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Showing posts from March, 2012

मोह एवं वैराज्ञ

मोह के लक्षणों को हमनें पिछले अंक में देखा और गीता के कुछ और सूत्रों को देखते है जिनका सीधा सबंध मोह से है / गीता श्लोक – 2.52 यदा ते मोहकलिलं बुद्धिः ब्यतीतरिष्यति / तदा गन्तासि निर्वेदम् श्रोतब्यस्य श्रुतस्य च // इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें ------ यदा ते बुद्धिः मोहकलिलं तदा … .... श्रुतस्य च श्रोतब्यस्य निर्वेदं गन्तासि अर्थात ---- प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं … ..... जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को भलीभाति पार कर जायेगी उस समय सुनें हुए और सुननें में आनेवाले इस लोक और पर लोक संबंधी सभीं भोगो से वैराज्ञ को प्राप्त हो जाएगा // इस सूत्र का निचोड़ कुछ इस प्रकार से देखा जा सकता है ----- मोह और वैराज्ञ एक साथ एक बुद्धि में नहीं बसते delusion and dispassion both do not exist together . गीता में आगे चल कर प्रभु कहते हैं … ... वैराज्ञ के बिना संसार को समझना संभव नहीं और वैरागी ही ज्ञानी होता है / ज्ञान उसे कहते हैं जो क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध कराये क्षेत्र है वह जो ज्ञेय है जो साकार है जैसे जीव का देह और देह में रहनें वाले स

गीता तत्त्वों में मोह

गीता तत्वों की परिचय श्रृंखला के अंतर गत अभीं तक हम कामना क्रोध एवं अहँकार को देख रहे थे और अब देखते हैं मोह को / गीता का प्रारम्भ अर्जुन के मोह से है और गीता यों तो कभीं साप्त नहीं होता लेकिन अर्जुन का आखिरी सूत्र 18.73 यः बताता है है कि अर्जुन का मोह समाप्त हो चुका है / गीता में मोह को समझनें के लिए कम से कम गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए ------- 1.28 1.29 1.30 2.52 4.35 18.72 18.73 4.38 10.3 14.8 14.10 x गीता सूत्र – 1.28 – 1.30 तक दृष्ट्वा इमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् / सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति // वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते // अपने स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा शरीर में कंपन एवं रोमांच हो रहा है … ... गांडीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते / न च शकनोम्यवस्थातुम् भ्रमतीव च में मनः // हाँथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है , त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है और मैं खडा रहनें में भी समर्थ नही हो पा रहा हूँ / अर्जुन गए तो थे इस पर – उस पार कि

कर्म योग समीकरण

गीता श्लोक – 2.59 , 2.60 , 3.6 , 3.7 श्लोक – 2.59 विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः / रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते // ऐसे लोग जो किसी तरह अपनी इंद्रियों को इस स्थिति में ले आते है जब उनकी इन्द्रियाँ बिषयों की ओर रुख नहीं करती लेकिन उनमें बिषयों की आसक्ति तो बनी रहती है पर स्थिर प्रज्ञ पुरुष जो प्रभु केंद्रित रहता है उसमें यह आसक्ति भी समाप्त हो गयी होती है / श्लोक – 2.60 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः / इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः // आसक्ति जबतक है तबतक इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखेंगी श्लोक – 3.6 कर्म इन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् / इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार : स उच्यते // मूढ़ ब्यक्ति समस्त इंद्रियों को हठात बाहर – बाहर से नियोजित करके मन से बिषयों का चिंतन करत रहता है , ऐसा ब्यक्ति दम्भी होता है श्लोक – 3.7 यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन / कर्म इन्द्रियै : कर्म योगं असक्तः सः विशिष्यते // हे अर्जुन ! वह जो मन से इंद्रियों को समझ कर उनको बश में रखता है वह बिषयों में अनासक्त ब्य

