गीता अध्याय - 10 हिंदी भाषान्तर
# देखे > गीता के मोती , ॐ शांति ॐ , कौन सुनता है
गीता अध्याय : 10 का हिंदी भाषान्तर
गीता अध्याय - 10 में 42 श्लोक हैं , जिनमें 07 श्लोक अर्जुन के हैं और शेष 35 श्लोक प्रभु श्री कृष्ण के हैं ।
अर्जुन का प्रश्न : 9
【 श्लोक : 12 - 18 कुल 07 श्लोक 】
हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरंतर आपका चितन करता हुआ आपको जानूँ ? और आप किन - किन भावोंमें चिंतन योग्य हैं ?
हे जनार्दन ! आप फिर से अपनीं योग और विभूतियोंको विस्तारसे कहिए क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मैं अभीं भी तृप्त नहीं हुआ हूँ ।
अर्जुन जो कह रहे हैं , वह हृदय नहीं अपितु भ्रमित बुद्धि आधारित है । आगे अर्जुन जो कह रहे हैं उसे ध्यान से समझते हैं ⤵️
➡️ आप परम् ब्रह्म , परम् धाम और परम् पवित्र हैं । सभीं ऋषिगण आपको सनातन , दिव्य पुरुष , देवताओंका आदि देव , अजन्मा , सर्वव्यापी कहते हैं । देवर्षि नारद , असित , देवल और व्यास आपके सम्बन्धमें भी वही बात कहते हैं जो आप मुझे स्वयं के सम्बन्ध में बता रहे हैं ।
हे केशव ! आप जो भी कहते हैं उसे मैं सत्य मानता हूँ । हे भगवान् ! आपको न दानव जानते और न ही देवता । केवल आप ही अशेषरूपेण अपनें उन आत्म विभूतियोंको व्यक्त करनेमें समर्थ हैं जिनसे द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करते स्थित हैं ।
प्रभु श्री कृष्ण अपने 35 श्लोकों में से 31श्लोकों में 121 उदाहरणों से अपनें निराकार स्वरुप को साकार स्वरूपों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं जिनमें से कुछ चुने हुए उदाहरणों को नीचे दिखता गया है ।
कुछ उदाहरणों को यहाँ देखें ⤵️
गीता में प्रभु को समझने के लिए दिए गए उदाहरणों + विभूतियों का वर्णन ⤵️
🕉️ गीता में प्रभु श्री कृष्ण के 574 श्लोक हैं जिनमें से 159 श्लोकों में 307 उदाहरणों के माध्यम से स्वयं को प्रभु होने की बात कहते हैं लेकिन फिरभी अर्जुन दिल से उन्हें प्रभु नहीं स्वीकारते ।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 10 के
श्लोकों का हिंदी भाषान्तर
श्लोक -1
महाबाहो ! अब तुम मेरे उस परम् वचन को सुन जो तुम्हारे लिए हितकारी है तथा जिसे मैं अपनें अति प्रिय के लिए कहने जा रहा हूँ ।
श्लोक - 2
मेरे प्रभाव को देवता गण और महर्षि गण भी नहीं जानते , क्योंकि मैं इन सबका आदि कारण हूँ ।
श्लोक - 3
जो मुझे अनादि , लोकमाहेश्वर , अजन्मा रूप में तत्त्व से समझते हैं , वे असंमूढ़ पुरुष सभीं पापों से मुक्त हो जाते हैं ।
श्लोक - 4 ,श्लोक - 5
बुद्धि , ज्ञान , असम्मोह , क्षमा , सत्य , दम
( इन्द्रियों का बश में होना ) , शम (नियंत्रित मन ) , सुख - दुःख , भव - अभाव (उत्पत्ति - प्रलय ) , अहिंसा , समता , तुष्टि , तप , दान , यश , अयश , नाना प्रकार के भूतों के अंदर उठने वाले भाव ,
मुझ से हैं ।
◆ यहाँ निम्न गीता श्लोक : 7.12, 7.13 और
गीता : 13.7 - 13.11 को भी देखें ⬇️
1 - गीता श्लोक : 7.12 - 7.13
◆ तीन गुणों से उपजने वाले सभीं भाव मुझसे हैं लेकिन उन भावों में मैं नहीं ।
● गुणों के भावों से सम्मोहित मनुष्य मुझ अव्यय को नहीं समझ पाता ।
2 - गीता श्लोक : 13.7 - 13.11
ज्ञान क्या है ?
