अर्जुन का प्रश्न - 2

यदि आप कर्म से उत्तम ज्ञान को समझते हैं तो फ़िर मुझे कर्म के लिए क्यों प्रेरित कर रहें हैं ?---श्लोक-3.1,3.2
अर्जुन का अगला प्रश्न गीता श्लोक - 3.36 से है अतः उत्तर श्लोक 3.3--3.35 में सिमित होना चाहिए ।
प्रश्न -2 और प्रश्न-5 एक दूसरे के परिपूरक हैं अतः यहाँ हमें गीता-श्लोक 3.3-3.35, 5.2-5.29, 6.1-6.32 अर्थात
कुल 93 श्लोकों को देखना चाहिए । कर्म, कर्म-योग, ज्ञान तथा कर्म-संन्यास का समीकरण को समझनें के लिए
93 श्लोकों में से निम्न श्लोकों को गहराई से पकडनें से गीता- मर्म में प्रवेश मिल सकता है .............
3.4- 3.7 , 3.17 , 3.19-3.20, 3.25-3.29, 3.33-3.34
5.6-5.7 , 5.10-5.12 , 5.14-5.15 , 5.22-5.24 , 5.26-5.28
6.1-6.4 , 6.7 , 6.11-6.14 , 6.16-6.17 , 6.19 , 6.25 , 6.26-6.30
अब आप उठाइये गीता और लग जाइए इन श्लोकों की साधना में और जो आप को मिलेगा वह होगा सत जीवन का
मार्ग।
आप गीता- तत्त्व - विज्ञान से गीता को समझनें की भूल न करना गीता तत्त्व विज्ञानं मात्र आप को गीता के करीब
ले आनें का प्रयाश है। यहाँ दिए गए श्लोकों के आधार पर गीता का कर्म, कर्म-योग , ज्ञान एवं कर्म- संन्यास का जो विज्ञानं निकलता है , वह इस प्रकार है ------
मानव कभीं भी कर्म रहित नही हो सकता [3.4,3.5,18.11], कर्म तो करना ही है क्योंकि कर्म-करता मानव नहीं
गुन हैं [ 2।45,3.27,3.33] . जो कर्म गुन प्रभावित होते हैं वे भोग-कर्म होते हैं , जिनके सुख में दुःख का बीज
होता है [ 2.14,5.22,18.38 ] पर सहज कर्मों का त्याग नही करना चाहिए । कर्मों में भोग-तत्वों का न होना
उन्हें योग कर्म बना देता है [3.19-3.20 ]. कर्म में भोग-तत्वों का त्याग ही कर्म-त्याग कहलाता है जहाँ
कर्म अकर्म तथा अकर्म कर्म दीखता है [ 4.18 ]. भोग तत्वों के प्रभाव के बिना कर्म करनें वाला योगी,बैरागी
एवं सन्यासी कहलाता है [ 6।1-6।4 ] । कर्म में आसक्ति का न होना भोग-कर्म को योग-कर्म बना देता है तथा
कर्म-योग की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान-योग की परा निष्ठा कहलाती है , योग-सिद्धि से ज्ञान मिलता है , ज्ञान से
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध होता है और वह ब्यक्ति बैरागी बन जाता है [ 18।49, 18।50, 4.38, 13.2 ] .
कर्म करके निष्कर्मता ककी सिद्धि पाना सुगम है क्योंकि बिना कर्म किए यह संभव नही हो सकता [3.4-3.5
3.27, 3.33 ] और यह सम्भव तब होता है जब गुणों के प्रभाव से बच कर कर्म हो । कर्म-योग में इन्द्रीओं से
मित्रता का होना आवश्यक है , यह तब होता है जब यह मालुम हो की बिषयों में छिपे राग-द्वेष इन्द्रीओं को अपनीं
ओर खीचते हैं और हठात इन्द्रीओं को नियोजित करनें से अहंकार सघन होता है [ 3.34 , 3.6 ] अतः मन से
इन्द्रीओं को समझना उत्तम है [ 3।7 ] । गुन-बिभाग और कर्म-बिभाग [ 3।28 ] को समझना ही कर्म-योग है ।
मनुष्य का आदि मध्य और अंत भोग में है पर भोग भोगनें से और अतृप्त करता है , यदि भोग को योग की
प्रयोगशाला बना दिया जाए तो वहाँ से बैराग्य मिल सकता है --यही गीता-गुन साधना है ।
===ॐ=======

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