गीता अध्याय - 11 हिंदी भाषान्तर
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 11
हिन्दी भाषान्तर ⤵️
◆ सम्पूर्ण गीता में अर्जुन के कुल 86 श्लोक हैं
जिनमें से 33 श्लोक इस एक अध्याय में हैं ।
● गीता के 700 श्लोकों में से अध्याय - 10 तक 414 श्लोक हैं , और ⤵️
◆ गीता में अर्जुन के 16 प्रश्न हैं जिनमे से 3 प्रश्न इसी अध्याय में हैं और अर्जुन कह रहे हैं कि आपके परम गोपनीय वचनों से मेरा मोह समाप्त हो गया है , अब मैं स्थिर चित्त हूँ और प्रश्न के बाद प्रश्न पूछ रहे हैं ।
◆ मनुष्य लोगों को धोखा देते - देते इतना आदी हो जाता है कि वह स्वयं को धोखा देने लगता है ।
☸ प्रश्न संदेह युक्त बुद्धि , अशांत मन और अहँकार से उपजता है फिर अर्जुन स्थिर चित्त कैसे हुए !
अर्जुन , प्रभु श्री कृष्ण को सखा और परमात्मा कहते तो हैं लेकिन दिल से नहीं , अन्यथा उनकी बुद्धि शांत और संदेहमुक्त होनी चाहिए थी पर अभीं तक ऐसा हुआ दिखता नहीं। अब आगे ⤵️
गीता अध्याय - 11 का हिंदी भाषान्तर ⤵️
श्लोक - 1- 4 > अर्जुन का प्रश्न - 10
➡️ मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आप जो परम गुह्य अध्यात्म ज्ञान के वचन कहे , उनसे मेरा अज्ञान समाप्त हो गया है । मैं आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय की अविनाशी महिमा को विस्तार पूर्वक सुना है । हे परमेश्वर ! आप स्वयं के संबंध में जैसा कहते हैं वैसा ही है । हे पुरुषोत्तम ! मैं आपके ऐश्वर्य रूप को देखना चाहता हूँ । हे प्रभो ! यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखने शक्य है और यदि आप ऐसा मानते हैं तो हे योगेश्वर ! आप अपनें अव्यय स्वरूप का दर्शन करायें ।
श्लोक : 5 - 8 > प्रभु श्री कृष्ण
हे पार्थ ! अब मेरे सैकड़ों - हजारों नाना प्रकार और नाना वर्ण तथा नाना आकृतियों वाले अलौकिक रूपों को देख ।
हे भारत ! मुझमें अदिति के 12 पुत्रों , 08 वसुओं ,
11 रुद्रों , दोनों अश्विनी कुमारों और 49 मरुद्गणों
को देख तथा बहुत से पहले न देखे गए आश्चर्यमय रूपों को भी देख ।
यहाँ इस संदर्भ में निम्न को भी देखें ⤵️
⚛ 08 धरती के देवता वसु ⤵️
1 - अहश , 2 - ध्रुव 3 - सोम 4 - धरा 5 - अनिल
6 - अनल 7 - प्रत्युष 8 - प्रभास
☸ 11 रुद्र ⤵️
11 रूद्र सदा देवताओं की रक्षा हेतु स्वर्ग में ही रहते हैं । रूद्र भगवान शिव के 11 अवतार हैं ।
कश्यप ऋषि की सुरभि पत्नी के गर्भ से 11 रुद्रों की उत्पत्ति हुई । यह बात उस समय की है जब देवता असुरों से हार गए थे । सभीं देवता अपनें पिता कश्यप ऋषि से अपनी सुरक्षा हेतु प्रार्थना
की । कश्यप ऋषि काशी विश्वनाथ की आराधना करके अपने पुत्र रूप में उन्हें पैदा होने का बर माँगा और शिव के अवतार रूप में पुत्र रूप में निम्न 11 रुद्रों को प्राप्त किये ।
1- कपाली , 2 - पिंगल 3 - भीम 4 - विरुपाक्ष
5 - विलोहित 6 - शास्ता 7 - अजपाद
8 - अहिर्बुधन्य 9 - शंभु 10- चंड 11 - भव
दो अश्विनी कुमार...
