गीता मर्म - 23

वासना - उपासना

गीता बुद्धि - योग में प्रवेश पाने के लिए गीता में प्रभु के द्वारा प्रयोग किये गए शब्दों के माध्याम से
शब्दातीत की स्थिति में पहुँचना पड़ता है ।
प्रभु अर्जुन को कहते हैं -- सकाम कर्म से निष्काम कर्म में झांको , साकार भक्ति के माध्यम से निराकार
भक्ति में पहुँचो , गुणों के माध्यम से निर्गुण को पहचानों और वासना के माध्यम से उपासना में देखो ।
गीता द्वैत्य के माध्यम से अद्वैत्य में पहुंचाना चाहता है जो अस्तित्व का अपना रूप है ।
गीता सूत्र - 13.15 में प्रभु कहते हैं ------
वह जो इन्द्रियों का श्रोत है पर है इन्द्रिय रहित ......
वह जो सब का पालन हार है पर है अनासक्त .........
वह जो गुणों का श्रोत है पर है गुनातीत ,
वह है .....
परमात्मा ॥
यात्रा वहां से संभव है जहां हम वर्तमान में हैं और मनुष्य का वर्तमान है , वासना एवं लक्ष्य है , उपासना ।
वासना की हमारी जो नकली मित्रता है उसमें होश मय होने का नाम है , उपासना ।
वासना और उपासना को इस उदाहरण से समझते हैं -------
नरेन्द्र [ स्वामी विविका नन्द ] एक गरीब परिवार से थे । वे अपनी आर्थिक मजबूरी की बात स्वामी
परमहंस जी से प्रायः कहा करते थे । एन दिन सुबह - सुबह स्वामीजी नरेन्द्र से बोले --
नरेन्द्र आज तूं माँ से मांगले जो मांगना है और हो जा आर्थिक समस्या से परे । नरेन्द्र माँ के मंदिर में
प्रवेश किया और कुछ घंटे बाद बाहर आये , स्वामीजी पूछ बैठे -- नरेन्द्र माँ से क्या माँगा ?
नरेन्द्र बोले , मांगनें की बात तो मैं भूल ही गया , नरेन्द्र की आँखों में आशू थे , ऎसी घटना एक बार नही
कई बार घटित हुई ।

वह जो मांग के लिए मंदिर में प्रवेश करता है और मूर्ती के साथ ऐसा हो जाता है की मूर्ती और उसके बीच में
कोई और नहीं रह जाता जैसे मांग आदी, तब उस स्थिति को कहतेहैं , उपासना या अनन्य भक्ति जहां
प्रभु एवं भक्त के मध्य कोई दूरी नहीं रहती । जबतक भक्त और मूर्ती के मध्य फासला है तबतक वह
अपरा भक्ति होती है जिसमें वासना का अंश होता ही है ।

गीता में प्रभु एक - एक कदम चलनें की राह अर्जुन को दिखाते हैं और कहते हैं -----
तूं जैसा चाहे वैसा कर अंततः तेरे को वहीं पहुचना है जो मैं कह रहा हूँ ।
वासना की समझ ही उपासना है -----
काम की समझ ही , निष्काम बनाती है ----
साकार भक्ति से निराकार भक्ति का द्वार खुलता है ॥

===== ॐ =====

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