गीता के116 ध्यान सूत्र
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गीता सूत्र –2.57
य:सर्वत्र अनाभिस्त्रेह:तत्
तत् प्राप्य शुभ अशुभं/
न अभिनन्दति न द्वेष्टि
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता//
सम – भाव वाला स्थिर – प्रज्ञ होता है//
Man with settled intelligence remains even in gain and loss . He always remains even
under all circumstances .
सम – भाव की स्थिति क्या है?
भाव,सम – भाव और भावातीत,ये तीन मन की स्थितियां हैं/
भाव में हमारा मन – बुद्धि हमेशा रहते हैं,यह स्थिति जन्म से मिली हुयी है/जन्म
दो के मन,बुद्धि,चेतना एवं आत्मा के फ्यूजन का नाम है/जब दो के मन – बुद्धि
के क्वांटा आपस में मिल कर एक होते हैं तब उन दो के स्वभाव भी आपस में मिल कर एक नये स्वभाव के निर्माण का बीज रखते हैं/आनें वाले बच्चे का स्वभाव कैसा होगा,इसका लेखा-जोखा
स्त्री-पुरुष के उन कणों में बंद होता है जो आपस में मिल कर एक होते हैं/मनुष्य के मन – कण
में सृष्टि के प्रारम्भ से वर्त्तमान तक के सभीं स्वभाव होते हैं और नये आनें वाले बच्चे में उनमें से कोई भी स्वभाव आ सकता है/
मनुष्यअपनें जीवन को होश मय बना कर अपनें बीज को शुद्ध कर सकता है लेकिन यह काम पशु नहीं कर सकते/मनुष्य भाव की साधना कर के सम – भाव में उतर सकता है और सम – भाव से
भावातीत की चढाई स्वयं होती है जहां समाधि का द्वार खुलता है/
गीता मूलतः सम – भाव योग की गणित है//
=====ओम======
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