गीता मर्म - 14


गीता सूत्र - 18.2

कर्म , कामना , कर्म - फल एवं त्याग समीकरण

प्रभु कह रहे हैं ------
[क] जिस कर्म में कामना न हो वह कर्म संन्यासी कर्म है ......
[ख] जिस कर्म में कर्म - फल की सोच न हो , वह कर्म , त्यागी बनाता है ......

कर्म एक सहज माध्यम है जो एक तरफ भोग से जोड़ता है और दूसरी तरफ प्रभु का द्वार भी दिखाता है ।
भोग में जो आसक्त हुआ , उसकी पीठ प्रभु की ओर हो जाती है और जो भोग में उदासीन हुआ उसे प्रभु का
द्वार खोजना नहीं पड़ता , उसका हर कदम उधर ही उठता है ।

संन्यासी और त्यागी शब्द भोगी के शब्द हैं अतः इनको बुद्धि से समझना जरुरी है ----
कर्म करनें वाला जब यह समझता है की .....
[क] मैं तो निमित्त मात्र हूँ , मैं तो साक्षी हूँ , मैं तो द्रष्टा मात्र हूँ , कर्म करनें वाला , गुण हैं , तब वह सन्यासी
होता है । संन्यासी का अर्थ है , भोग - तत्वों की पकड़ में न आना ।
[ख] कर्म करता के कर्म में जब भोग तत्वोंकी पकड़ नहीं होती तब भोग तत्वों का वह करता , त्यागी कहलाता है ।

संन्यास एवं त्याग कर्म योग की दो ऎसी दशाएं हैं जो कर्म - योग सिद्धि पर एक साथ स्वयम घटित होती हैं ।
गीता सूत्र - 4.38 कहता है ....
योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है अर्थात संन्यास एवं त्याग जब घटित होता है तब ज्ञान मिलता है और
ज्ञान से समझ आती है की .......
भोग क्या है ----
योग क्या है ----
माया क्या है ----
गुण क्या हैं , और ----
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का राज क्या है ?

==== ॐ ======

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