गीता मर्म - 15
जीवन धारा
मनुष्य का जीवन एक दरिया की धारा जैसा है जबकि अन्य जीवों में यह बात नहीं है
क्योंकि ------
[क] मनुष्य के जीवन में दो केंद्र हैं ; भोग और भगवान् , जबकी अन्य जीव भोग
केन्द्रित हैं ।
[ख] मनुष्य को भोग केंद्र से योग के माध्यम से प्रभु तक पहुंचनें की सोच होती है ,
जबकि -----
[ग] अन्य जीव भोग अर्थात भोजन एवं काम के अलावा और कुछ नहीं सोच
सकते , हाँ अपनें बच्चों की परवरिश परम्परा गत ढंग से करते जरुर हैं ।
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं ; एक भोग को ही अपनी सीमा समझ कर भोग को
अलग - अलग ढंग से से समझते हैं , यहाँ तक की भगवान् को भी भोग के
लिए प्रयोग करते हैं ।
मनुष्य की दूसरी श्रेणी है उनकी जो भोग को भी भगवान् की खोज का एक
माध्यम समझ कर अपनाजीवन चलाते हुए परम गति को प्राप्त करते हैं ।
जीवन धरा के दो किनारे से दीखते हैं , सुख - दुःख , अपने - पराये आदि ।
जो लोग सम भाव में जीते हैं , उनसे प्रभु दूर नहीं रहता । सम भाव की
साधना ही गीता की साधना है । सम भाव् का अर्थ है भाव रहित
स्थिति में रहना । अपनें जीवन के किनारों से जो टकरा कर चलते हैं ,
वे दुखी ब्यक्ति हैं और जो धारा में साक्षी भाव से रहते हुए बहते हैं उनके साथ
प्रभु रहता ही है ।
===== ॐ ======
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