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Showing posts from September, 2021

गायत्री और संध्या बेला

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त्रिपदा त्रिवेदीय मूल गायत्री

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 गायत्री सुबह / सायं कालीन अमृति बेला में मनन करने का त्रिवेदी छन्द है । 08 - 08 अक्षरों वाला तीन पदीय गायत्री सवितृ देवता की कर्म बंधन मुक्त होने की प्रार्थना है । अब देखिये स्लाइड को ⬇️

गायत्री क्रमशः

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 गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , छंदों में गायत्री छन्द मैं हूँ । ऋग्वेद में सवितृ देवता के माध्यम से हर बदल रहे परमात्मा की स्तुति की गयी है । सूर्योदय के थीक पहले पूर्व दिशा के उस क्षेत्र में जहाँ पृथ्वी और आकाश एक दूसरे से मिलते से भाषते हैं , हर पल बदल रहा आभा मण्डल को सवितृ देवता के रूप में ऋग्वेद के ऋषि देखते हैं । इस बेला को संध्या बेला कहते हैं । अब गायत्री ⬇️

ऋग्वेद भाग - 2 , 3

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  गायत्री जप करता जब सागर रूपी गायत्री में नमक के पुतले जैसे स्वयं के लिए गल जाय तब जपा गायत्री उसके लिए अजपा गायत्री बन जाती है ।  गायत्री - जाप चित्त को निरु भूमि में पहुँचाता है जो एकाग्रता के माध्यम से समाधि में ले जाता है । अब देखिये निम्न स्लाइड्स को 👇

ऋग्वेद दर्शन

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 ऋग्वेद आदि वेद माना जाता है लेकिन इसकी भाषा न तो संस्कृत है और न ही प्रकृति । प्रकृति भाषा संस्कृत से भी पहले की भाषा है जिसका प्रयोग जैन शास्त्रों में देखा जाता है ।  मूल ऋग्वेद को संस्कृत में कब और कैसे ढाला गया , कुछ नहीं कहा जा सकता । जो भी हुआ हो हमें तो ऋग्वेद के माध्यम से ज्ञान को लेना है अतः निम्न दो स्लाइड्स को देखते और देख कर समझने का यत्न करते हैं।

वेद जिज्ञासा - 4 किस वेद में कितने मन्त्र हैं ?

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 वर्तमान में 04 वेदों के होने की मान्यता है । आज हम इन चार वेदों में कितने - कितने मन्त्र हैं  , इस बात को देख रहे हैं । ऐसा भी है कि एक वेड4 के कुछ मन्त्र दूसरे वेदों में भी दिखते हैं । नीचे दी जा रही स्लाइड को देखें जिसको internet की मदद से तैयार किया गया है ।

वेद जिज्ञासा - 3 प्रभु की अनुभूति

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  प्रभु श्री कृष्ण गीता में अध्याय - 7 श्लोक - 16 में बता रहे हैं 03 प्रकार के लोग मुझसे जुड़ते हैं ; अर्थार्थी , आर्त और जिज्ञासु । अर्थार्थी अर्थात धन प्राप्ति की कामना वाले , आर्त अर्थात दुःख - संकट निवारण चाहनेवाले और तीसरे जिज्ञासु हिट हैं जो मुझे तत्त्व से समझना चाहते हैं । तत्त्व से प्रभु को समझना क्या है ?  प्रभु जैसा है उसे ठीक उसी तरह देखना और समझने वाले तत्त्व वित् होते हैं । चित्त जड़ तत्त्व है जिसे स्वयं का और और किसी का कोई पता नहीं लेकिन यह एक दर्पण जैसा है और चित्त रूपी दर्पण पर जो भी प्रतिविम्ब बनता है , पुरुष उसे वैसा ही समझता है । जब चित्त रिक्त और शून्यवस्था में आ जाता है , तब वहाँ जो भी होता है , उसे परमात्मा कहते हैं । काम चलाने के लिए हम ऐसा सोच सकते हैं । वैसे प्रभु की अनुभति मन , बुद्धि और अहँकार क्षेत्र से परे की  है । योग में इस स्थिति को महाविदेहा की स्थिति कहते हैं । अब स्लाइड पर ध्यान केंद्रित करते हैं ⬇️