अश्वनी कुमारों के नाम नासत्य और द्स्त्र ।
अश्विनीकुमार सौभाग्य और सुख प्रदान करने वाले देवता हैं । ऋग्वेद : 1.3 , 1.22 , 1.34 के अनुसार इनका सम्बन्ध रात्रि - दिवस के संधि काल से है। इनको देव् चिकित्सक के रूप में देखा जाता है । अश्विनी कुमार चिकित्सा के आदिआचार्य एवं देवता माने जाते हैं । ऋग्वेद में इनका सन्दर्भ 376 बार मिलता है जो 57 ऋचाओं में संग्रहित है । अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा और सूर्य से उत्पन्न सूर्य के औरस पुत्र हैं ।
नकुल - सहदेव इनके अंश थे ।
अश्वनी कुमार शर्याति की पुत्री सुकन्याके पतिव्रतसे प्रसन्न हो कर महर्षि च्यवनको उनके बृद्धावस्थासे चिर यौवन अवस्था प्रदान किये थे ।
श्लोक : 5 - 8 क्रमशः ⤵️
प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ⤵️
हे अर्जुन!अब तुम मेरे इस शरीर में एक स्थान पर स्थित चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख लेकिन तुम अपनें इन चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकता अतः अब मैं तुम्हें दिव्य चक्षु देता हूँ , जिससे तुम मेरी ईश्वरीय योग को देख सकेगा।
श्लोक - 09 - 14
सज्जय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं..
श्लोक : 9
हे राजन् ! महायोगेश्वर श्री हरि इस प्रकार कह कर अर्जुनको परम् ऐश्वर्य रूप दिखाते हैं ।
श्लोक : 10 - 11
अनेक मुख , अनेक नयन अनेक अद्भुत दर्शनवाले , अनेक दिव्य आभूषणों से युक्त अनेक दिव्य शस्त्रों को हाँथ में धारण किये हुए , दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए , दिव्य गंध का देह में लेप किये हुए सर्व आश्चर्य युक्त , अनंत , विश्वतोमुख , देवको अर्जुन देख रहे हैं ।
श्लोक : 12
आकाश में हजारों सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक , प्रभुके प्रकाशको अर्जुन देखते हैं ।
श्लोक : 13
पाण्डव अर्जुन उस समय अनेक प्रकार से विभक्त पृथक - पृथक सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव प्रभु श्री कृष्ण के देह के एक छोटे से स्थान में स्थित देखते हैं ।
श्लोक : 14
आश्चर्य चकित और पुलकित अर्जुन सिर झुका कर प्रणाम करके इस प्रकार बोलते हैं ⤵️
श्लोक : 15 - 31 ( 17 श्लोक )
अर्जुन कह रहे हैं
श्लोक : 15 - 16
हे देव ! आपके देह में सम्पूर्ण देवों को , अनेक भूतोंके समुदायको , कमलासन पर विराजमान ब्रह्मा को ईशम
(महादेव ) को , सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ ।
हे विश्वेश्वर ! आपको अनेक भुजा , अनेक पेट ,अनेक मुख , अनेक नेत्र वाले के रूप में तथा अनंत रूपों वाला देखता हूँ ।
हे विश्वरूप ! मैं जैसा आपको देख रहा हूँ , उसका अंत , मध्य और आदि भी नहीं दिख रहा ।
श्लोक : 17 - 18
मैं आपको मुकुट , गदा और चक्र युक्त सब ओर से प्रकाशमान तेजयुक्त प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त ,अप्रमेय बड़ी कठिनता से देख पा रहा हूँ ।
आप इस जगत् के परम् आश्रय , परम् अक्षर , शाश्वत धर्म के रक्षक हैं । आप अविनाशी , सनातन पुरुष हैं ।
श्लोक : 19 - 20
मैं आपको आदि , मध्य और अंत रहित अनंत सामर्थ्य युक्त , अनंत भुजावाले , चंद्र - सूर्य नेत्र वाले , प्रज्वलित अग्नि रूप मुखवाले और अपने तेज से विश्व को संतप्त करते हुए देखता हूँ ।
स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य स्थित आकाश , सभीं दिशाएं आदि आपसे परिपूर्ण हैं । आपके इस अद्भुत उग्र रूप को देख कर तीनों लोक व्यथित हो रहे हैं ।
श्लोक - 21
मैं ऐसा देख रहा हूँ कि देवताओं का समूह आपमें प्रवेश कर रहा है और उन में से कुछ भयभीत हो कर आपका गुणगान कर रहे हैं ।
महर्षि और सिद्ध स्वस्ति कह कर उत्तम - उत्तम स्त्रोतों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं ।
श्लोक - 22
