गीता अध्याय - 16 हिंदी भाषान्तर
( गीता अध्याय - 15 को गीता जे मोती ब्लॉग में देखें )
इस अध्याय के सारे श्लोक प्रभु श्री के हैं ..
श्लोक : 1- 3 दैवी संपदाके लोगों की पहचान
➡️ अभय , निर्मल अंतःकरण , ज्ञानयोग में दृढ स्थिति , दान , दम ( इन्द्रिय दमन ) , यज्ञ , स्वाध्याय , तप , शरीर , इन्द्रिय सहित अन्तः करण की सरलता ⤵️
🐧 हे अर्जुन ! निम्न लक्षण दैवी संपदा के साथ उतपन्न हुए लोगों के हैं ⤵️
➡ अहिंसा , सत्य , अक्रोध , त्याग , शांति , निंदा न करना , दया भाव , इन्द्रिय - बिषय संयोग होने पर भी अनासक्त भाव में रहना , कोमलता , लोक - शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा , व्यर्थ चेष्ठाओं का अभाव ⤵️
➡ तेज , क्षमा , धैर्य , शौच ( बाहर की पवित्रता ) , अद्रोह , अपनें में पूज्यता के अभिमान का अभाव का होना ,
श्लोक : 4 आसुरी सम्पदा के लोग
⚛ दंभ , दर्प ( घमंड ) , अभिमान , क्रोध , कठोरता , अज्ञान आदि , आसूरी सम्पदा के लोगों के लक्षण हैं ।
श्लोक : 5 आसूरी एवं दैवी सम्पदा के लोग
🌷 दैवी संपदा मुक्ति हेतु और आसुरी सम्पदा बंधन हेतु है ।
हे अर्जुन ! तुम दैवी संपदा के साथ उत्पन्न हुए हो अतः युद्ध में मरने वालों के लिए शोक मत करो ।
श्लोक : 6 > दो प्रकार के लोग
☸ इस लोक में निम्न दो प्रकार के भूतसर्ग हैं ⤵️
1 - दैवी संपदा के लोग
2 - दूसरे आसुरी संपदा के लोग ,
अब तुम आसुरी संपदा के संबंध में सुन ...
श्लोक : 7
⚛ आसुरी संवाद वाले लोग प्रवृत्ति - निवृत्ति दोनों मार्गों को नहीं समझते , शौच की अनुपस्थिति ( अंदर - बाहर की शुद्धता की कमी ) , आचार रहित और सत्यसे दूर रहते हैं । यहाँ भागवत के निम्न सन्दर्भ को भी देखें⤵️
भागवत : 2.1> शुकदेवजी कह रहे हैं ⤵️
➡️ भोगी का दिन धन संग्रह की हाय - हाय में और रात्रि स्त्री प्रसंग में गुजरती है ।
श्लोक : 8
➡️ आसुरी स्वभाव वाले जगत् को आश्रय रहित , असत्य और ईश्वर रहित मात्र स्त्री - पुरुष संयोग से उत्पन्न समझते हैं और केवल काम ही को जगत् के होने के हेतु रूप में देखते हैं ।
श्लोक : 9
➡️ जैसा ऊपर श्लोक में बताया गया है वैसे मिथ्या ज्ञानको अवलंबन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है , जो अल्प बुद्धि हैं , सबका अपकार करनेवाले हैं ऐसे क्रूर कर्मी मनुष्य जगत् के नाशक हैं ।
श्लोक : 10
➡️ दम्भ , मान , मद से युक्त , दुष्पूर (कभीं पूरा न होने वाली ) कामनाओं के आश्रित , मोह के प्रभवव में असद् को ग्रहण भ्रष्ट आचरण को धारण किये हुए संसार में विचरते हैं ।
श्लोक : 11
➡️ मृत्यु पर्यंत रहने वाली अपरिमेय (असंख्य ( चिंताओं के आश्रय लेने वाले , बिषय - भोगों में डूबे हुए और इसे ही सुख समझने वाले आसुरी सम्पदा के लोग होते हैं ।
श्लोक : 12
➡️ सैकड़ों आशा की फासियों से बँधे हुए , काम - क्रोध परायण काम भोगार्थ अन्याय पूर्वक अर्थ संचय की चेष्टा करते हैं । यहाँ निम्न ओरसंग को भी देखें ⤵️
भागवत : 2.1 > शुकदेवजी
☸ भोगी का दिन धन संग्रह की हाय में और रात स्त्री प्रसंग की सोच में गुजरती है ।
भागवत : 11.28
बिषय चिंतन एक मजबूत बंधन है ।
भागवत : स्कन्ध - 12
बिषय चिंतन मनको बिषयाकार बताता है ।
भागवत : स्कन्ध : 5
● स्त्री पुरुष दाम्पत्य , हृदय की दूसरी दुर्भेद्य ग्रंथि है ।
● कर्म बासनाएँ दाम्पत्य भाव पैदा करती हैं ।
श्लोक : 13
➡️ मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है , अब मैं इस मनोरथ को पूरा कर लूँगा , आज मेरे पास यह घन है , कल और इतना हो जाएगा , ऐसी सोच आसुरी सम्पदा वाले रखते हैं ।
श्लोक : 14
➡️ यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है , दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा , मैं ईश्वर हूँ , ऐश्वर्य भोगनेवाला हूँ , मैं सभीं सिद्धियों से युक्त हूँ , बलवान हूँ , सुखी हूँ , इस सोच के लोग आसुरी संपदा के लोग होते हैं ।
श्लोक : 15 - 16
➡️ बड़ा घनी हूँ , बड़े कुटुम्बवाला हूँ , मेरे समान और कोई नहीं , यज्ञ करूँगा , दान दूँगा , आमोद - प्रमोद करूँगा इस प्रकार अज्ञान विमोहित रहनेवाले , अनेक - अनेक भ्रमित चित्त वाले मोह - जाल में समावृत काम - भोग में अत्यंत आसक्त वाले नरक गामी होते हैं ।
श्लोक : 17
➡️आसुरी सम्पदा के लोग स्वयंको श्रेष्ठ समझनेवाले घमंडी धन - मान मद से युक्त केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा द्वारा पाखंड से शास्त्र विधि रहित यजन करते हैं ।
श्लोक : 18
➡️ आसुरी सम्पदा के लोग अहँकार , बल , घमंड कामना , क्रोध परायण , पर निंदक , अपनें और अन्यों के देह में बसने वाले मुझसे द्वेष करते हैं ।
श्लोक : 19
➡️ ऐसे पापाचारी क्रूरकर्मी नर अधर्मों को मैं संसार में आसुरी योनियों में बार - बार डालता रहता हूँ ।
श्लोक : 20
➡️ वे मूढ़ आसुरी स्वभाव वाले मुझे न प्राप्त होकर , जन्म - जन्म में आसुरी योनियों को प्राप्त होते रहते हैं और उससे भी नीच योनियो को प्राप्त होते रहते हैं ।
श्लोक : 21
➡️ काम क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं ।
श्लोक : 22
➡️ इन तीनों नरक द्वारों से मुक्त , परम् गति को प्राप्त होता है ।
श्लोक : 23
➡️ जो शास्त्र विधियीं से हट कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है , वह न तो सिद्धि प्राप्त करता है न ही परमगति को प्राप्त होता है ।
श्लोक : 24
➡️ शास्त्र आधारित कर्तव्य - अकर्तव्य को समझना चाहिए और शास्त्रानुकूल कर्म करना चाहिए ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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