे लिए कल्याणकारी हो ।

आगे श्लोक 5.2 से 5.29 तक प्रभु श्री कृष्ण के हैं⤵

श्लोक - 2 

कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों कल्याणकारी हैं पर कर्म योग , कर्म संन्यास से श्रेष्ठ है ।

श्लोक - 3 

जो द्वेष -आकांक्षा रहित है , वह नित्य सन्यासी है । सन्यासी द्वन्द्व मुक्त संसार बंधन मुक्त सुखी रहता है ।

श्लोक - 4 

सांख्ययोगौ पृथकबाला :

 प्रवदन्ति न पंडिता : ।

एकम् अपि आस्थित: सम्यक् 

 उभयो : विन्दते फलम् ।। 

सांख्ययोगौ (सांख्य - योग ) और कर्मयोग के फल को मूर्ख लोग अलग - अलग समझते हैं न कि पण्डित 

लोग ।

सांख्य और योग दोनों में से एक में भी स्थित दोनों के फलको प्राप्त होता है जो एक है ।  पण्डित ऐसा समझते  हैं परन्तु मूर्ख इन दोनों के फल को अलग - अलग समझते हैं ।

श्लोक - 5

जो सांख्ययोग से मिलता है वही कर्म योग से भी मिलता है , ऐसा देखनेवाला यथार्थ देखता है ।

श्लोक - 6 

कर्मयोग के बिना कर्म संन्यास प्राप्त करना कठिन और दुखद होता है । प्रभु केंद्रित योगयुक्त ब्रह्म की अनुभूति करता है ।

श्लोक - 7

शांत मन वाला कर्म बंधन मुक्त रहता है 

श्लोक : 8 - 9

तत्त्ववित् देखता हुआ , स्पर्श कैट हुआ , सुनता हुआ , सूँघता हुआ भोजन करता हुआ , गमन करता हुआ , सोता हुआ , श्वास लेता हुआ , बोलता हुआ , त्यागता  और ग्रहण करता हुआ आँखों को खलता हुआ , बंद करता हुआ हर परिस्थितियों में इंद्रियों के कार्यों का मात्र द्रष्टा बना रहता है ।

श्लोक - 10 

जो पुरुष अपने कर्मों को आसक्ति रहित करता है और ब्रह्मको अर्पित भाव से करता है वह जल में कमलके पत्ते की भाँति पापसे अछूता रहता है ।

श्लोक - 11

योगी केवल आत्मशुद्धि हेतु शरीर , इन्द्रिय ,मन और बुद्धि से कर्म करता हैं।

श्लोक - 12

योगयुक्त कर्मयोगी  कर्मफल त्यागीके रूपमें नैष्टिक शांति प्राप्त करता है और अयुक्त योगी कामनासे प्रेरित हो कर कर्म करता हुआ , कर्मफल बंधनसे बधा होता है।


श्लोक - 13

मनसे सभी कर्मोंका त्याग करके सुखी पुरुष का 

देही ( जीवात्मा ) 09 द्वारों वाले घर में सुखसे रहता है ।

श्लोक - 14 

प्रभु कर्तापन , कर्म और कर्मफल संयोग की रचना नहीं करते , यह सब मनुष्यके स्वभाव पर आधारित होता है ।

श्लोक - 15 

प्रभु किसी के पाप कर्म एवं शुभ कर्मको ग्रहण नहीं करते लेकिन अज्ञानी लोग इसके विपरीत समझते हैं ।


श्लोक - 16 

आत्म - ज्ञान से अज्ञान निर्मूल होता है और

अष्टम ज्ञानी का आत्म - ज्ञान आदित्यवत् परम प्रकाश से उसे प्रकाशित कर देता है ।

श्लोक - 17 

जिसकी निष्ठा ,मन और बुद्धि प्रभु समर्पित है , वह ज्ञान प्राप्ति के कारण आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

श्लोक - 18 

पण्डित, विद्या - बिनय , ब्राह्मण , गौ , हाथी , कुत्ता , चांडाल आदिनमें समदर्शी होता है ।


श्लोक - 19 

समभाव प्राप्त ब्यक्ति , सर्वजीत होता है ।

श्लोक - 20 

प्रिय - अप्रिय से साथ समभाव में जो रहता है , जो संशय मुक्त होता है वह स्थिर बुद्धि ब्रह्मवेत्ता , ब्रह्म में स्थित होता है ।

श्लोक - 21

बाह्यस्पर्शेषु असक्तात्मा बिंदति आत्मनि यत् सुखम ।

सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखं अक्षयं अश्नुते ।।

➡️ इन्द्रिय विषय आसक्तिमुक्त  ब्रह्मयोगयुक्त योगी अक्षय आनंद प्में रहता है ।

श्लोक - 22

इन्द्रिय - विषय संयोग की निष्पत्ति , भोग है  जो दुःख का कारण और अनित्य हैं , उनमें बुद्धिमान पुरुष नहीं रमते।


श्लोक - 23 : योगी कौन ?

शरीर त्यागसे पूर्व जो मनुष्य काम - क्रोधसे अप्रभावित रहने लगता है । वह मनुष्य सुखी रहता है और वही योगी होता है ।

श्लोक - 24 : योगी

आत्मा में रमा हुआ , अंतर्ज्योति प्राप्त करता है और परम् सुख के साथ वह ब्रह्मभूत , ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करता है ।


श्लोक - 25 : योगी

जो पापमुक्त ,सन्देह मुक्त और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत है ,  वह आत्मा केंदित ऋषि ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है ।



श्लोक - 26 : योगी

काम - क्रोध विमुक्त नियोजित चित्त वाला एवं ब्रह्म की अनुभूति वाला ज्ञानी होता है और ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करता है ।।

श्लोक : 27 - 28 :  ध्यान विधि 

➡️बिषय चिंतन मुक्त चित्त होना  चाहिए ..,

➡️ नेत्र दृष्टि को भृगुटी के मध्य स्थित करके नासिका में विचरने वाले प्राण - अपान  वायुओं को सम करके के अभ्यास से इन्द्रिय ,मन और बुद्धि नियोजित होते हैं और ऐसा योगी इच्छा , भय और क्रोध मुक्त होता है तथा वह सदा मुक्त ही रहता है ।।

श्लोक - 29 : यज्ञ

जो मुझे सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता समझता है , 

सभी लोकों के ईश्वरोका ईश्वर रूप में देखता है तथा सभी भूतों के प्रति दया भावना वाला समझता है , वह ज्ञानी शांति प्राप्त करता है ।

// अध्याय - 5 समाप्त //

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

मन मित्र एवं शत्रु दोनों है