श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव , अहिंसा , क्षमाभाव , सरलता , श्रद्धा - भक्तियुक्त गुरु सेवा , शौंच , आत्म विनिग्रह , बसभीं भोगों में वितृष्णा का भाव , आसक्ति का अभाव , ममता मुक्त , समभाव , अभ्यभिचारिणी भक्ति का होना , एकांत वासी , प्रेम भाव से भरा हुआ , अध्यात्म ज्ञान युक्त , तत्त्व ज्ञान से प्रभु को देखना - यह सब ज्ञान है ।
3 - ऊपर बतायी गयी बातें मनुष्मृति में धर्म के लक्षणों के रूप में बतायी गयी हैं ।
श्लोक - 6
सप्त महर्षि ,04 सनकादि ,14 मनु ,ये सभीं मुझमें भाव वाले , मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं । संसार में जो प्रजा
है , वह सब इनसे ही है ।
श्लोक - 7
जो मेरी विभूतियों को तथा मेरे योग शक्ति को तत्त्व से जानता है, वह अविकल्प योगयुक्त हो जाता है , इसमें कोई संदेह नहीं ।
अविकल्प योग क्या है ?
महर्षि पतंजलि योगसूत्र से समाधि पाद के प्रारंभ में कहते हैं , योग अनुशासन है जिससे चित्त की वृत्तियाँ निरोधित होती हैं । अब अविकल्प को समझते हैं ।
जब चित्त एक और केवल एक पर पूर्णरूपेण ऐसे स्थिर हो जाय कि उसकी यह एकाग्रता देश - काल से अप्रभावित रहे तब यह चित्त की स्थिति अविकल्प की स्थिति होती है ।
अविकल्पयोग , योग साधना में संयम सिद्धि कहलाता है और ध्यान , धारणा और समाधि की एक साथ सिद्धि मिलना , संयम है ।
श्लोक - 8
मैं सबका प्रभव हूँ , मुझसे ही सभीं चेष्टा करते हैं , ऐसा समझ कर मेरे भाव में डूबे हुए ज्ञानी मुझे
निरंतर भजते हैं ।
श्लोक - 9
मच्चित्तः मद्गतप्राणा बोधयन्त : परस्परं ।
कथयंत : च माम् नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।
➡️ निरंतर मुझमें मन लगानेवाले , मुझमें अपनें प्राण अर्पण करनेवाले भक्तजन आपस में सगुण सप्रभाव मेरी भक्ति की चर्चा करते हुए निरंतर संतुष्ट रहते हुए मुझ वासुदेव में रमे रहते हैं ।
श्लोक - 10
मैं अपनें सततयुक्त एवं प्रेमी भक्तों को वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं ।
श्लोक - 11
मैं उनके अंतःकरण में स्थित अपनें अनन्य भक्तों के अज्ञान रूपी अँधकारको ज्ञान - ज्योति से नष्ट कर देता हूँ ।
श्लोक : 12 - 18 तक को प्रारम्भ में दिया जा चुका है , जिनका सम्बन्ध अर्जुन के प्रश्न से है ।
श्लोक - 19 - 42
इन 24 श्लोकों में प्रभु श्री 83 उदाहरणों से स्वयं के सम्बन्ध में बता रहे हैं ⤵️
श्लोक - 19
हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरे विस्तार का कोई अंत नहीं है फिरभी मैं अपनी दिव्य आत्म विभूतियों को तेरे लिए कहूँगा
श्लोक - 20
● मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ ◆ भूतों का आदि , मध्य और अंत हूँ ।
श्लोक - 21
मैं अदिति के 12 पुत्रों में विष्णु हूँ , सूर्य हूँ तथा मैं 49 मरुतगणों का तेज हूँ । ( मरुत गण वायु देवता हैं )
✡ अदिति के 12 पुत्र कौन हैं ?
विवस्वान् , अर्यमा , पूषा , त्वष्ठा , सविता , भग , धाता , विधाता , वरुण , मित्र , इन्द्र और भगवान् वामन
श्लोक - 22
वेदों में सामवेद हूँ ( गीता - 9.17 में कहते हैं ,
ओंकार , ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद मैं हूँ ) देवों में
इंद्र , इन्द्रियों में मन , भूतों में चेतना हूँ।
श्लोक - 23
◆ 11 रुद्रों में शंकर , यक्ष - राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ ।
◆ 08 वसुओं में अग्नि पर्वतों में मेरु ,हूँ ।
⚛ 11 रुद्र कौन हैं ?
1 - कपाली , 2 - पिंगल , 3 - भीम , 4 - विरुपाक्ष ,
5 - विलोहित , 6 - शास्ता , 7 - अजपाद ,
8 - अहिर्बुधन्य ,9 - शंभु , 10 चन्द , 11- भव
⚛ 08 वसु कौन हैं ?