वेद जिज्ञासा - 2 वेद और प्रभु

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  वेद विभिन्न माध्यमों से मनुष्य के रुख को प्रभु की ओर मोड़ना चाहते हैं । सारी नदियाँ सागर से मिलना चाहती हैं और अपनें इस जिज्ञासा पूर्ति के लिए उन्हें घोर श्रम करना पड़ता है । आखिर वे सागर से क्यों मिलना चाहती हैं ? क्योंकि सागर उनका मूल है । सागर का  पानी वाष्प बनकर आकाश में पहुँचता है । वहां से बूंद बनकर नीचे पृथ्वी पर गिरता है और फिर वहीँ बूंदें मिलकर एक साथ एक दिशा और एक लक्ष के लिए चल पड़ती हैं अपनें मूल श्रोत की तलाश में । अंततः नदियों के रूप में वहीँ बूंदें सागर से मिल जाती हैं । सागर से मिलते ही सारी नदियाँ सागर बन जाती हैं और उनका अपना - अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है । क्या हम लोग परमात्मा में लीन हो कर परमात्मा नहीं बनना चाहते ! चाहते हैं लेकिन भोगकी रस्सियों में जकड़ा मनुष्य आगे चल नहीं पाता । मनुष्य के भोग बंधनों से मुक्त कराने के सारे उपाय वेद  करते हैं । ऋग्वेद प्रभु की अनुभूति हृदय में कराता है - देखिये नीचे दी गयी स्लाइड को । पहली स्लाइड के नीचे गीता के कुछ श्लोकों को दिया गया है जहाँ प्रभु की अनुभूति हृदय माध्यम से होने की बातें कहीं गयी हैं ।  गीता : 14.24 में प्रभु श्

वेद जिज्ञासा - 01

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  वेद जिज्ञासा के अंतर्गत वेदों से सम्बंधित छोटी - छोटी ऐसी जानकारियाँ देने का यत्न किया जाएगा जिनसे बुद्धि में एक निर्मल ऊर्जा का संचार हो सके जो देह में स्थित देहि ( जीवात्मा ) और ब्रह्म से एकत्व स्थापित कराने में सक्ष्म है । भागवत पुराण में बताया गया है कि ...... सतयुग में ओंकार एक वेद था , नारायण एक देवता थे और चार (ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र ) वर्ण नहीं एक वर्ण था - हंस । अब निम्न स्लाइड को देखते हैं ⬇️

वेदांत दर्शन में प्रस्थानत्रयी क्या हैं ?

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 बेद और उपनिषद् माध्यम से हम गीता तत्त्व विज्ञान में वेदांत दर्शन की यात्रा प्रारंभ कर रहे हैं । यात्रा के प्रारंभ में कुछ मौलिक बातों को समझ लेना आवश्यक है जिससे यात्रा अवरोध मुक्त बनी रहे । इस संदर्भ में पहले हम प्रस्थानत्रयी को आज समझ रहे हैं और इस संबंध में नीचे एक स्लाइड दी जा रही है । आइये समझते हैं वेदांत के मूल स्तम्भ प्रस्थानत्रयी को ⬇️

तामस अहँकार से संर्गों की उत्पत्ति

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 आज सर्ग उत्पत्ति बिषय समाप्त हो रहा है । ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल ( भागवत में ) , कपिल सांख्य में और भागवत में प्रभु श्री कृष्ण द्वारा व्यक्त सर्ग उत्पत्ति सिद्धांतों में तामस अहँकार से हुयी सर्ग उत्पत्ति को यहाँ स्लाइड्स में दिखाया गया है । # पञ्च महाभूत लिङ्ग शरीर के आश्रय हैं ; बिना पञ्च महाभूत लिङ्गशरीर स्थिर नहीं रहता । आज आप पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति को यहाँ देख रहे हैं ।  आइये देखते हैं स्लाइड्स को ⬇️ ~~ ॐ ~~

भागवत में सर्ग उत्पत्ति चरण 2 - 3

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 पिछले अंक में प्रकृति - पुरुष संयोग से  महत् और अहँकार की उत्पत्ति को देखा गया और आज इस श्रृंखला में सात्त्विक अहँकार और राजस अहँकार से उत्पन्न होने वाले संर्गों को ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और प्रभु श्री कृष्ण के विचारों के माध्यम से देख रहे हैं ।  सब के विचारों को एक स्लाइड में देखने से उनके सिद्धांतों को ठीक -ठीक समझने में सुविधा होगी , इस लिए ऐसा किया गया है । आइये देखते हैं निम्न 02 स्लाइड्स को ⬇️

