कर्म फल की सोच का त्याग
गीता श्लोक –18.6
एतानि अपि तु कर्माणि संगम् त्वक्त्वा फलानि च
कर्तब्यानि इति में पार्थ निश्चितं मतं उत्तमम्
प्रभु इस सूत्र के माध्यम से अर्जुन को बता रहे हैं ----
सभीं कर्मों जैसे यज्ञ , तप , दान एवं अन्य सभीं कर्मों के करने के पीछे आसक्ति एवं फल की सोच की ऊर्जा नहीं होनी चाहिए /
प्रभु कह रहे हैं …...
अर्जुन मनुष्य से जो कुछ भी होता है उसके होनें के पीछे कोई करण नहीं होना चाहिए जैसे आसक्ति एवं कर्म – फल की सोच / क्या है आसक्ति ? इन्दियाँ जब अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचती है तब मन उन – उन बिषयों पर मनन करनें लगता है और मनन के पीछे जो ऊर्जा होती है वह तीन गुणों में से किसी एक गुण की होती है ; जो गुण प्रभावी होगा उस समय मन वैसा मनन करेगा / मनन से मन में जो ऊर्जा बनती है उसे कहते हैं आसक्ति ; आसक्ति की ऊर्जा में चुम्बकीय शक्ति होती है जो बिषय को नजदीक खीचना चाहती है और तब कामना उत्पन्न होती है / कामना की सघनता ही संकल्प है और कामना का टूटना क्रोध की ऊर्जा पैदा करता है / क्रोध अग्नि है जो मनुष्य को राख बना कर भी चैन नहीं लेता / कर्म फल का त्याग का अर्थ है कामना का न होना क्योकि कर्म फल की सोच कामना का एक रूप है जिसका त्याग करना अर्थात कामना रहित होना मनुष्य के बश में नहीं है / मनुष्य जो करता है वह उसके स्वभाव से होता है और स्वाभाव का त्याग करना कितना कठिन होगा कोई भी इस बात को समझ सकता है / स्वभाव रूपान्तरण का दूसरा नाम है साधना मनुष्यको द्विज बना देती है अर्थात साधक का दूसरा जन्म हो जाता है / क्राइस्ट कहते हैं , प्रभु के राज्य में वह पहुँचता है जिसका दुबारा जन्म हुआ हो अर्थात जो साधना से अपनें स्वभाव को बदल दिया हो और गुणातीत हो गया हो /
गीता में बसिये और गीता में तैरिये.गीता को अपना ठिकाना बनाइये
==== ओम्=======
Comments