जो 11 रुद्र , 12 आदित्य , 08 बसु , साध्यगण , विश्वेदेवा , अश्विनीकुमार ,मरुद्गण , पितरों का समुदाय , गंधर्व , यक्ष , राक्षस एवं सिद्ध समुदाय वे सभीं विस्मित हो कर आपको देख रहे हैं ।
श्लोक - 23
हे महाबाहो !अनेक मुख , नेत्र , हाँथ , जंघा , पैर , उदर और दाढ़ आदि के कारण अत्यंत विकराल आपके रूप को देख कर सबलोग व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ ।
श्लोक - 24
हे विष्णो ! आकाश को स्पर्श करनेवाले दीप्तमान , अनेक वर्णों से युक्त , फैलाये हुए मुख और दीप्ति विशाल नेत्र युक्त आपको देख कर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति नहीं पा रहा हूँ ।
श्लोक - 25
मैं प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुख को देख कर दिशाओं को भी भूल चुका हूँ ।
आपको इस रुपों में देख कर सुखी भी नहीं हूँ ।
हे जगन्निवास ! , देवेश ! , आप प्रसन्न हों ।
श्लोक - 26 - 27
सभीं धृतराष्ट्र पुत्र , राजाओं के समुदाय सहित , आप में प्रवेश कर रहे हैं ।
भीष्मपितामह , द्रोणाचार्य , कर्ण तथा हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं सहित सभीं आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े बेग से प्रवेश कर रहे हैं तथा इनमें से कई एक सिरों सहित चूर्ण हुए दांतों के मध्य फसे हुए दिख रहे हैं ।
श्लोक - 28
जैसे बहुत से भागते हुए जल - प्रवाह सागर में प्रवेश करते हैं वैसे नरलोक के वीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।
श्लोक - 29
जैसे पतंगा नष्ट होने हेतु प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से प्रवेश करता है वैसे सभीं लोग नष्ट होने हेतु आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।
श्लोक - 30
आप सम्पूर्ण लोकों को अपनें प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार - बार चाट रहे हैं ।
हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज द्वारा तपा रहा है ।
श्लोक - 31
आप मुझे बतायें कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं ? आपको प्रणाम , आप प्रसन्न होइए ।
हे आदि पुरुष ! मैं आपको विशेष रुप से जानना चाहता हूँ , क्योंकि मैं आपके प्रकृति को नहीं जानता ।
श्लोक : 32 - 34
प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं…
मैं लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ ।
इस समय मैं इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवित्त हुआ हूँ । प्रतिपक्षी योद्धा लोग बच नहीं सकते चाहे तूँ युद्ध कर या न कर । अतएव तूँ उठ ! यश प्राप्त कर , शत्रुओं को जीत कर धन - धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग । ये सभीं शूरवीर पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं ।
हे सव्यसाचिन ! तूँ केवल निमित्तिमात्र बन जा ।
द्रोणाचार्य , भीष्म पितामह , जयद्रत , कर्ण तथा और भी बहुत से लोग मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं । उन मारे हुए शूरवीरों को तूँ मार , भय मत कर । तुम्हारी जीत में कोई संदेह नहीं , तूँ युद्ध कर ।
श्लोक - 35 :: सज्जय कह रहे हैं ⬇️
केशव के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अर्जुन काँपते हुए हाँथ जोड़ कर नमस्कार करके अत्यंत भयभीत होकर प्रणाम करके गदगद वाणी में यह कहते हैं ….
श्लोक : 36 - 46 अर्जुन कह रहे हैं ⤵️
श्लोक - 36
हे हृषिकेश !सारा जगत् आपके नाम - गुण तथा प्रभाव के कीर्तन से अति हर्षित हो रहा है एवं अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है । भयभीत राक्षस लोग भाग रहे हैं । सब सिद्ध गण आपको नमस्कार कर रहे हैं ।
श्लोक - 37
हे महात्मन् ! ब्रह्मा के भी आदि करता , सबसे बड़े आपके लिए कैसे नमस्कार न करें !
हे अनंत ! हे देवेश ! हे जगन्निवास !