गीता में भोग तत्त्वों की पहचान

गीता श्लोक – 3.7 य : तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन / कर्म इन्द्रियै : कर्मयोगम् असक्तः स : विशिष्यते // इस श्लोक को ऐसे पढ़ें तु अर्जुन यः मनसा इन्द्रियाणि नियम्य आसक्तः कर्म इंद्रियै : कर्मयोगम् आरभते सः विशिष्यते शब्दार्थ किन्तु हे अर्जुन ! जो मन से इंद्रियों को बश में करके अनासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है / भावार्थ नियोजित कर्म इंद्रियों से होश में किया गया कर्म ही कर्म योग है // Control of senses through developing correct understanding in the mind leads to Karma – Yoga . Actions performed in Karma – Yoga do not have influence of three natural modes such as goodness , passionate and dullness . A man is said to be Karma – Yogin whose actions do not have the energy of greed , aversion , loathed , bondage , clinging and ego आप इस श्लोक को गीता के श्लोक 6.24 , 6.26 , 6.29 , 6.30 , 2.60 , 2.61, 2.64 , 2.67 के साथ देखें // ==== ओम् ======

बिषय एवं इंद्रिय ध्यान

गीता श्लोक – 2.60 यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः / इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः // आसक्त प्रथम स्वभाववाली इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखती हैं [ Impetuous senses carry of mind by force ] गीता श्लोक – 2.67 इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते / तदस्य हरन्ति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि // जैसे जल में चल रही नाव को वायु हर लेती है वैसे ही बिषय से असक्त एक इंद्रिय प्रज्ञा को हर लेती है / [ When mind runs after roving senses , carries away the Pragya [ correct understanding ] ] गीता - तत्त्व श्रंखला में कामना क्रोध एवं अहँकार के सम्बन्ध में आज हम गीता के दो और सूत्रों को देखे , अब हमें इन दो सूत्रों को अपनें ध्यान में उतारना चाहिए / गीता में प्रभु श्री कृष्ण महाभारत युद्ध के माध्यम से अर्जुन के कर्म – मार्ग की दिशा को कुछ इस प्रकार से बदलनें की कोशिश कर रहे हैं जिससे वह भोग से सीधे योग में पहुँच कर वैराज्ञ की अनुभूति के माध्यम से परम गति की ओर चल पड़े / बिषय से इंद्रिय नियोजन इंद्रिय नियोजन से मन नियोजन मन नियोजन से बुद्धि नियोजन और बुद

गीता में आसक्ति कामना एवं ज्ञान सम्बन्ध

गीता श्लोक – 4.19 यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः / ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् तमाहु : पण्डितं बुधाः / जिसके सभीं कर्म बिना कामना - संकल्प होते हैं , जिसके सभी कर्म ज्ञान रूप अग्नि में भष्म हो गए होते हैं उस महापुरुष को ज्ञानी जन पंडित की संज्ञा देते हैं // इस श्लोक को ऐसे देखें ------- पंडित , बुध पुरुष एवं ज्ञानी एक ब्यक्ति के संबोधन हैं जिसके सभीं कर्म बिना कामना एवं संकल्प के होते हैं अर्थात ---- कामना - संकल्प रहित कर्म ही कर्म योग है जिसका फल है ज्ञान Actions without desire and determination lead to Karma – Yoga which leads to wisdom . आप यहाँ गीता श्लोक – 18.49 , 18.50 को भी देखें जो इस प्रकार हैं ------ असक्तः बुद्धिः सर्वत्र जीतात्मा विगतस्पृह : नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य सिद्धि मिलती है Action having no attachment leads to perfection of Karma – Yoga सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध में समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा नैष्कर्म – सिद्धि ही ज्ञान – योग

कामना क्रोध अहँकार एवं गीता

गीता सूत्र – 18.17 यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते / हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते // वह जिसमें कर्ता भाव की सोच नहीं है , जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों एवं कर्मों के बंधनों से मुक्त है , वह ब्यक्ति सब लोकों का हनन करने के बाद भी मारनें के पापों से मुक्त होता है He who does not have self sense and whose intelligence is free from passion , he is a liberated man . गीता सूत्र – 3.27 प्रकृते : क्रियमाणानि गुणै : कर्माणि सर्वशः / अहँकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते // कर्म कर्ता गुण हैं और मैं कर्ता हूँ की सोच अहँकार की छाया है Actions are performed by the three natural modes , man is not the performer but he who has the feeling that he is the actual doer , his feeling is due to his self sense – energy . ऊपर यहाँ गीता के दो सूत्र दिए गए जिनका सम्बन्ध कर्म , अहँकार , गुण एवं बुद्धि समीकरण से है / गीता कर्म – योग की गणित बताता है और यह भी कहता है - तुम यह न सोचो की जो कर्म तुमसे हो रहा है वह तुम कर रहे हो , तुम तो यंत्रवत हो जिसको तीन गुणों मे

