अर्जुन का प्रश्न - 5

अर्जुन पूछ रहे हैं ----आप कर्म-योग एवं कर्म-संन्यास दोनों की बातें बता रहे हैं लेकिन इन दोनों में
मेरे लिए कौन सा उत्तम है, कृपया मुझे बताएं ?
उत्तर को प्रश्न - 2 के उतर केसाथ बताया जा चुका है लेकिन यहाँ गीता के 60 श्लोकों [5.2-5.29 , 6.1-6.32] तक को देखना चाहिए ।
गीता में कर्म, कर्म-योग , कर्म- संन्यास एवं ज्ञान का एक समीकरण दिया गया है जो टुकडों में बिभिन्न अध्यायों
में बिभक्त है , जो इस समीकरण को खोज लिया वह बन गया गीता - योगी । गीता कहता है की बाहर से देख
कर यह समझना काफी कठिन है की कौन भोगी है और कौन योगी है क्योंकि एक ही काम को भोगी - योगी
दोनों करते हैं । भोगी के कर्म के पीछे गुन-तत्वों का प्रभाव होता है और योगी के कर्म प्रकृति की जरुरत के
लिए होते हैं । गीता कहता है --जो गुणों को करता देखता है वह है द्रष्टा-साक्षी [ गीता सूत्र - 14.19 , 14.23 ]और
करता-भाव तो अंहकार की छाया है [ गीता-सूत्र 3।27] , आइये ! अब कुछ और श्लोकों को देखते हैं ।
योगी- सन्यासी के कर्म संकल्प एवं चाह रहित होते हैं [गीता-सूत्र 6.1,6.2,6.4] तथा योगी-सन्यासी स्वयं का
मित्र होता है [गीता-सूत्र 6।6] , इनके कर्म कामना-द्वेष रहित होते हैं [गीता-सूत्र 5।3]। आसक्ति रहित कर्म
से कमलवत स्थिति मीलती है [गीता-सूत्र 5।10] । गीता योगी -सन्यासी समत्व - योगी होता है अर्थात
उसके कर्म में कोई चाह एवं अंहकार नहीं होता [गीता-सूत्र 2.47-2.50 तक ] । कर्म में करता भाव की अनुपस्थिति ही कर्म-संन्यास है [गीता-सूत्र 5।5, 18.11] . परमात्मा कर्म-कर्म फल की रचना नहीं करता
तथा किसी के अच्छे-बुरे कर्मों को ग्रहण भी नहीं करता [गीता-सूत्र 5।14-5।15]। काम-क्रोध से अप्रभावित
ब्यक्ति सुखी रहता है क्योंकि सभी पाप कर्मों का कारन काम है [गीता-सूत्र 3.36-3.42 , 5.23,5.26,7.11]और
गीता -सूत्र 5.27-5.28 में आज्ञा-चक्र पर ध्यान की बात बताई गयी है जिसको हम अलग से लेंगे । गीता-
सूत्र 6.11-6.20 तक में ध्यान की कुछ अहम् बातें बताई गयी हैं जिनको गीता-ध्यान बिधियों में स्पष्ट किया जाएगा।
संकल्प कामना की जननी है [गीता-सूत्र 6.24 ] , कामना अज्ञान- की जननी है [गीता-सूत्र 7.20 ] और ध्यान
में डूबे ब्यक्ति का मन ऐसे स्थिर होता है जैसे वायु रहित स्थान में एक दीपक की ज्योति स्थिर रहती है
[गीता-सूत्र 6।19]।
=====ॐ=======

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