1 - अहश , 2 - ध्रुव , 3 - सोम , 4 - धरा ,
5 - अनिल , 6 - अनल , 7 - प्रत्यूष , 8 - प्रभाष
★ धरा वसु नंद बाबा थे और प्रभाष वसु देवव्रत (भीष्म पितामह ) थे ।
भीष्म पितामह के सम्बन्ध में निम्न बातों को देखें ⬇️
⚛ प्रभाष वसु भीष्म पितामह थे जैसे ऊपर बताया गया ।
💐 प्रभाष वसु वसिष्ठ ऋषि की गाय चुरा लिए थे । वसिष्ठ उन्हें आजीवन क्वारे रहने और पृथ्वी पर जन्म लेने का श्राप दे दिए थे ।
☸ अन्य 07 वसु , प्रभाष वसु को श्राप मुक्त कराने हेतु वसिष्ठ से क्षमा - प्रार्थना करने के अपराध के कारण श्रापित हुए थे । ऋषि वशिष्ठ उन्हें भी धरती पर जन्म लेने का श्राप दे दिए पर जन्म लेते ही मृत्यु होने की भी बात कह दिए थे । इस प्रकार हस्तिनापुर नरेश शंतनु और गंगा से ये 08 वसु पुत्रों के रूप में पैदा हुए थे और इन 08 वसुओं में 07 को गंगा जन्म देते ही गंगा में बहा दी थी लेकिन आखिरी आठवें पुत्र को साथ ले कर शंतनु को त्याग कर वापिस लौट गयी थी । जब देवव्रत 16 वर्ष के हो गए तब एक दिन गंगा शंतनु को उन्हें लौटा दी थी जो महाभारत युद्ध में भीष्मपितामह कहलाये ।
यहाँ तक
श्लोक - 24
पुरोहितों के मुखिया बृहस्पति , सेनापतियों में स्कन्ध जलासयों में सागर , में हूँ ।
श्लोक - 25
महर्षियों में भृगु , शब्दों में एक अक्षर यज्ञों में जप यज्ञ , स्थावर्णों में हिमालय , मैं हूँ ।
श्लोक - 26
वृक्षों में अश्वत्थ ( पीपल ) , देवर्षियों में नारद , गंधर्वों में चित्ररथ , सिद्धों में कपिल मुनि , मैं हूँ ।
श्लोक - 27
घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न उचै :श्रवा , हाथियों में ऐरावत , मनुष्यों में राजा , मुझे जान ।
श्लोक - 28
शस्त्रों में बज्र , गौओं में कामधेनु , प्रजनन का हेतु कामदेव , सर्पों में सर्पराज वासुकी , मैं हूँ ।
श्लोक - 29
नागों में शेषनाग , जलचरों के अधिपति वरुण , पितरों में अर्यमा , शासन करनेवालों में
यमराज , मैं हूँ ।
श्लोक - 30
दैत्यों में प्रहलाद , काल , पशुओं में मृगराज , पक्षियों में गरुण , मैं हूँ ।
श्लोक - 31
पवित्र करनेवालों में पवन , शस्त्रधारियों में श्रीराम , मछलियों में मगर , नदियों में जाह्नवी , मैं हूँ ।
श्लोक - 32
सृष्टि जसब आदि , मध्य और अंत , विद्याओं में आत्मविद्या , विवादके निर्णय करने वाला वाद , मैं हूँ ।
श्लोक - 33
अक्षरों में अकार , समासों में द्वन्द्व , अक्षय काल ,आदि विराट पुरुष सबका धारण - पोषण करता , मैं हूँ ।
श्लोक - 34
मृत्यु , भविष्य में होनेवाली उत्पत्ति का कारण , स्त्रियों में कीर्ति , श्री , वाक् , स्मृति , मेघा , धृति और क्षमा मैं हूँ।
श्लोक - 35
सामवेदीय श्रूतियाँ में बृहत्साम , छंदों में गायत्री , महीनों में मार्गशीर्ष , ऋतुओं में वसंत , मैं हूँ ।
श्लोक - 36
छल करनेवालों में जूआ , तेजस्वियों का तेज , विजय , व्यवसायिनाम् व्यवसाय : और सात्त्विक पुरुषों का
सत्त्व , मैं हूँ ।
श्लोक - 37
वृष्णि बंशीयों में बसुदेव , पाण्डव में धनज्जय , मुनियों में वेदव्यास , कवियों में शुक्राचार्य , मैं हूँ ।
श्लोक - 38
दमन करनेवालों में दण्ड ,जीतने की इच्छावालो में
नीति , गुप्त रखनेयोग्य भावों में मौन तथा ज्ञानियों का तत्त्वज्ञान , मैं हूँ ।
श्लोक - 39
सभीं भूतों का बीज मैं हूँ और मुझसे रहित कोई भी भुत नहीं है ।
श्लोक - 40
मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं ।
यहाँ जो मैं बताया हूँ , वह संक्षेप में है ।
श्लोक - 41
हर प्रकार की विभूति , श्रीमत् , ऊर्जा युक्त सत्त्वको मेरे तेज से ही समझ ।
श्लोक - 42
हे अर्जुन , बहुत जानने का तुम्हारा क्या प्रयोजन है , मैं सम्पूर्ण जगत् को अपनी ऊर्जा के एक अंश मात्र से धारण किये हुए हूँ ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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