गीता तत्त्वों को समझो

गीता श्लोक – 5.23 शक्नोतीहैव य : सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् / कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त : स सुखी नरः // " काम – क्रोध के वेग को सहन करनें वाला ब्यक्ति सुखी रहता हा और योगी होता है " He who keep himself beyond the influence of sex and anger , is yogin and happy man गीता का यह श्लोक यहाँ कामना , क्रोध एवं अहंकार गीता तत्त्वों को स्पष्ट करनें के सन्दर्भ में दिया जा रहा है / गीता के मुख्य तत्त्व हैं - आत्मा , परमात्मा , आसक्ति , कामना क्रोध , लोभ , कम , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार और अभीं हम आसक्ति कामना क्रोध एवं अहंकार को एक साथ समझ रहे हैं / गीता श्लोक – 5.23 के साथ आप यदि श्लोक – 3.37 , 5.28 , 16.21 को भी देखें तो श्लोक – 5.23 में कही गयी बात और स्पष्ट हो सकती है , आइये इन श्लोकों के सारांश को देखते हैं ----- श्लोक – 3.37 यह श्लोक कह रहा है - काम एषः क्रोध एषः रजोगुणसमुद्भवः अर्थात काम का रूपांतरण क्रोध है और काम राजस गुण का मुख्य तत्त्व है / श्लोक – 5.28 यह श्लोक कह रहा ह

गीता तत्त्वों में कामना क्रोध अहंकार अगला सोपान

कामना क्रोध एवं अहंकार [ Desire , anger and ego – self sense ] अगला भाग [ Next Part ] गीता श्लोक – 7.27 इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत / सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यान्ति परंतप // इच्छा , द्वेष , द्वंद्व एवं मोह अज्ञान के लक्षण हैं desire , aversion , sense of dispute and delusion all these are the symptoms of ignorance [ Agyaana ] ऊपर के सूत्र में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ----- कामना [ इच्छा ] द्वेष , द्वंद्व एवं मोह से सभीं जीव सम्मोहित हैं और राजस – तामस गुणों के ये तत्त्व अज्ञान की पहचान हैं / क्या है अज्ञान ? और क्या है ज्ञान ? गीता सूत्र – 13.2 में प्रभु कहते हैं ----- जो क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति - पुरुष का बोध कराए वह है ज्ञान बाकी सभी अज्ञान हैं // Through Git – Sutra 13.2 Lord Krishna says ….. The awareness of knowable , unknown , the existence and its creator is wisdom [ gyaana ] . एक बात आप अपनी स्मृति में बैठा लें कि … ... गीता भक्ति मार्ग का श्रोत न तो है और न ही बन सकता है गीता बुद्धि - योग का मार्ग है और ----- ऐसे लोग जिनका क

मनन आसक्ति कामना क्रोध सम्बन्ध

आसक्ति कामना एवं क्रोध गीता सूत्र – 2.62 , 2.63 ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते / संगात्सज्जायते कामः कामात्क्रोध : अभिजायते // क्रोधात् भवति सम्मोह : सम्मोहात् स्मृति विभ्रवः / स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति // विषय का चिंतन [ ध्यान ] उस विषय के प्रति आसक्ति पैदा करता है , आसक्ति से कामना का जन्म होता है , कामना [ काम उर्जा ] पूर्ति में जब अवरोध उठता है तब वही ऊर्जा क्रोध में बदल जाती है , क्रोध में स्मृति खंडित हो जाती है , स्मृति के खंडित होनें से मनुष्य पथभ्रष्ट हो उठता है और यह स्थिति पतन का कारण है / Deep thinking over an object is the source of attachment Attachment is the seed of desire Unfulfilled desire is the source of anger Under the influence of anger man does not understand what is right and what is wrong and he is derailed from the right path .A derailed man does not remain a human being . मनन , आसक्ति , काम [ कामना ] एवं क्रोध के पारस्परिक सम्बन्ध को आप देखे अब इस समीकरण को आप अपना कर अपने मार्ग क