सत् असत् , उससे भी परे अक्षर भी आप ही हैं ।
त्वं अक्षरं सत् असत् तत्परं यत्
श्लोक - 38
आप आदि देव , सनातन पुरुष हैं । आप विश्व के परम् निधान हैं । आप जाननेवाले , जाननेयोग्य परमधाम हैं । हे अनंत रूप ! आपसे जगत् ब्याप्त एवं परिपूर्ण है ।
श्लोक - 39
वायु , यमराज , अग्नि , वरुण , चंद्रमा प्रजापति , और प्रजापिता के भी पिता , आप हैं । आपको हजारोबार नमस्कार , बार - बार नमस्कार ।
श्लोक - 40
हे अनंतवीर्य ! आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार । हे सर्व ! सब ओर से आपको नमस्कार । अनंत पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किये हुए हैं , आप ही सर्वरूप हैं ।
श्लोक - 41 - 42
आपके ऊपर व्यक्त महिमा को न जानते हुए , आपको अपना सखा मानकर प्रेम से या प्रमाद से भी मैंने हठात् आपको हे यादव , हे सखे आदि ऐसे संबोधन प्रयोग किये हैं तथा अकेले एवं सखाओं के मध्य विनोद के लिए , विहार , शय्या , भोजन और अकेले आदि परिस्थियों में यदि मैं आपको अपमानित किया हूँ तो उसके लिए हे अप्रमेय! मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ ।
श्लोक - 43
आप चराचर जगत के पिता , सबसे बड़े गुरु , पूज्यनीय , अनुपम प्रभाव वाले हैं । तीनो लोकों में आपके समान दूसरा और कोई नहीं।
श्लोक - 44
मैं आप ईश्वर को प्रसन्न करने हेतु आपके चरणों में अपने शरीरको अर्पित करके प्रणाम करता हूँ ।
जैसे एक पिता अपनें पुत्र का , एक सखा अपनें अन्य सखा का और पति अपनें प्रियतमा का अपराध सहन करता है वैसा आप मेरे अपराध को क्षमा करें ।
श्लोक - 45 , 46
अर्जुन का गीत में बारहवाँ प्रश्न ⤵️
पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूपकों देख कर मैं हर्षित हो रहा हूँ और भय के कारण व्याकुल भी हो रहा हूँ अतः आप अपने देवरूप को ही दिखाएं । मैं आपको मुकुट हाँथ में गदा , चक्र धारण किये हुए देखना चाहता हूँ । अतः हे विश्वमूर्ते ! हे सहस्त्रबाहो ! उसी चतुर्भुज रूप को आप मुझे दिखाएं ।
श्लोक : 47- 50 >प्रभु कह रहे है
श्लोक : 47
हे अर्जुन ! अनुग्रह पूर्वक मैंने अपनी योग शक्ति से तुम्हें अपना यह तेजोमय , सबका आदि , सीमा रहित विराट्
स्वरुप दिखलाया । इस स्वरुप को और किसीने नहीं देखा है ।
श्लोक : 48
हे अर्जुन ! मैं इस विश्वरूप में किसी और के द्वारा वेद , यज्ञ , दान , क्रियाओं और उग्र तपों के माध्यम से भी कभीं नहीं देखा जा सकता।
श्लोक : 49
मेरे इस विकराल रूपको देखनें से तुझे व्याकुल नहीं होना चाहिएऔर मूढ़ भाव भी नहीं आना चाहिए ।
तुम प्रीतियुक्त भयरहित स्थिति में मेरे इस रूप को पुनः देख ।
श्लोक : 50
सज्जय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं ⤵️
वासुदेव श्री कृष्ण ऐसा कहकर पुनः अपनें चतुर्भुत रूप को दिखाया और महात्मा श्री कृष्ण सौम्य मूर्ति हो कर भयभीत अर्जुन को धीरज दिया ।
श्लोक : 51
पुनः अर्जुन कह रहे हैं …
हे जनार्दन ! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देख कर सचेत हो गया हूँ और अपनीं प्रकृति में आ गया हूँ ।
श्लोक : 52 - 55 >प्रभु कह रहे हैं …
श्लोक - 52
मेरा जो यह चतुर्भुज रूप तुम देखे हो , उसका दर्शन दुर्लभ है । देवता लोग मेरे इस रूपके दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं ...
श्लोक - 53
मेरा यह रूप वेद , तप , दान और यज्ञ से भी नहीं देखा जा सकता ।
यही बात श्लोक - 48 में भी प्रभु बताये हैं ।
श्लोक - 54
हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए , तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ ।
श्लोक - 55
हे पाण्डव ! जो अपनें सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मेरे लिए करता है , मेरे परायण है , मेरा भक्त है , आसक्ति रहित है , निर्वैर है , वह मुझे प्राप्त करता है ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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