सर्ग उत्पत्ति में महत् - अहँकार की उत्पत्ति

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 सर्ग उत्पत्ति तत्त्व ज्ञान के अंतर्गत पिछले कुछ अंकों में विस्तार से चर्चा की गयी जिसमें ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा दिए गए ज्ञान को श्रीमद्भागवत पुराण और सांख्य दर्शन के आधार पर चर्चा के विषय थे । अब उन चर्चाओं के सार को चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है । यहाँ पहला भाग प्रस्तुत है जिसमें महत् और महत् से अहँकार की उत्पत्ति को दिखाया जा रहा है । अगले अंक में सात्त्विक अहँकार से उतपन्न संर्गों को दिखाया जाएगा । आज वैज्ञानिक जीव कण की खोज में जुटे हुए हैं । वह जीव कण महत् है जिससे अन्य 22 तत्त्वों की उत्पत्ति हुई और जब ये सारे तत्त्व मिले तब पहला साकार अंडा बना जो सभीं सृष्टियों का अक्षय पात्र है। आइये इस रहस्य स्व भरपूर ज्ञान के 04 में से पहले भाग की दो स्लाइड्स को देखये हैं ⬇️

भागवत में प्रभु श्री कृष्ण का तत्त्व ज्ञान

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 भागवत में प्रभु श्री कृष्ण के तत्त्व ज्ञान में तामस अहँकार से सर्ग की उत्पत्ति सांख्य कारिकाओं में व्यक्त उत्पत्ति जैसी ही है जैसा आप पिछले अंक में देख चुके हैं ।  यहाँ पुरुष की जगह कृष्ण ब्रह्म को बताते हैं और प्रकृति की जगह माया शब्द का प्रयोग करते हैं । देखिये निम्न स्लाइड्स को ⬇️

सांख्य दर्शन में कपिल का तत्त्व ज्ञान

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 पिछले अंक में कपिल का भागवत आधारित तत्त्व ज्ञान देखा गया और आज हम उसी ज्ञान को सांख्य कारिकाओं के आधार पर देख रहे हैं । तत्त्व ज्ञान भागवत और सांख्य कारिकाओं दोनों में कपिल मुनि का ही है लेकिन दोनों मूलतः भिन्न हैं , ऐसे कैसे हो सकता है ! कपिल मुनि को सांख्य दर्शन के जन्म दाता के रूप में देखा जाता है और उनका सर्ग उत्पत्ति सिद्धान्त कुछ बदलाओं के साथ सभीं पुराणों में दिया गया है । कपिल पहले मनु की पुत्री देवहूति और कर्मद ऋषि के पुत्र हैं। कर्मद ऋषि ब्रह्मा जी की छाया से पैदा हुए थे और विदुसर पर उनका आश्रम हुआ करता था जो तीन तरफ से सरस्वती नदी से घिरा हुआ होता था। अब देखें स्लाइड्स ⬇️

भागवत में कपिल मुनि का सांख्य तत्त्व ज्ञान क्रमशः

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कपिल मुनि का भागवत आधारित सांख्य तत्त्व ज्ञान क्रमशः यह प्रस्तुति पिछले का क्रमशः है अतः इसे पिछले अंक के साथ देखना चाहिए ।।ॐ ।।

श्रीमद्भागवत पुराण में कपिल मुनि का सांख्य तत्त्व ज्ञान - 1

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अभीं तक हम भागवत में ब्रह्मा जी तथा मैत्रेय ऋषि के सांख्य तत्त्व ज्ञान को देखे जिसे सर्ग उत्पत्ति ज्ञान भी कह सकते हैं । ब्रह्मा जी और  मैत्रेय जी के तत्त्व ज्ञानों में मौलिक अंतर है , जिसे आप देख चुके हैं । अब हम भागवत में कपिल मुनि का तत्त्व ज्ञान देखने जा रहे हैं जिसे वे अपनीं माँ देवहूति को मोक्ष प्राप्ति हेतु दिए थे ।  ध्यान रहे कि कपिक सांख्य दर्शन के जन्मदाता हैं और उनके तत्त्व ज्ञान को सांख्य कारिकाओं के आधार पर आगे चल कर देखना भी है। भागवत का कपिक तत्त्व ज्ञान , सांख्य कारिकाओं में दिए गए तत्त्व ज्ञान से मौलिक रूप से भिन्न है । आइये भागवत माध्यम से कपिल मुनि के तत्त्व ज्ञान को देखते हैं यहाँ निम्न स्लाइड के माध्यम से ⬇️