गीता संकेत 54 कर्मफल एवं योग
कर्म फल की सोच
गीता में हम इस समय कर्म फल की सोच को देख रहे हैं और इस श्रंखला के अंतर्गत आज हम ले रहे हैं गीता श्लोक – 6.1 को जो इस प्रकार है ------
गीता श्लोक –6.1
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः
स संन्यासी च योगी च न निरग्नि:न च अक्रियः
इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें -------
यः कर्मफलं अनाश्रितः कार्यं कर्म करोति
सः संन्यासी च योगी च निरग्नि:न च अक्रियः न
भावार्थ
जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करनें योग्य कर्म करता है वह संन्यासी तथा योगी है
और … ..
जो अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता तथा कृयाओं का त्याग करनें वाला योगी नहीं होता /
Lord Krishna says : One who enacts obligatory prescribed actions without expectation of its result , he is truly a renunciate and a follower of the science of uniting the individual consciousness with the ultimate universal consciousness ; not one without prescribed duties , nor one who merely renounces bodily activities .
प्रभु कह रहे हैं … ...
भौतिक स्तर पर कर्म का त्याग करनें से कोई संन्यासी या योगी नहीं होता , कर्म योगी एवं कर्म संन्यासी वह है जो कर्मों के पीछे न चलता हो कर्म उसके पीछे चलते हों / कर्म – संन्यासी वह है जो कर्म बंधनों का त्यागी हो लेकिन एक बात याद रखना - त्याग स्वयं का कृत्य नहीं यह स्वतः घटित होता है , साधना के फल के रूप में जहाँ योगी कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म
देखता है [ गीता श्लोक – 4.18 ] /
गीता में प्रभु श्री कृष्ण आप के सामनें हैं बुद्धि-योग के माध्यम से आप उनको इन सूत्रों के माध्यम से देख सकते हैं लेकिन देखनें की ऊर्जा अपनी आँखों में आप को पैदा करनी होगी//
=====ओम्=====
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