गीता अध्याय - 13 भाग - 04
गीता श्लोक - 13.20 , 13.21
[ पिछले अंक के सन्दर्भ में ]कार्य करण कर्तृत्वे हेतु : प्रकृतिः उच्यते /
पुरुषः सुख दु:खानां भोक्तृत्वे हेतु : उच्यते //
पुरुषः प्रक्रितिस्थः हि भुङ्क्ते प्रक्रितिजान् गुणां /
कारणं गुणसंग : अस्य सदसद्योनिजन्मसु //
" कार्य एवं करण प्रकृति से प्रकृति में हैं , पुरुष सुख - दुःख भोक्ता का हेतु कहा गया है "
" प्रकृति में स्थित पुरुष तीन गुणों से उत्पन्न होनें वालों का भोक्ता है और यह गुण - भोग उसे बार - बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेनें का कारण है "
कार्य - करण क्या हैं ?
* 05 महाभूत + 05 इंद्रिय बिषय को कार्य कहते हैं* 10 इन्द्रियाँ + मन + बुद्धि + अहँकार इनको करण कहते हैं
पुरुष क्या है ?
सांख्य - योग में पुरुष चेतना [ consciousness ] को कहा गया है लेकिन गीता में आत्मा , जीवात्मा , ब्रह्म , परमात्मा के लिए पुरुष शब्द प्रयोग किया गया है /पुरुष से पुरुष में माया , माया से माया में सभीं चर - अचर , विकार , गुण , एवं अन्य सभीं सूचनाएं हैं और जीव का कारण जो है वह भी पुरुष ही है , लेकिन पुरुष विकार रहित , माया मुक्त , गुणातीत है / पुरुष एक ऊर्जा है जिससे प्रकृति में गति है और वह निर्माण - कार्य करनें में सक्षम है /
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