गीता के अनमोल सूत्र

Gita श्लोक – 2.56 दु : खेष्वनुद्विग्नमना : सुखेषु विगतस्पृह : / वीतरागभयक्रोध : स्थितिधीर्मुनिरुच्यते // शब्दार्थ … .... दुःख मिलनें पर जिसके मन में उद्वेग न उठे , सुख की प्राप्ति में जो निः स्पृह रहे तथा जिसके राग भय एवं क्रोध समाप्त हो चुके हों वह स्थिर प्रज्ञ मुनि होता है / ध्यानार्थ … ... राग , भय एवं क्रोध की ऊर्जा जिसमें रूपांतरित हो कर समभाव में बदल गयी हो वह स्थिर प्रज्ञ है // Steadfast devotee is always free from the gravity of lust , clinging and anger . He always remains in evenness – yoga . गीता श्लोक – 4.10 वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता : / बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता : // शब्दार्थ … ... वे जो राग , भा एवं क्रोध रहित होते हैं वे प्रेममय मुझमे स्थित रहते हैं और ऐसे योगी ज्ञान तप के माध्यम से मुझे प्राप्त कर लेते हैं / ध्यानार्थ … ... राग , भय एवं क्रोध [ राजस – तामस गुण तत्त्व ] से अछूता योगी ज्ञान के माध्यम से मुझ में स्थित रहता है / He who is free from lust [ passion – mode ] , clinging [ delusion – mode ] and anger [ ange

कामना , क्रोध एवं अहंकार गीता में

गीता सूत्र – 18.2 काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु : / सर्व कर्म फल त्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः // शब्दार्थ ------ पंडित जन काम से सम्बंधित कर्मों ए त्याग को संन्यास समझते हैं अन्य विचारक सभीं कर्मों के फल के त्याग को त्याग समझते हैं / भावार्थ -------- संन्यासी के कर्म कामना रहित होते हैं Action of a steadfast devotee is always without desires गीता सूत्र – 18.54 ब्रह्मभूतः प्रसन्न आत्मा न शोचति न काङ्क्षति / समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम् लभते पराम् // शब्दार्थ --------- ब्रह्म भूत प्रसन्नात्मा न सोचता हा न उम्मीद करता है , वह समभाव में मेरी परम भक्ति में डूबा रहता है भावार्थ ------ पराभक्त कामना रहित होता है Steadfast devotee is always without desires मैं अपने सीमीत अनुभव के आधार पर इन दो सूत्रों का जो अर्थ एवं भाव समझ सका हूँ उनको आप को सेवार्पित कर रहा हूँ , यदि कोई भूल – चूक हो गयी हो तो आप मुझे क्षमा करें // ===== ओम् =====

गीता वाणी

कामना क्रोध एवं अहंकार गीत श्लोक - 6.2 यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव / न ह्यसंन्यस्तसंकल्पों योगी भवति कश्चन // संन्यास एवं योग दोनों एक स्थिति के संबोधन हैं / संकल्पों के त्याग बिना कोई योगी नाहीं होता / अर्थात ----- संकल्पधारी कभीं भी योगी नहीं बन सकता // A man with determination of passion can never be Yogi गीत श्लोक - 6.10 योगी युज्जीत सततं आत्मानम् रहसि स्थितः / एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः // वह जिसका तन , मन एवं इन्द्रिया नियोजित हों , एकांतवासी हो और जो आत्मा के माध्यम से परमाता केन्द्रित हो वह संग्रह रहित आशा रहित [ कामना रहित ] योगी होता है // Yogi is that who is desireless , who likes solitude , whose body , mind ans senses are full of awareness . गीत के दो सूत्र कोई अलग - अलग बात नहीं कह रहे , दोनों बातें मात्र इतन कह रही हैं की ----- तन , मन की पवित्रता एकांत बासी बनाती है और एकांत बासी की दृष्टी बाहर नहीं अन्दर की ओर चलती है / वह जो अन्दर की ओर देखता रहता है , आत्मा केन्द्रित परमात्मा में ही बसेरा बना लेता है // The man in complete serenity is steadfa